विनय गोस्वामी
यदि चीन भारत पर युद्ध की घोषणा करता है तो इसके कई आयाम हो सकते हैं. प्रत्येक स्थिति में परिणाम भिन्न होगा परन्तु प्रत्येक परिस्थिति में क्या परिणाम होगा, इसका मैंने जो आंंकलन दर्ज किया है, वह लगभग तय है.
(A) यदि भारत और चीन के बीच युद्ध होता है और दोनों देश खुद के हथियारों से लड़ते है, यानी न तो भारत को अमेरिका हथियार भेजता है और न ही रूस भेजता है तो चीन की फौजे 3-4 दिन के अंदर दिल्ली तक आ जायेगी. इसे रोका नहीं जा सकता.
किन्तु व्यवहारिक जीवन में ऐसा नहीं होगा क्योंकि जब आप युद्ध लड़ने के हालत में नहीं होते तो इसका हर्जाना चुका कर युद्ध टाल सकते हो. उदाहरण के लिए यदि भारत यह जान जाता है कि चीन अगले हफ्ते फुल मूवमेंट में भारत पर हमला करने वाला है और भारत को अमेरिका एवं रूस हथियार देने से इनकार कर देते हैं तो भारत शी जिनपिंग से उनकी मांगें पूछेगा.
शी यदि कहते हैं कि उन्हें भारत में हाई स्पीड ट्रेनें चलाने का एकाधिकार चाहिए, भारत में 10 कर मुक्त सेज चाहिए और वे अरुणाचल में एक एयर बेस बनाना चाहते हैं तो भारत उनकी यह मांग मान लेगा और हमें यह कभी भी पता नहीं चलेगा कि युद्ध टाल दिया गया है !! हम पिछले कई वर्षों से इसी तरह से युद्ध टालते आ रहे हैं. युद्ध कभी भी बंद नहीं होता, हर समय चलता रहता है. जो कमजोर होता है, वह युद्ध को टालने के लिए कीमत चुकाता रहता है !!
यदि अमेरिका हमें हथियार देने से इंकार कर दे तो क्यों भारत चीन से 3 दिन भी लड़ने की स्थिति में नहीं है ?
भारत के 80% हथियार आयातित हैं, जबकि चीन अपने सभी हथियार खुद से बनाता है. भारत टैंक से लेकर, लड़ाकू विमान और युद्ध पोत तक आयात करता है. आयातित हथियारों के साथ निम्न समस्याएं है :
- युद्ध छिड़ने पर हथियारों के दाम 10 गुना हो जाते हैं – आधुनिक हथियार दुनिया में सिर्फ 6-7 देश ही बनाते हैं. जब युद्ध छिड़ जाता है ये देश हथियारों की सप्लाई रोक देते हैं और हथियार देने के लिए तरह-तरह की शर्तेंं थोपते हैं. और उस पर भी जब हथियार देते हैं तो दाम 10 गुना बढ़ा देते हैं. जब युद्ध शुरू हो जाता है तो लगातार हथियारों की जरूरत होती है. अब जो देश आयातित हथियारों के भरोसे युद्ध लड़ रहा है वह या तो युद्ध हार जाएगा या फिर उसे हथियार सप्लाई करने वाले देश की सभी शर्तें माननी पड़ेगी. इस तरह जंग जारी रखने के लिए हथियार जुटाने के लिए भी संघर्ष करते रहना पड़ता है. और यह सब समझौते गुप्त रूप से होते हैं, अत: देश के नागरिकों को यह सब कभी पता नहीं चल पाता. उदाहरण के लिए कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिका ने भारत को लेसर गाइडेड बम देने से मना कर दिया था. हमें चोटियों पर कब्ज़ा करने के लिए लेसर गाइडेड बमों की जरूरत थी, और इन बमों के बिना हम पाकिस्तानियों को खदेड़ नहीं पाते. लेसर गाईडेड बम सिर्फ अमेरिका, इस्राएल, रूस और चीन ही बनाते हैं. चीन से तो हम मांग भी नहीं सकते थे. लेकिन रूस ने भी हमें लेसर गाईडेड बम नहीं दिए क्योंकि 1998 में परमाणु परीक्षण करने के कारण रूस भी भारत से नाराज था. शर्तें तय होने के बाद हमें 15 लेसर गाईडेड बम दिए गए, जिनकी सहायता से हमने कारगिल की चोटियांं फिर से प्राप्त की.
