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धर्म के सवाल पर सीपीएम का रूख

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‘धर्म जनता की अफीम है,’ का घोषणा करने वाले मार्क्स और मार्क्सवाद की सैद्धांतिक नींव पर बनी कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर आज भी धर्म के सवाल पर उहापोह की स्थिति है. यह सवाल कम्युनिस्ट पार्टी को ही हास्यास्पद स्थिति में डालने के लिए काफी है, जबकि धर्म के सवाल पर पार्टी और सरकार के बारे में सर्वहारा के तीसरे शिक्षक लेनिन ने स्थिति पूरी तरह स्पष्ट कर दिये हैं.

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने एक ओर जहां धर्म को पार्टी से पूरी तरह अलग करना चाह रही है तो वहीं भारत की कम्युनिस्ट पार्टी धर्म को पार्टी में घुसेड़ रही है. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने लगभग 9 करोड़ सदस्यों को निर्देश दिया है कि वे पार्टी की एकजुटता बनाए रखने के लिए धर्म छोड़ दें.

‘स्टेट एडमिनिस्ट्रेशन फॉर रिलीजियस अफेयर्स’ के निदेशक वांग जुओआन ने शनिवार को कियुशी जर्नल में छपे एक लेख में लिखा, ‘पार्टी सदस्यों को धार्मिक विश्वास नहीं रखने चाहिए. यह सभी सदस्यों के लिए एक लक्ष्मण रेखा है. पार्टी सदस्यों को मार्क्सवादी नास्तिक होना चाहिए.

‘उन्हें पार्टी के नियमों का पालन करना चाहिए और पार्टी में यकीन रखना चाहिए. उन्हें धर्म में यकीन रखने की अनुमति नहीं है. जिन अधिकारियों का यकीन धर्म में हैं, उन्हें इसे छोड़ने के लिए राजी किया जाना चाहिए. जो लोग ऐसा करने का विरोध करते हैं, उन्हें पार्टी संगठन की ओर से दंडित किया जाएगा.’

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) जो भारत में दक्षिणपंथी संशोधनवाद का पताका लहरा रहा है, के महासचिव प्रकाश करात ने धर्म और पार्टी के सवाल को उठाया है और पार्टी के अंदर धर्म को घुसेड़ने का प्रयास किया है. यहां हम प्रकाश करात, जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव रह चुके हैं, द्वारा लिखे गये लेख ‘कौन कहता है माकपा धर्म के खिलाफ है ?’ को सीधे तौर पर प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि उसकी संशोधनवादी चरित्र पूरी तरह साफ हो सके.

धर्म के सवाल पर सीपीएम का रूख

मीडिया के एक हिस्से ने माकपा को इस तरह पेश करने की कोशिश की है, जैसे माकपा का सदस्य होना किसी भी व्यक्ति की धार्मिक आस्थाओं के खिलाफ जाता है ! कुछ सदाशयी धार्मिक नेताओं ने हमसे पूछा भी कि क्या यह फैसला आस्तिकों को पार्टी से बाहर रखने के लिए लिया गया है ? ऐसे में, धर्म के प्रति माकपा का बुनियादी रुख स्पष्ट करने की जरूरत है. माकपा एक ऐसी पार्टी है, जो मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण पर आधारित है. मार्क्‍सवाद एक भौतिकवादी दर्शन है और धर्म के संबंध में उसके विचारों की जड़ें 18वीं सदी के दार्शनिकों से जुड़ी हैं. इसी के आधार पर मार्क्‍सवादी चाहते हैं कि शासन धर्म को व्यक्ति के निजी मामले की तरह ले. शासन और धर्म को अलग रखा जाना चाहिए.

मार्क्‍सवादी नास्तिक होते हैं यानी वे किसी धर्म में विश्वास नहीं करते. बहरहाल, मार्क्‍सवादी धर्म के उत्सव को और समाज में उसकी भूमिका को समझते हैं. जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था, धर्म उत्पीडि़त प्राणी की आह है, हृदयहीन दुनिया का हृदय है, आत्माहीन स्थिति की आत्मा है. इसलिए मार्क्‍सवाद धर्म पर हमला नहीं करता, लेकिन उन सामाजिक परिस्थितियों पर जरूर हमला करता है, जो उसे उत्पीडि़त प्राणी की आह बनाती हैं. लेनिन ने कहा था कि धर्म के प्रति रुख वर्ग संघर्ष की ठोस परिस्थितियों से तय होता है. मजदूर वर्ग की पार्टी की प्राथमिकता उत्पीडऩकारी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ वर्गीय संघर्ष में मजदूरों को एकजुट करना है, भले ही वे धर्म में विश्वास करते हों या नहीं.

इसलिए, माकपा जहां भौतिकवादी दृष्टिकोण को आधार बनाती है, वहीं धर्म में विश्वास करने वाले लोगों के पार्टी में शामिल होने पर रोक नहीं लगाती. सदस्य बनने की एक ही शर्त है कि संबंधित व्यक्ति पार्टी के कार्यक्रम व संविधान को स्वीकार करता हो और पार्टी की किसी इकाई के अंतर्गत पार्टीगत अनुशासन के तहत काम करने के लिए तैयार हो. मौजूदा परिस्थितियों में माकपा धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान पर आधारित सांप्रदायिकता के खिलाफ लड़ रही है.

