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माओवादियों के नाम पर आदिवासियों की हत्या क्या युद्धविराम का पालन कर रहे माओवादियों को भड़काने की पुलिसिया कार्रवाई है ?

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माओवादियों के नाम पर आदिवासियों की हत्या क्या युद्धविराम का पालन कर रहे माओवादियों को भड़काने की पुलिसिया कार्रवाई है ?

सीपीआई (माओवादी) ने विगत मार्च माह में बकायदा पर्चा चिपका कर कोरोनावायरस संकट को देखते हुए एकतरफा युद्ध विराम का ऐलान किया था. यही कारण है कि माओवादियों द्वारा घोषित किए गए युद्ध विराम के दौरान माओवादियों ने पुलिस पर अपने हमले बंद कर दिया था. परन्तु क्या पुलिसियातंत्र ने माओवादियों के नाम पर आदिवासियों पर हमला बंद किया ? जवाब 21 मई, 2020 के खबरों में छपी है, जो इस प्रकार है.

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में गुरुवार की दोपहर डीआरजी जिला रिजर्व बल और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई. नेलवाड़ा के जंगल (इंद्रावती नदी के दक्षिणी ओर) में हुई इस मुठभेड़ के बाद सर्चिंग के दौरान घटनास्थल से दो पुरुष माओवादियों के शव बरामद किए गए. मारे गए नक्सलियों में से एक की पहचान प्लाटून नं 16 डिप्टी कमांडर रिशु इस्तम के रूप में हुई है

दूसरे की पहचान पिडिआकोट जनमिलिशिया कमांडर माटा के रूप में हुई है. मौके से दो देशी हथियार, 5 किलो आईईडी, 2 पिट्ठू बैग और माओवादियों के अन्य दैनिक उपयोग के सामान बरामद किए गए हैं. मारा गया जनिमिलिशिया कमांडर आठ लाख रुपये का इनामी बताया गया है.

ऐसा नहीं है कि माओवादियों के एकतरफा युद्ध विराम के दौर में एकमात्र यही कार्रवाई की है, इसके उलट अनेकों आदिवासियों को पुलिसियातंत्र ने माओवादी का जामा पहनाकर फर्जी मुठभेड़ में मार डाला है. इन दो मारे गये ‘माओवादियों’ की मौत की कहानी गढ़ते हुए छत्तीसगढ़ पुलिस ने उनकी हत्या की जो कहानी बनाई है, वह इस प्रकार है, जो खबरों में साया हुई है.

पुलिस अधीक्षक डॉ अभिषेक पल्लव ने घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि बांगापाल थानाक्षेत्र में आने वाले नेलगुडा के जंगल में नक्सलियों के डेरा जमाए होने की जानकारी मिली थी. इसी जानकारी के आधार पर बांगापाल थाने से डीआरजी के जवानों की एक टीम वहां रवाना हुई.

दोपहर करीब ढाई बजे जंगल में पुलिस पार्टी को आता देख दूसरी ओर से नक्सलियों ने गोलीबारी शुरू कर दी. पुलिस की ओर से जवाबी फायरिंग के आगे नक्सली टिक नहीं सके और घने जंगलों की ओट लेते हुए वहां से फरार हो गए. गोलीबारी रुकने के बाद डीआरजी के जवानों ने इलाके की सर्चिंग शुरू की.

इस दौरान दो वर्दीधारी नक्सलियों के शवाें के साथ ही घटना स्थल से दो देसी भरमार बंदूक, आईईडी और अन्य दैनिक उपयोग सामग्री बरामद की गई है. मारे गए दोनों नक्सली संगठन में कमांडर के तौर पर काम कर रहे थे और इनमें से एक पर आठ लाख रुपये का इनाम घोषित था.

पुलिसियातंत्र की इस फर्जीवाड़े के तहत बनाई गई हत्या की इस कहानी के बाद असली कहानी जानिये कि किस तरह पुलिस भोलेभाले आदिवासियों को फर्जी मुठभेड़ में मार कर फर्जी कहानी गढ़ती है. प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार सोशल मीडिया के अपने पेज पर पुलिसिया कहानी के इतर रीसू और उसका चाचा माटा की पुलिस द्वारा की गई हत्या की असली घटना लिखते हैं :

चंद रोज पहले की बात है. मैं और सोनी सोरी एक गांंव के आदिवासियों से बात कर रहे थे. उन आदिवासियों ने मुझे जो बताया उसे सुन कर मैं बहुत डर गया हूंं.