- आयातित हथियारों में किल स्विच होते हैं – सभी आधुनिक हथियार जैसे कि लड़ाकू विमान, रडार, पनडुब्बीयां, युद्ध पोत, मिसाइलें आदि कंप्यूटराइज्ड होते हैं और इनमें सेमी कंडक्टर चिप्स लगे होते हैं. जब इन्हें बनाया जाता है तो निर्माता कम्पनी या इंजिनियर इनके सर्किट में किल स्विच रख देते है। इस किल स्विच के कोड उनके पास होने के कारण वे हथियार को निष्क्रिय कर सकते हैं. अभी तक ऐसी कोई तकनीक नहीं खोजी जा सकी है जिससे किल स्विच का पता लगाया जा सके. यदि एक बार किसी हथियार के सर्किट में ट्रोजन रख दिया गया तो फिर इसे किसी भी तरह से खोजा नहीं जा सकता. इसे आप इस तरह से समझ सकते हैं कि जब कोई कम्पनी टीवी बनाए तो उसके दो रिमोट बना ले. एक रिमोट आपको दे दे और एक खुद के पास रखे. लेकिन आपसे यह कभी नहीं कहे कि उसने इस टीवी का एक अतिरिक्त रिमोट अपने पास रखा हुआ है. और साथ में वह आपको यह भी कहे कि यदि इस टीवी के दो रिमोट है तो हमें पता नहीं है ! अमेरिका जब कोई हथियार किसी अन्य देश को बेचता है तो साथ में लिखित में यह घोषणा भी देता है कि – ‘यदि इस हथियार में कोई ट्रोजन या किल स्विच है तो हमारी कोई गारंटी नहीं है.’ उदाहरण के लिए, सीरिया के पास रूस से खरीदा हुआ एक बेहद एडवांस रडार था लेकिन 2007 में जब 7 इस्राएली विमान परमाणु रिएक्टर पर हमला करने के लिए सीरिया में घुसे तो इस रडार ने काम करना बंद कर दिया, और जब इस्राएली विमान रिएक्टर को तबाह करके चले गए तो यह फिर से काम करने लगा. बाद में कई एजेंसियों ने रडार के माइक्रो प्रोसेसर में ट्रोजन होने की सम्भावना बतायी. हथियार निर्माता कम्पनियों ने भी स्वीकार किया कि सेमी कंडक्टर चिप्स एवं माइक्रोप्रोसेसर में यदि ट्रोजन रख दिया गया है तो इसे पकड़ा नहीं जा सकता और इससे रडार को जाम किया जा सकता है. यह माना जाता है कि इस्राएल ने बड़ी मात्रा में पैसा देकर रडार बनाने वाली कम्पनी से इसका किल कोड खरीद लिया था और जब उनके प्लेन सीरिया में घुसे तो उन्होंने कोड की सहायता से रडार को जाम कर दिया. यह पूरा ओपरेशन ‘आउट साइड द बॉक्स’ नाम से जाना जाता है.
