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चीन से झड़प पर मोदी सरकार और भारतीय मीडिया का चेहरा

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चीन से झड़प पर मोदी सरकार और भारतीय मीडिया का चेहरा

गिरीश मालवीय, पत्रकार

भारतीय सेना का ऑफिशियल बयान आ गया है. यह 62 के बाद से भारत चीन के बीच सबसे बड़ी झड़प है.

भारत चीन सीमा एलएसी पर तनाव बढ़ता ही जा रहा है. हमारे 20 जवान वहांं शहादत दे चुके हैं. हालांकि हम यह बात शुरू से कह रहे थे कि पेंगोंग लेक इलाके पर तुरन्त विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत है लेकिन मोदी सरकार ‘सब ठीक है’, ‘स्थिति नियंत्रण में है’ जैसे शब्दों को लगातार दोहराती रही.

1962 में हुए भारत-चीन युद्ध से लेकर 2013 तक भारत-चीन सीमा पर सिर्फ दो ही बड़ी घटनाएं घटीं थी. एक 1967 में नाथुला में और एक 1986 में समदोरांग में. उसके बाद लगभग सब शांत ही रहा है.

सीमा पर शांति रहे इसमें सबसे बड़ी भूमिका कूटनीति की होती है, जिसमें भारत की मोदी सरकार की असफलता साफ-साफ नजर आ रही हैं.

आपको शायद याद नही होगा लेकिन 2013 में लद्दाख के चुमार में भारत चीन की फौज आमने-सामने आ गयी थी लेकिन तब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, जो कूटनीतिक स्तर पर बातचीत करने में वर्तमान सरकार से लाख बेहतर थे. तब सिर्फ सही तरीके से बातचीत करने पर ही चीनी फौज लद्दाख में भारतीय जमीन से पीछे हट गई. बगैर कोई सख्ती दिखाए मनमोहन सिंह ने चीन को पीछे हटने पर राजी कर लिया था.

2017 में डोकलाम वाली घटना हुई. डोकलाम वाली घटना के दौरान ही पैंगॉन्ग लेक में दोनों सेनाओं के बीच हुई झड़प के दौरान स्थति पथराव तक की बनी थी लेकिन तब सुषमा स्वराज विदेश मंत्री थी और मामला भी भूटान सीमा का था इसलिए उस संकट का शांतिपूर्ण समाधान निकल गया.

पीएम मोदी के किसी बड़े देश से सबसे अच्छे रिश्ते रहे हैं तो वह देश चीन ही है. पीएम मोदी ने किसी भी अन्य भारतीय राजनेता की तुलना में सबसे ज्यादा चीन की यात्रा की है. मोदी नौ बार चीन का दौरा कर चुके हैं (चार बार गुजरात के सीएम के रूप में, पांच बार पीएम के रूप में), और राष्ट्रपति शी जिनपिंग से पिछले छह वर्षों में कई बार मुलाकात कर चुके हैं.

गुजरात के सीएम के रूप में, मोदी को नवंबर 2011 में चीन की यात्रा के लिए सीपीसी के अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था, जब उन्हें ‘अभूतपूर्व महत्व और उच्चतम स्तर का प्रोटोकॉल’ दिया गया था, जिसे ‘स्थापित मानदंडों से परे’ के रूप में देखा गया था. उनके साथ एक उच्च-स्तरीय व्यापार और आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल था और इस यात्रा को ‘भव्य सफलता’ कहा गया था. आज के विदेश मंत्री जयशंकर तब चीन में भारत के राजदूत थे और बीजिंग को अच्छी तरह से जानते थे.

2014 में जब मोदी पीएम बने, तो बहुत उम्मीदें थीं कि वह भारत-चीन रिश्ते को एक नया मोड़ देंगे और यहां तक ​​कि एलएसी के मुद्दे को हमेशा के लिए शांत कर देंगे. जब 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव थे तब चीन के सरकारी अखबार ने चीन सरकार की मनोकामना प्रकाशित की थी कि वो चाहते हैं कि गुजरात में मोदी की जीत हो ताकि चीन की कंपनियों को फायदा मिले. यानी साफ है कि चीन मोदी के पूरी तरह से समर्थन में था. विदेश मन्त्री जयशंकर प्रसाद भी चीन में लंबे समय तक राजदूत रहे हैं.

यानी यह एक परफेक्ट कॉम्बिनेशन है जो भारत चीन के बीच उपजी इस तनावपूर्ण स्थिति का शांतिपूर्ण समाधान निकाल सकता है लेकिन अभी तक यह फेल साबित हुआ है. हमें आज भी इस समस्या के कूटनीतिक समाधान पर ही जोर देना चाहिए क्योंकि युद्ध समस्या का समाधान नहीं है. युद्ध खुद बहुत बड़ी समस्या है.

वहीं, कल से भारत चीन तनाव पर न्यूज़ चैनलों की रिपोर्टिग देखकर आश्चर्यचकित हूंं. बेहद अनुभवी एंकर दिबांग अभी एबीपी न्यूज पर थे और उन्होंने कहा कि हम भारत सरकार के ऑफीशियल आंकड़ों का इंतजार भी नही कर रहे हैं और लगातार चीन द्वारा नेट पर डाले गए विजुअल चला रहे हैं. यह बिल्कुल गलत बात है. इस तरह से भारत का मीडिया चीन के ट्रैप में फंस रहा है. न्यूज़ चैनलों को इस प्रवृत्ति से बचना चाहिए.

अभी कुछ देर पहले रिपब्लिक चैनल जो युद्धोन्माद फैलाने में सबसे आगे नजर आ रहा है, कह रहा है कि मोदी सरकार ने सेना को ‘खुली छूट’ दे दी है. कुछ और नासमझ न्यूज़ चैनल भी ‘खुली छूट’ की बातें कर रहे है !

दरअसल न्यूज़ चैनलों का बस एक ही काम रह गया है किसी तरह से भी मोदी सरकार को ज्वलंत प्रश्नों की आग से बचाकर रखना, उसे सेफ जोन देना. भले ही उसके बदले में भारतीय सेना की साख ही खतरे में क्यों न पड़ जाए !

मोदी सरकार को इंटेक्ट रखने के चक्कर मे आज तक जैसा चैनल खुलेआम भारतीय सेना पर सवाल उठा रहा है. आज तक पर श्वेता सिंह कहती है कि पेट्रोलिंग सेना की जिम्मेदारी है न कि भारत सरकार की. यह क्या सिखा पढा रहे हैं जनता को ?

कल से जैसा माहौल न्यूज़ चैनल बना रहे है वैसा टीवी पत्रकारिता के इतिहास में कभी नहीं देखा गया. अभी हो यह रहा है कि तत्कालीन सरकार से तीखे सवाल न पूछे जाए, इसके लिए भारतीय सेना की इच्छाशक्ति को ही कठघरे में खड़ा कर दिया गया है. यह बेहद हैरान करने वाली बात है.

यह ‘खुली छूट’ का क्या मतलब है ? क्या सेना कोई ऐसी संप्रुभ इकाई है जो अपनी मर्जी से युद्ध कर लेगी ? यह मीडिया द्वारा कैसा मूर्खतापूर्ण नैरेटिव सेट किया जा रहा है ?

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