हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
जब प्रधानमंत्री ने कह दिया तो हमें मान लेना चाहिये कि गलवान घाटी में सब ठीक है और मां भारती की अस्मिता को कोई चोट नहीं पहुंची है. बात रही सैनिकों के हताहत होने की…तो उन्होंने ‘प्राण देकर भी दुश्मन के नापाक मंसूबों को नाकाम कर दिया.’
सत्य वही है जो सत्ता प्रतिष्ठान स्थापित करता है या करना चाहता है. आज के दौर के सत्य की परिभाषा यही तो है. सूचनाओं के अन्य स्रोत चीख-चीख कर चाहे जो कहते रहें.
जैसे, सत्ता प्रतिष्ठान ने हमें समझा दिया कि नोटबन्दी से आतंकियों का नेटवर्क छिन्न-भिन्न हो गया, कश्मीर के पत्थरबाजों की ‘फंडिंग’ रुक जाने से वहां ‘शांति’ स्थापित करने में मदद मिली…और सबसे बड़ी उपलब्धि कि…’देश में कालाधन रखने वालों की कमर टूट गई.’
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की बदहाली, छोटे व्यापारियों की फ़ज़ीहत, जीडीपी पर दुष्प्रभाव, बाजार की सुस्ती आदि के आंकड़े, देश-दुनिया के अर्थशास्त्रियों के वक्तव्य आदि एक तरफ … सत्ता प्रतिष्ठान के द्वारा स्थापित किया गया सत्य दूसरी तरफ.
सार्वजनिक रूप से झूठ बोलना अब कोई नैतिक समस्या नहीं, एक कला है और राजनीति में इस कलाकारी का जितना महत्व है उतना कहीं और नहीं. जो इस कला में जितना माहिर है वह उतना हिट है.
सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष ने सार्वजनिक सभा में कहा कि बालाकोट एयरस्ट्राइक में ढाई-तीन सौ आतंकी ढेर कर दिए गए, उनके ट्रेनिंग कैंप ध्वस्त कर दिए गए. उस वीडियो फुटेज को याद करें … वक्ता के चेहरे पर कितना आत्मविश्वास था, कितना दर्प था. उपस्थित जन समूह के जयकारे और हुंकार को याद करें.
इससे क्या फर्क पड़ता है कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया बताता रहा कि किसी भी आतंकी के मरने के कोई सबूत नहीं हैं, बताए गए स्थल पर स्थित एक पुराने मकान, जो शायद किसी बंद पड़े मदरसे का था, की एक भी ईंट खिसकने के कोई प्रमाण नहीं हैं. कुछ पेड़ जरूर झुलसे पाए गए … और … हां … एक कौआ मरा पाया गया.
सत्ता प्रतिष्ठान का सत्य जब जनता का सत्य हो जाता है तो सत्यान्वेषी पत्रकारिता और उसकी रपटों को ‘निहित उद्देश्यों से प्रेरित’ साबित करना आसान हो जाता है.
हालांकि … सैटेलाइट कैमरों के इस दौर में सीमा पर की हलचलों को देखना-समझना अब अधिक आसान हो गया है और किसी भी सत्ता के लिये वास्तविक सत्य से परे कृत्रिम सत्य का प्रतिष्ठापन उतना आसान नहीं रह गया.
लेकिन … अगर जनता के बड़े हिस्से का मानसिक अनुकूलन सत्ता के प्रपंचों के साथ हो तो फिर … बहुत कुछ आसान हो जाता है. आप वह समझा सकते हैं जो हुआ ही नहीं और उस होने से इन्कार कर सकते हैं जो हो गया.
मानसिक अनुकूलन के लिये बड़े प्रयास करने पड़ते हैं. बेवजह के भावनात्मक अध्यायों का सृजन करना होता है, उसके लिये नीचे से ऊपर तक कई तरह की टीमों को सक्रिय करना होता है. तकनीक की भाषा में इसे आईटी सेल कहते हैं. जिसका सेल जितना मजबूत, जितना व्यापक, झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में जितना दक्ष … वह उतना प्रभावी.
मुखयधारा के मीडिया का बड़ा हिस्सा अगर सत्ता संपोषित आईटी सेल का ही हिस्सा बन जाने में अपनी सार्थकता समझने लगे तब तो बात ही क्या है. विचारक इस दौर को यूं ही ‘पोस्ट-ट्रूथ एरा’ नहीं कहते.
पोस्ट-ट्रुथ एरा … यानी उत्तर-सत्य का दौर … यानी ऐसा दौर, जिसमें सत्य को नेपथ्य में धकेल कर कृत्रिम सत्य को प्रतिष्ठापित कर देना आसान हो गया हो. मानसिक स्तरों पर अनुकूल बनाई जा चुकी भेड़ों की जमात के लिये वही सत्य है जिसे सत्ता-प्रतिष्ठान स्थापित करना चाहता है.
शव यात्राओं में ‘अमर रहे’ की गूंज के साथ भाव विह्वल भीड़, तिरंगे में लिपटे ताबूत … कंधे देते नेता, अधिकारी. नकारात्मकताओं को भी अपने राजनीतिक हित में इस्तेमाल कर लेना राजनीति की एक कला है.
हालांकि, इतिहास नोट करता जाता है सब कुछ. क्योंकि … जैसा कि एक अंग्रेजी कहावत है … ‘आप कुछ दिनों तक सब को बेवकूफ बना सकते हैं, सब दिनों तक कुछ को बेवकूफ बना सकते हैं, लेकिन…सब दिनों तक सबको बेवकूफ नहीं बना सकते.’
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