- स्पेयर पार्ट्स – आयातित हथियार जब खराब हो जाते हैं तो इन्हें रिपेयर के लिए उस कम्पनी पर निर्भर रहना होता है, जिन्होंने ये हथियार बनाए हैं. एक बार हथियार खरीदने के बाद जब तक उस हथियार का इस्तेमाल होगा तब तक हथियार को काम में लेते रहने के लिए इसके निर्माता पर निर्भर रहना होता है. ज्यादातर हथियारों के महत्त्वपूर्ण स्पेयर पार्ट्स थोड़े-थोड़े समय में खराब हो जाते हैं और इन्हें बदलते रहना पड़ता है. उदाहरण के लिए भारत की अकुला क्लास सबमरीन पिछले 1 वर्ष से बंदरगाह पर खड़ी है क्योंकि गश्त के दौरान एक हलकी-सी टक्कर के कारण उसका फ्रंट रडार क्षतिग्रस्त हो गया था. यह पनडुब्बी रूस ने बनायी है, अत: रूस के इंजिनियर ही इसे आकर ठीक करेंगे. और यदि इसमें किसी स्पेयर पार्ट्स की जरूरत पड़ती है तो वह भी रूस ही देगा. यदि रूस स्पेयर पार्ट्स नहीं भेजता है तो यह पनडुब्बी खड़ी रहेगी. उल्लेखनीय है कि चीन जब 1948 में आजाद हुआ था उनकी स्थिति भी भारत के समान ही थी. उनकी भी सारी फेक्ट्रियां आयातित मशीनों पर चल रही थी लेकिन चेयरमेन माओ ने चीन की सभी फेक्ट्रीयों की आयातित मशीनों को या तो तुडवा दिया या उन्हें आग के हवाले कर दिया. माओ जानते थे कि जब तक हम अपनी मशीनें खुद नहीं बनायेंगे तब तक आत्मनिर्भर नहीं हो सकते. अगले कुछ वर्षो के लिए चीन की इकोनोमी एकदम ठप हो गयी लेकिन कोई विकल्प न होने के कारण जल्दी ही चीनियों ने अपने देश में मशीने बनाने में सफलता प्राप्त कर ली. बाद में इसी तरह उन्होंने खुद के हथियार बनाने भी शुरू किये. और जब माओ ने देखा कि भारत आयातित हथियारों पर निर्भर है, तो उसने 1962 में हम पर हमला कर दिया. (तथ्यात्मक तौर पर माओ द्वारा भारत पर हमले की बात गलत है. असल में भारत ने अमेरिकी दवाब में चीन पर हमला किया था – सं.)
- विदेशी मुद्रा की हानि – पहली बात तो यह है कि आधुनिक हथियार बेहद ज्यादा मुनाफे पर बेचे जाते हैं. यदि कोई देश अपने खुद हथियार बनाएगा तो उसे सिर्फ कच्चा माल और श्रम ही लगाना होता है लेकिन जब इसे आयात किया जाता है तो इसके लिए 5 गुना ज्यादा दाम देने होते हैं. अब हथियार किसी सब्जी मंडी में तो नहीं मिलते हैं कि हम एक नहीं तो दुसरे से मोल भाव कर ले. हथियार बनाने वाले देश कुल 4-5 ही है, अत: ये सभी देश ऊंंचे दामो में हथियार बेचते हैं. मान लीजिये कि यदि हम खुद एक लड़ाकू विमान बनाते हैं तो इसकी लागत 100 करोड़ रूपये पड़ेगी और इसके लिए हमें कोई डॉलर खर्च नहीं करना पड़ेगा. किन्तु यदि हम इसे आयात करते हैं तो हमें इसके लिए 4 गुना ज्यादा पैसा देना पड़ेगा और समस्या यह है कि हमें यह रााशि डॉलर में चुकानी पड़ेगी. यदि डॉलर नहीं है तो हमें डॉलर का कर्ज लेना पड़ेगा. इस तरह हथियारों का आयात करने वाले अधिकतर देश हमेशा कर्ज में डूबे रहते हैं.
- हथियार खरीदने में वर्षो लग जाते हैं – भारत ने 1999 में एडमिरल गोर्शकोव नामक एयर क्राफ्ट कैरियर खरीदने का तय किया था. 2004 तक आते-आते इसकी कीमत तय हो पायी और इसकी पेमेंट शुरू हुयी. इसके बाद भी इसे भारत लाने में हमें 10 साल और लगे. 2014 में जाकर हम इसे समन्दर में उतार पाए. भारत ने 1995 में लड़ाकू जहाज तेजस के लिए अमेरिकी कम्पनी जी ई से इंजन खरीदना तय किया था, और हमें इंजन 2004 में मिलना शुरु हुए. रफाल का उदाहरण देखिये – भारत ने जनवरी 2012 में डसाल्ट कम्पनी से रफाल खरीदना फायनल कर दिया था. आज जनवरी 2019 यानी 7 साल बाद भी रफाल अभी सिर्फ टीवी एवं अखबारों में ही उड़ रहे हैं. ये भारत की एयरफोर्स में कब शामिल होंगे कोई ठिकाना नहीं है. अभी तो बोफोर्स की तरह रफाल पर भी अखबारों के टनों कागज रंगे जाने हैं. हथियार खरीदने के लिए ज्यादातर इतना ही समय लगता है. दर्जनों प्रकार के एग्रीमेंट किये जाते हैं, मोल भाव होता है और सालों निकलने के बाद जाकर हथियार मिलते हैं और जब युद्ध छिड जाता है तो हमें अर्जेंट हथियार चाहिए होते है, तो दस गुना दाम देने से भी पर्याप्त हथियार नहीं मिल पाते.
