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रद्दी के ये पुलिंदे

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रद्दी के ये पुलिंदे

मैं लाती हूंं गीता!
तुम कुरान निकालो!
दोनों को आग लगाकर जला लो!
उसपर एक पतीला चावल का चढ़ा लो!

देख लेना!
तुम्हारे चावल पकने से पहले ही
आग बुझ जायेगी!

लेकिन! यह न समझो इनमें ताक़त नहीं!

रद्दी के यहि पुलिंदे!
पूरे गांंव में आग लगा सकते हैं!
पूरे शहर को जला सकते है!
पूरे मुल्क में दंगा और फसाद
करा सकते है!

लेकिन! घर का चूल्हा
नहीं जला सकते!
चावल नहीं पका सकते!

क्योंकि इनका ईजाद!
भूख मिटाने के लिए नहीं!
बल्कि घरों को फूंकने के लिए ही हुआ है!

रद्दी के यही पुलिंदे!
गरीब का पेट नहीं भर सकते!
लेकिन! दंगाइयों को नेता
जरूर बना देते हैं!

रद्दी के यही पुलिंदे!
एक वक्त का चूल्हा नहीं जला सकते!
लेकिन अमीरों को सत्ता तक
जरूर पहुंचा सकते हैं!

एक गरीब के लिए!
गीता और कुरान बंदरिया के
मरे हुए बच्चे के समान हैं!
जो बंदरिया उसे!
सीने से चिपकाये रहती है!

नेताओ और मठाधीसों के लिए!
मुल्लाओं और न्यायाधीशों के लिए!
रद्दी के यही पुलिंदे!
जीवंत होते हैं!
उन्हें ऊर्जा देते हैं!

अमन और शांति के लिए!
परिवर्तन और क्रांति के लिए!

रद्दी के इन पुलिंदों को!
आग में झोंकना ही होगा!
आग में झोंकना ही होगा…

  • अभिषेक / 28.6.20

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ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

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