उन आदिवासियों के गांंव में एक महीना पहले दो ग्रामीणों की हत्या कर दी गई थी. मारे गये दो लोगों में से एक पंद्रह साल का किशोर था और दूसरा उसका चाचा जिसकी उम्र चालीस साल थी. यह लोग अबूझमाड़ के गांंव पीडियाकोट में रहते हैं.

दंतेवाडा जिले की सीमा पर बहने वाली इन्द्रावती नदी के पार करीब बीस किलोमीटर दूर इनका गांंव है. इन लोगों को राशन का चावल लेने इन्द्रावती नदी पार करके तुमनार सरकारी दूकान पर आना पड़ता है.

21 मई, 2020 की बात है. रीसू और उसका चाचा माटा घर की महिलाओं के साथ चावल लेने आये थे. उनके पड़ोसी गांंव के लड़कों को यह बात पता थी. पड़ोसी गांंव के उन लड़कों के साथ चाचा माटा का एक बार किसी बात पर झगड़ा हुआ था.

उन लड़कों ने बदला लेने के लिए अपने सिपाही दोस्तों को गीदम थाने में फोन कर दिया. गीदम थाने से बड़ी तादात में डीआरजी फ़ोर्स के सिपाही लूंगी बनियान पहन कर अपनी बन्दूकों को बोरी में छिपा कर इद्रावती नदी पर पहुंंच गये.

वहांं पर रीसू और उसका चाचा माटा नाव में रख कर चावल नदी के पार पहुंचा रहे थे. डीआरजी के सिपाहियों ने बोरी से बंदूकें निकाली और चाचा भतीजे को पकड़ लिया.

माटा की पत्नी और परिवार की अन्य महिलाओं ने इन सिपाहियों से अपने परिवार के पुरुषों को छोड़ देने के लिए बहुत प्रार्थना की. लेकिन सिपाहियों ने रीसू और माटा के हाथ उनके गमछे से पीछे बांंध दिए और उन्हें करीब आधा किलोमीटर दूरी पर घने पेड़ों के पीछे ले जाकर गोली मार दी.

उसके बाद पुलिस विभाग की तरफ से विज्ञप्ति पत्रकारों के व्हाट्सएप पर भेज दी गई कि हमारे विभाग ने दो इनामी नक्सलियों को मुठभेड़ में मार गिराया है, जिनमें से एक के ऊपर आठ लाख का और दूसरे के ऊपर पांच लाख का इनाम था. जाहिर है इस तरह से सरकारी पैसे खाए जा रहे हैं. लेकिन मामला इससे भी ज्यादा गम्भीर है.

यह कोई पुलिस विभाग की कार्यवाही नहीं थी. बाद में अपने सिपाहियों को बचाने के लिए फर्जी कहानी बनाई गई है. यह सीधे सीधे सुपारी किलिंग है. लेकिन अगर पुलिस के सिपाही अपने दोस्तों के दुश्मनों को निपटाने के लिए सरकारी बंदूक, सरकारी गोलियां और सरकारी मोटर साइकिलों का इस्तेमाल करते हैं और उन्हें कोई सजा नहीं होती तो फिर मामला बहुत गम्भीर है.

यह पुलिस द्वारा क़ानून संविधान और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों की धज्जियांं उड़ाने का मामला है. डीके बसु गाइड लाइन में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि गिरफ्तारी के समय पुलिस परिवार को बतायेगी कि आपके सदस्य को हम किस आरोप में कार्यवाही हेतु ले जा रहे हैं. गिरफ्तारी के समय पुलिस अधिकारी अपने नाम पर पद की पट्टी लगाएगा लेकिन यहांं क्या हुआ ?

सिपाही लूंगी पहन कर आये और अपने मूंह भी उन्होंने कपड़ों से छिपाए हुए था. पकड़ने के बाद भी उन्होंने उन पर मुकदमा चलने की बजाय सीधे गोली से उड़ा दिया. खैर यह तो हुई इन सिपाहियों के अपराध की बात. यह डीआरजी की सिपाही तो कानून की कोई इज्जत नहीं करते.