कुल मिलाकर विदेशियों के हथियारों पर सेना चलाने से बुरा दुस्वप्न कोई नहीं है और आयातित हथियारों पर चलने वाली सेना हमेशा पंगु एवं परजीवी बनी रहती है.
भारत एवं चीन की सैन्य शक्ति के बीच तुलना :
अर्जुन टैंक को मेड इन इण्डिया कहा जाता है, किन्तु इसके इंजन समेत ट्रांसमिशन, गन बेरल, ट्रेक्स और फायर कंट्रोल सिस्टम आदि को शामिल करते हुए 50% पुर्जे आयातित हैं और हमें इन्हें आयात इसीलिए करना पड़ा क्योंकि हम इन्हें बनाने में असफल रहे. इसका इंजन हमें जर्मनी ने दिया है, और हम उतने ही टेंक बना पाते हैं जितने हमें इंजन मिलते हैं. प्रथम विश्व युद्ध में टेंक लड़ाई का महत्त्वपूर्ण हथियार था किन्तु द्वितीय विश्व युद्ध आते आते एयर फ़ोर्स निर्णायक बन चुकी थी. अब टैंक एक B ग्रेड वेपन है.
आज कम्प्यूटर युग में लड़ाई का तरीका बिलकुल ही बदल गया है, और अब जंग का फैसला मानव रहित ड्रोन और एयर फ़ोर्स करते हैं. किन्तु फिर भी यहांं टेंक के बारे में विवरण इसीलिए दिया जा रहा है, ताकि यह बात स्पष्ट हो सके कि ‘हथियारों का निर्माण’ कैसे दुनिया का सबसे मुश्किल काम है, और पूरी कोशिश के बावजूद भारत की स्थिति हथियारों के निर्माण में इतनी बदतर क्यों है ? और तब हम यह जान पायेंगे कि किन कानूनों को लागू करके हम भारत में ‘पूर्णतया स्वदेशी आधुनिक हथियारों’ का निर्माण करने में सफल हो सकते हैं.
किसी अन्य लेख में मैं इस सम्बन्ध में विवरण रखूंंगा कि, क्या कारण रहे कि 400 करोड़ डॉलर एवं 40 साल खर्च करने के बावजूद हम एक इस्तेमाल लायक टेंक नहीं बना पाए हैं.
भारत की थल सेना में इसके अलावा 10 हजार आर्म्ड व्हीकल है जिसमें से 80% मेड इन रशिया है, और शेष 20% भी पूरी तरह से स्वदेशी निर्मित नहीं है, जबकि चीन के पास आर्म्ड व्हीकल की संख्या 15 हजार है, और इसमें से 70% से ज्यादा पूर्णतया मेड इन चाइना है.
बन्दूक निर्माण में भारत की स्थिति : बन्दुक निर्माण में भी भारत पिछड़ा हुआ है और हमारी सेना बेहतर बन्दूकों के लिए विदेशियों पर निर्भर है. 1947 से 1980 तक हम विदेशी बन्दूकों पर निर्भर रहे. राइफल पर विदेशियों की निर्भरता ख़त्म करने के लिए हमने स्वदेशी राइफल बनाने का प्रोजेक्ट 1980 में शुरू किया. 1998 में इंसास असाल्ट राइफल भारतीय फ़ौज में शामिल की गयी.
कारगिल युद्ध के दौरान इसमें मेग्जिन का जाम होना, मेग्जिन क्रेक होना, स्वत: ही ऑटोमेटिक मोड पर चले जाना, आयल लीकेज आदि समस्याएं सामने आयी, जिन्हें 2008 के इसके अगले वर्जन में दुरुस्त किया गया. किन्तु 2012 में भारतीय सेना ने फिर से इसमें इस तरह की खामियां रिपोर्ट की. RFI एवं DRDO इन्हें फिर से सुधारा गया. किन्तु 2015 में भारतीय सेना ने फिर से इसे लेकर असंतोष व्यक्त किया.