बेशक माकपा में धर्म में विश्वास रखने वाले लोग भी हैं. ऐसे लोग मजदूर, किसान और मेहनतकश जनता के दूसरे तबकों के बीच से आए हैं. इनमें से कुछ प्रार्थना के लिए मंदिर, मसजिद या चर्च में भी जाते हैं. वे अपनी धार्मिक आस्था को गरीबों तथा मेहनतकशों के बीच काम से जोड़ते हैं. माकपा को ऐसे आस्तिकों के साथ हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं, जो गरीबों के हितों की वकालत करते हैं. खुद केरल में ऐसे सहयोग की लंबी परंपरा है. ईएमएस नंबूद्रीपाद ने मार्क्‍सवादियों और ईसाइयों के बीच सहयोग के क्षेत्रों के बारे में लिखा था और चर्च के कुछ नेताओं के साथ संवाद भी चलाया था.

जहां तक माकपा के ताजा अभियान की बात है, तो उसमें पार्टी अपने नेतृत्वकारी साथियों से अपेक्षा करती है कि वे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर आधारित मार्क्‍सवादी विश्व-दृष्टि को आत्मसात करेंगे. केंद्रीय कमेटी ने इस संदर्भ में जो दस्तावेज स्वीकार किया है, उसमें धार्मिक गतिविधियों से जुड़े दो दिशा-निर्देशों का जिक्र किया गया है. एक तो यही है कि पार्टी सदस्यों को ऐसे सभी सामाजिक, जातिगत तथा धार्मिक आचारों को त्यागना चाहिए, जो कम्युनिस्ट कायदे और मूल्यों से मेल नहीं खाते. यहां पार्टी सदस्यों से धार्मिक निष्ठा त्यागने की बात नहीं की जा रही, लेकिन उन आचारों को छोडऩा होगा, जो कम्युनिस्ट मूल्यों से टकराते हों, जैसे छुआछूत बरतना, महिलाओं को समान अधिकारों से वंचित करना या विधवा पुनर्विवाह का विरोध करना.

दूसरा दिशा-निर्देश पदाधिकारियों तथा निर्वाचित प्रतिनिधियों के आचरण से संबंधित है. उनसे कहा गया है कि वे अपने परिवार के सदस्यों की खर्चीली शादियां न करें और दहेज लेने से दूर रहें. उनसे यह भी कहा गया है कि धार्मिक समारोहों का आयोजन या धार्मिक कर्मकांड न करें. पार्टी के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं को दूसरों द्वारा आयोजित ऐसे सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेना पड़ सकता है. यह विधायकों तथा पंचायत सदस्यों जैसे निर्वाचित लोगों के मामले में खास तौर पर सच है. कम्युनिस्ट नेता यह नहीं कर सकते कि सार्वजनिक रूप से कुछ कहें और निजी जीवन में कुछ और आचरण करें.

कुल मिलाकर यह कि कम्युनिस्ट पार्टी धर्म में आस्था रखने वाले लोगों को अपना सदस्य बनने से नहीं रोकती है.

बहरहाल, जहां वे अपने धर्म का पालन करते रह सकते हैं, वहीं उनसे यह उम्मीद भी की जाती है कि धर्मनिरपेक्षता पर कायम रहेंगे और शासन के मामलों में धर्म की घुसपैठ का विरोध करेंगे. पुनरुद्धार के दिशा-निर्देशों का यही मकसद है कि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों को कम्युनिस्ट मूल्यों के अनुरूप आचरण करने में मदद की जाए. कुछ लोगों का कहना गलत है कि धार्मिक आचार के संदर्भ में अपने नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं के लिए माकपा ने जो दिशा-निर्देश दिए हैं, वे भारतीय संविधान के खिलाफ जाते हैं. हमारा संविधान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का प्रावधान करता है, जो हर नागरिक को अपनी मर्जी के धर्म के पालन का अधिकार देता है. वही संविधान किसी नागरिक के इस अधिकार की भी गारंटी करता है कि वह चाहे, तो किसी धर्म का पालन न करे. माकपा एक ऐसा संगठन है, जिसमें उसके दर्शन से सहमति रखने वाले नागरिक स्वेच्छा से शामिल होते हैं.

पार्टी सदस्यों के लिए जिन दिशा-निर्देशों का जिक्र किया है, वे नए नहीं हैं. इन दिशा-निर्देशों को वर्ष 1996 में तब सूत्रबद्ध किया गया था, जब पुनरुद्धार अभियान का पहला दस्तावेज स्वीकार किया गया था. बहरहाल, चूंकि यह मुद्दा अब उठाया गया है, अत: हमारे लिए जरूरी हो गया कि धर्म तथा कम्युनिस्ट दृष्टिकोण पर पार्टी का रुख स्पष्ट किया जाए.

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ROHIT SHARMA

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