यह लड़के पहले नक्सलियों के साथ थे. अब पुलिस के लिए काम करते हैं. पहले इन्हें एसपीओ कहा जाता था. अब सुप्रीम कोर्ट ने इनसे बंदूकें वापिस लेने का आदेश दिया तो सरकार ने इनका नाम बदल कर डीआरजी कर दिया. लेकिन चिंता का विषय तो ऊपर के अधिकारी हैं.

ऊपर के अधिकारियों को तो क़ानून संविधान सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश की जानकारी है. यह ऊपर के अधिकारी अगर क़ानून संविधान सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का पालन नहीं करेंगे तो संकट पैदा हो जाएगा.

संविधान के अनुसार हर नागरिक को जिंदा रहने का अधिकार है और नागरिक के इस अधिकार की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार की है. इसी काम के लिए नागरिक के टैक्स से बंदूक खरीदी जाती है. सिपाही को तनख्वाह दी जाती है. अब अगर उसी नागरिक को वह सिपाही जान से मार देता है तो कानून उस सिपाही को जेल में डालेगा ?यदि ऐसा नहीं होता तो कानून और संविधान का राज खत्म माना जाएगा.

छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में संविधान का राज समाप्त हो गया है. अब यहांं के आदिवासी अपनी किस्मत से ही जिन्दा है. अब बस्तर के आदिवासी सिपाहियों के रहमो करम पर जिन्दा हैं.

आदिवासियों को खूंखार भेड़ियों के हवाले कर दिया गया है. आप किसी भी आदिवासी गांंव में चले जाइए. आपको खून, आंसुओं और लड़कियों की चीखों से भरी दसियों कहानियांं मिल जायेंगी. सुप्रीम कोर्ट ने इस सब के खिलाफ आदेश दिया है लेकिन पालन तो सरकार को करवाना है.

लेकिन अगर सरकार को ही आदिवासी को डरा कर उसकी ज़मीनें छीन कर अडानी और दुसरे धनपशुओं को देने में फायदा हो तो फिर संविधान लोकतंत्र नागरिक अधिकार महज खोखले शब्द बन जाते हैं. बस्तर में यही चल रहा है

तो इस मामले में लेटेस्ट अपडेट यह है कि मामला हाई कोर्ट में फ़ाइल होने के लिए भेज दिया गया है. मैं जब माटा की पत्नी और रीसू की बहनों को अपने सामने बैठ कर रोते हुए देखता हूंं तो मेरा दिल दुःख से फटने लगता है और गुस्से से बेचैन हो जाता हूंं.

रीसू और उसका चाचा माटा की पुलिसियातंत्र द्वारा ठंढ़े दिमाग से की गई हत्या यह बताती है कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की जिन्दगी किस तरह पुलिसिया भय के साये में बीत रही है. पुलिसियातंत्र की इसी जुल्मों का जवाब देने के लिए सीपीआई (माओवादी) का गठन हुआ है, जो पिछले तीन माह से एकतरफा युद्ध विराम को घोषणा कर शांत है, परन्तु अब सवाल यह उठता है कि क्या पुलिसियातंत्र द्वारा लगातार आदिवासियों पर हमले और उनके बेटे बेटियों की हत्या के बाद क्या माओवादी संघर्ष विराम का अपना घोषणा वापस लेता है या नहीं ?

माओवादी अगर पुलिसिया जुल्मों के खिलाफ अपने संघर्ष विराम को वापस लेता है तो निश्चित तौर पर बड़े पैमाने पर पुलिस मारा जायेगा, जिसकी जिम्मेदारी भी स्वयं पुलिसियातंत्र की ही होगी, जो आये दिन माओवादियों के नाम पर गरीब, असहाय आदिवासियों की हत्याओं को अपना पेशा बनाये हुए है.

विदित हो कि माओवादियों ने कोरोनावायरस के कारण अपने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा के ठीक पहले 17 पुलिस जवानों को इसी कारण हत्या कर दिये थे. अब जब माओवादियों को पुलिसियातंत्र लगातार उकसा रही है तब एक बार फिर धरती पुलिसियों की खून से तर होने लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा.

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ROHIT SHARMA

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