2015 में रक्षा विषय पर बनायी गयी संसद की स्टेंडिंग कमेटी ने रिपोर्ट किया कि – ‘यह बात समझ से बाहर है कि भारत के तमाम विशेषज्ञ मिल कर भी 53 वर्ष में एक विश्व स्तर की विश्वनीय असाल्ट राइफल नहीं बना पाए है.’ 2018 में भारतीय आर्मी ने इंसास रायफल को रिटायर करने का फैसला किया है, और सेना ने यह बात साफ़ कर दी है कि उनकी रुचि इंसास में बिलकुल नहीं है. सेना को अब लगभग 6 लाख राइफलों की जरूरत है और सेना विदेशी राइफलो के विकल्पों पर विचार कर रही है.
वायु सेना के हालात इससे भी बदतर है. वायु सेना की शुरुआत भी वायुयान से होती है, किन्तु हमने आज तक वायुयान का एक भी इंजन नहीं बनाया.
तेजस प्रोजेक्ट 1982 में प्रारंभ हुआ था एवं इसका इंजन बनाने के लिए कावेरी नामक प्रोजेक्ट शुरू किया गया. 2 दशक के बाद भी कावेरी प्रोजेक्ट विमान का इंजन बनाने में असफल रहा, अत: 2006 में अमेरिका की कम्पनी GE से इंजन आयात किये गए. तेजस में फ्रंट रडार, इंजन, मिसाइल्स एवं ऑपरेटिंग चिप्स समेत 40% पार्ट्स आयातित है. ऑपरेटिंग चिप्स को विमान का दिमाग कहा जाता है और ये विमान का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा होता है. किल स्विच इंजन एवं ऑपरेटिंग चिप्स में ही रखे जाते हैं.
हेलिकोप्टर में लगभग 350 ( mil mi -8 ) आयातित है. शेष में से कुछ के इंजन आयातित हैं, कुछ का संयुक्त निर्माण लाइसेंस वर्जन पर किया गया है. चीता, रूद्र, चेतक आदि फ्रांसिस हेलिकोप्टर का लाइसेंस वर्जन है, और ध्रुव का इंजन अमेरिकन है.
नौसेना की स्थिति :
एयरक्राफ्ट कैरियर एडमिरल गोर्शकोव : पानी पर तैरने वाले युद्ध पोतों में एयरक्राफ्ट कैरियर सबसे कीमती और महत्त्वपूर्ण जहाज है. 280 मीटर यानी लगभग तीन फुटबाल के मैदानों के बराबर यह पोत समन्दर में लड़ाकू विमानों के लिए एअरपोर्ट का काम करता है. इस कैरियर को रूस ने 1983 में लांच किया था, और 1996 में इसे रिटायर कर दिया गया. भारत ने 1998 में इसे खरीदने के प्रयास शुरू किये, और 2004 में 230 करोड़ डॉलर में हमने इसे ख़रीदा. रूस ने इसे रिपेयर करके हमें 2013 में सुपुर्द कर दिया.
गोर्शकोव को आई एन एस विक्रमादित्य नाम दिया गया और जून 2014 में हमने इसे नौसेना के बेड़े में शामिल किया. इस तरह हमारे पास एक कैरियर है और वह भी सेकेण्ड हेंड है, जबकि हमारे 3 तरफ बहुत फैला हुआ समुद्र है. बंगाल की खाड़ी, अरब सागर एवं हिन्द महासागर के लिए हमें कम से कम 3 कैरियर की जरूरत है.
जब पेड मीडिया चीन को डराने के लिए टीवी पर विक्रमादित्य पर सनसनीखेज प्रस्तुति देता है तो इस बात का जिक्र कभी नहीं करता कि रिटायर होने के बाद 10 वर्ष तक यह बंदरगाह पर खड़ा रहने से इसका पैंदा गल गया था. हम 120 करोड़ के देश की नौ सेना 30 साल पुराने एक सेकेण्ड हेंड करियर के भरोसे कैसे चलाते है ! अंदाजा लगाइये कि हमारे सैनिक बिना हथियारों और संसाधनों के किस तरह अपना हौंसला बनाए रखते होंगे !
किन्तु हमें सबसे बड़ा एवं असली खतरा चीन की पनडुब्बियों से है :
चीन ने पिछले 5 वर्षो में ही 80 युद्ध पोत अपनी नौ सेना में शामिल किये हैं. चीन का सैन्य बजट भारत से 3 गुना है और चीन बहुत तेजी से अपनी सेना का विस्तार कर रहा है.
10 जनवरी 2019 को भारतीय नौ सेना अध्यक्ष एडमिरल सुनील लाम्बा ने इस पर चिंता जताते हुए कहा कि :
पिछले 200 सालों में किसी भी देश ने अपनी नौ सेना की ताक़त इतनी तेज़ गति से नही बढ़ायी है जिस गति से चीन बढ़ा रहा है.
नौसेना में सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका सबमरीन यानी पनडुब्बी की होती है. और सबमरीन में भी SSBN एवं SSN निर्णायक हथियार है.
डीजल पनडुब्बी : परमाणु इंधन वाली पनडुब्बियों के आने के बाद अब डीजल सबमरीन का कोई ख़ास महत्त्व नहीं रह गया है. वजह – सबमरीन छुप कर हमला करने के लिए बनायी जाती है. जब तक यह छिपी हुयी रहती है तब तक यह काम की है, जैसे ही यह पानी से बाहर आएगी दुश्मन के रडार इसे ट्रेक कर लेंगे और एक बार ट्रेक होने के बाद दुश्मन के रडार इसे निरंतर ट्रेक करते रहते हैं.
इसीलिए सबमरीन की उपयोगिता इस बात में है कि वह पानी से बाहर आये बिना कितने समय तक भीतर रह सकती है. डीजल इंजन को आक्सीजन की जरूरत होती है. अत: डीजल सबमरीन को हर 1-2 दिन में सतह पर आना पड़ता है. सतह पर आने के बाद इंजन चलाए जाते हैं, जिससे सबमरीन की बेटरियांं चार्ज हो जाती है. बेटरीयां चार्ज होने के बाद सबमरीन फिर से पानी में गोता लगा देती है और बेटरियांं डिस्चार्ज होने पर फिर से सतह पर आकर इन्हें चार्ज करती है. इस तरह इन्हें बार बार पानी में बाहर आना होता है.
इसके आलावा सबमरीन में लगभग 15 दिन का इंधन होता है और उसे डीजल लेने के लिए हर 15 दिन में बंदरगाह पर भी आना पड़ता है. इस वजह से न तो वह लम्बे समय तक पानी के भीतर रह पाती है, न ही समन्दर में दूर तक जा पाती है और न ही लम्बे समय तक दुश्मन की नजर से ओझल रह पाती है. इसीलिए अब इनका उपयोग सिर्फ मामूली तौर की गश्त वगेरह के लिए किया जाता है. इनसे लम्बी दूरी की मिसाइलें भी नहीं दागी जा सकती और न ही परमाणु मिसाइल दागी जा सकती है.
भारत के पास 14 जबकि चीन के पास 57 डीजल सबमरीन है.
SSN सबमरीन : SSN सबमरीन में डीजल की जगह परमाणु इंधन का प्रयोग होता है. परमाणु रिएक्टर होने के कारण यह सबमरीन सतह पर आये बिना महीनों तक खामोशी से पानी के भीतर रह सकती है. लम्बी दूरी तक मार करने वाली मिसाइलें दागने की क्षमता होने के कारण यह बहुत ही मारक सबमरीन है.
भारत के पास 1 SSN सबमरीन है. यह मेड इन रशिया है और हमने इसे 2012 में 10 साल की लीज पर लिया है. अकुला नामक इस सबमरीन को आई एन एस चक्र नाम दिया गया है. इसे 100 करोड़ डॉलर में लीज पर लिया गया था. 2022 में इसकी लीज ख़त्म हो जाएगी. 2022 में इस लीज को रिप्लेस करने के लिए भारत की रूस से एक अन्य सबमरीन के लिए वार्ता चल रही है, उसके लिए हमें 200 करोड़ डॉलर चुकाने होंगे.
भारत की 1 SSN सबमरीन के मुकाबले में चीन के पास 14 SSN सबमरीन है.
SSBN सबमरीन : यह नौ सेना का सबसे उन्नत एवं घातक हथियार है. इसमें इंधन के लिए परमाणु रिएक्टर भी होता है और इसमें परमाणु अस्त्र से लैस मिसाइलें भी होती है. एक बार समन्दर में जाने के बाद यह जमीन से सारे सम्पर्क तोड़ देती है, और चुपचाप समन्दर में छिपी रहती है। भारत के पास इस प्रकार की एक सबमरीन है – अरिहंत. हमारे सबमरीन प्रोजेक्ट्स में तकनीकी सहयोग रूस दे रहा है.
भारत की 1 SSBN सबमरीन के मुकाबले में चीन के पास 7 SSBN सबमरीन है.
समस्या यह है कि सबमरीन में सबसे ज्यादा गुप्त तकनीक का प्रयोग होता है, और इसके प्रोपेलर के चित्रों तक का प्रकाशन नहीं किया जाता, पैसे के बदले में किसी देश से यह खरीदना तो दूर की बात है !
मोतियों की माला ( String of Pearls ) : चीन ने भारत को चारों तरफ से घेरने के लिए सभी तरफ अपने नेवल बेस बना लिए है. मालदीव, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलेंड और पाकिस्तान में नेवल बेस होने के कारण भारत अब चीन की सीधी पहुंंच में है. मतलब अब चीन भारत पर हमला कर सकता है, किन्तु चीन के नजदीक भारत का कोई बेस नहीं होने के कारण भारत चीन पर बड़े पैमाने पर हमला नहीं कर सकता. भारत के उत्तर में पाकिस्तान की तरफ से सड़क मार्ग बनाकर एवं दक्षिण में नेवल बेस बनाकर भारत को घेर लेने की चीन की इस योजना को ‘मोतियों की माला’ कहते हैं.
चीन भारत को चारों तरफ से घेर चुका है. यदि युद्ध होता है तो चीन तो हमारे सिर पर है, किन्तु भारत के पास चीन तक पहुंंचने का एक्सेस नहीं है. और भारत के नार्थ में देखें तो चीन पाकिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर में हाई वे कोरिडोर बना चुका है. इस तरह चीन समंदर के साथ-साथ जमीन के तरफ से भी भारत को घेर चुका है. चीन वास्तविक रूप से युद्ध की तैयारी कर रहा है तो आप समझ सकते है कि हम चीन के सामने किस दशा में हैं.
तो यदि चीन हम हमला करता है तो हमें 4 फ्रंट वॉर का सामना करना पड़ेगा.
चीन 4 फ्रंट वॉर की मेटेरियल तैयारी कर चुका है. वह पाकिस्तानी आतंकियों एवं उनकी सेना को हथियार एवं डॉलर देकर पहला फ्रंट खोलेगा. दुसरे वह बांग्लादेश, अरुणाचल प्रदेश की तरफ से हमला करेगा, तीसरा और सबसे घातक वह नक्सलवादियों और भारत में निवास कर रहे बंगलादेशी घुसपेठियों को हथियार देकर उन्हें आंतरिक हमला करने को कहेगा, और खुद समन्दर की तीनों दिशाओं से हमला करेगा !
अब आप खुद अंदाजा लगा लीजिये कि इस 4 फ्रंट वार के सामने टिकने के लिए हमारे पास कितने हथियार और कितनी सेना है, और यदि एक बार हमारी सेना हार जाती है तो नागरिकों के पास तो नेल कटर भी नहीं है ! यहांं तक कि हमारी सेना भी राइफल की कमी से जूझ रही है. इंसास को आर्मी 2018 में रिटायर कर चुकी है और सेना को 6 लाख असाल्ट राइफलों की तत्काल जरूरत है. कितने सालों में ये राइफ़ले हमें मिलेगी, वो भी कहीं नजर न आ रहा !
(B) यदि चीन हम पर हमला करता है और अमेरिका हमें हथियार देता है तो युद्ध का परिणाम क्या होगा ?
असल में जिस तरह चीन भारत को घेर रहा है, उसी तरह से अमेरिका भी भारत का तेजी से अधिग्रहण कर रहा है, ताकि चीन के साथ युद्ध में भारत की जमीन, सेना, संसाधनों आदि का इस्तेमाल किया जा सके. यह अमेरिका एवं चीन के बीच युद्ध है, जो भारत की जमीन पर लड़ा जायेगा. अमेरिका ने यह तैयारी 10 साल पहले से शुरू कर दी है किन्तु हम इसे देख इसीलिए नहीं पाते क्योंकि भारत का मीडिया पूरी तरह से अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के कब्जे में है.
आप यदि गौर करेंगे तो देख सकते है कि अमेरिकी कम्पनियां भारत के उन सभी क्षेत्रों का बहुत तेजी से अधिग्रहण कर रही है, जिनकी भूमिका युद्ध में है. यदि अमेरिका चीन के साथ युद्ध में खुद की सेना का इस्तेमाल करता है, तो उनके काफी सैनिक मारे जायेंगे और अमेरिका की जनता, युद्ध के खिलाफ हो जायेगी क्योंकि यह लड़ाई विएतनाम की लड़ाई की तरह लम्बी खिंचने वाली है. कृपया कोमकासा एग्रीमेंट पर गूगल करें. इस एग्रीमेंट के बाद भारत की सेना को अमेरिकी सेना संचालित कर सकेगी. जल्दी ही भारत में अमेरिकी हथियार बनाने वाली कम्पनियां आएगी और भारत में बड़े पैमाने पर हथियारों का उत्पादन करेगी. और जल्दी ही अमेरिकी सेनाओं के भारत में उतरने का रास्ता भी साफ़ हो जायेगा.
तो जब अमेरिकी हथियारों के साथ हम चीन से युद्ध लड़ेंगे तो भारत का पलड़ा भारी हो जायेगा. तब चीन को हम हरा सकते हैं किन्तु इस युद्ध में कितने भारतीय मारे जायेंगे और पुनर्निर्माण में हमें कितने दशक लगेंगे, यह केवल अंदाज लगाने की बात है. अमेरिका को चीन से युद्ध लड़ना इसीलिए भी जरुरी है कि यदि चीन को रोका नहीं गया तो पूरा का पूरा एशिया एवं यूरोप का बाजार अमेरिका के हाथ से निकल जाएगा.
अब हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा यह है कि एक बार यदि अमेरिकी सेनाएं भारत में आ गयी तो वे भारत से कभी वापिस नहीं जायेगी !! क्योंकि फिर से किसी हिटलर के पनपने की संभावनाएंं लगभग नगण्य है !
अब आगे इन घटनाओं के सैंकड़ो पहलू हो सकते हैं, और इनका आकलन करना किसी के लिए भी संभव नहीं है किन्तु कुछ चीजें है जो हम साफ़ तौर पर देख सकते हैं. युद्ध कब होगा या होगा या नहीं होगा, इसका फैसला करने की स्थिति में हम नहीं है. चीन ने यदि हम पर युद्ध करना है तो भी हम मुकाबला नहीं कर सकते और यदि अमेरिका चीन को ख़त्म करने के लिए हमें युद्ध में झोंकना चाहता है तो भी हमारे हाथ में कुछ नहीं है ! और यदि हम युद्ध टालते रहेंगे तो धीरे धीरे अमेरिका भारत को आर्थिक एवं सैन्य रूप से पूरी तरह से टेक ओवर कर लेगा.
एक मीठी खुश फहमी हम यह रख सकते है कि अब कभी भी युद्ध नहीं होगा ! तो भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो शेष भारतीयों को यह विश्वास दिलाने में बड़ी मेहनत करते हैंं कि अब भारत को कभी युद्ध में नहीं जाना पड़ेगा !
और मैं उनसे हमेशा यह पूछता हूँ कि हे नास्त्रेदमस के मानस पुत्रो जब 1962 में चीन ने और 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तब आप महानुभाव कहांं गायब हो गए थे ? जब 1999 में कारगिल हुआ तब भी शायद इन्हें पहले से मालूम था कि पाकिस्तान चोटियों पर कब्ज़ा कर रहा है ! पर ये लोग कभी भी पहले से बताते नहीं हैं कि हमला होने वाला है !
और इसीलिए ये इस बात पर चर्चा करना समय की बर्बादी समझते हैं कि भारत की सेना की क्या दशा है, और इसे मजबूत बनाने के लिए हमें किन कानूनों को गेजेट में लाना चाहिए ? इनके मुंंह से हमेशा एक ही डायलोग निकलता है – भारत की सेना पर्याप्त रूप से मजबूत है ! और ये ऐसा क्यों मानते है ? क्योंकि पेड मीडिया एवं पेड रक्षा विशेषज्ञ इन्हें इसी तरह की फीडिंग देते हैंं ! वे इस बात की जान बूझकर अवहेलना करते हैं कि यदि युद्ध की सम्भावना को खारिज करके हम अपना सब कुछ दांव पर लगा रहे हैं.
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