Home गेस्ट ब्लॉग बिहार विधानसभा चुनाव : जंगल राज की परिभाषा को संकीर्ण नहीं बनाया जा सकता

बिहार विधानसभा चुनाव : जंगल राज की परिभाषा को संकीर्ण नहीं बनाया जा सकता

11 second read
0
0
976

बिहार विधानसभा चुनाव : जंगल राज की परिभाषा को संकीर्ण नहीं बनाया जा सकता

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

लगातार 15 वर्षों तक राज करने के बाद भी अगर नीतीश कुमार को अगले विधान सभा चुनावों में नई पीढ़ी के वोटरों को 15 वर्षों के ‘पति-पत्नी के राज’ की ‘अराजकताओं’ की जानकारी दे कर ही वोट पाना है तो मानना होगा कि उनका आत्मविश्वास गिरा हुआ है और उन्हें अपने किये पर बहुत अधिक भरोसा नहीं है.

अतीत में वे अक्सर कहते रहे हैं कि मतदाताओं के सामने वे अपने कामों का रिपोर्ट कार्ड लेकर जाएंगे लेकिन, प्रायः हर चुनाव में वे लालू गान को ही प्रमुखता देते नजर आए, सिवाय 2015 के विधान सभा चुनाव में, जब लालू के वोट बैंक की पूंजी पर अपने ‘सुशासन’ की छवि का लेप चढ़ा कर वे ‘नीतीशे कुमार’ के लिये प्रबल जनसमर्थन पाने में कामयाब रहे. 15 वर्ष कम नहीं होते और स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसे मुख्यमंत्री कम ही होंगे, जिन्होंने लगातार इतने वर्षों तक राज किया हो. उनका मूल्यांकन उनके कामों पर होना चाहिये.

निस्संदेह, नीतीश कुमार के खाते में कई उपलब्धियां दर्ज हैं और इसका लाभ उन्हें मिलता भी रहा है. मसलन, सड़कों, पुल-पुलियों के निर्माण और बिजली के क्षेत्र में उनके कामों की तारीफ होती रही है. होनी भी चाहिये. 2005 में शुरू हुए उनके पहले कार्यकाल में बिहार की कानून-व्यवस्था में भी उल्लेखनीय सुधार देखा गया था, जब संगठित अपराध तंत्र पर शासन बहुत हद तक अंकुश लगाने में कामयाब रहा था. उनके शुरुआती वर्ष स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी अच्छे प्रयासों के लिये याद किये जाते हैं.

लेकिन, नौकरशाही पर नीतीश कुमार की अत्यधिक निर्भरता ने उनके शासन के अंतर्विरोधों को जल्दी ही सामने लाना शुरू किया. नीतीश राजनेता के रूप में सफल कहे जा सकते हैं लेकिन वे सफल जन नेता कभी नहीं बन पाए. उनके आंख और कान राजनीतिक कार्यकर्त्ता कम, नौकरशाह अधिक बने. नौकरशाही पर उनकी अत्यधिक निर्भरता का सबसे बड़ा शिकार बिहार का शिक्षा तंत्र बना जो नीतीश राज में लगभग ध्वस्त होने के कगार पर पहुंच गया. जल्दी ही स्वास्थ्य तंत्र पर भी अफसरशाही की नकारात्मकताओं का असर दिखने लगा.

जब किसी नेता के राज में नौकरशाही अत्यधिक ताकतवर हो जाती है तो भ्रष्टाचार विरोध का उसका नारा खोखला साबित होना तय है. आप निगरानी विभाग की छापामारी में किसी अस्पताल के कंपाउंडर को, किसी ब्लॉक के अदने से कर्मचारी-अधिकारी को रिश्वत लेते गिरफ्तार करवा कर, उसका प्रचार-प्रसार करवा कर वाहवाही तो बटोर सकते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार से सीधी लड़ाई नहीं लड़ सकते. इसके लिये जिस स्तर के जीवट की जरूरत होती है, नीतीश के प्रशासन-तंत्र में उसका अभाव दिखा.

पटना में जमीन और फ्लैट की कीमत कोलकाता और दिल्ली से भी अधिक यूं ही नहीं बढ़ती गई. इक्के-दुक्के किसी चिह्नित बड़े भ्रष्ट अफसर के मकान को जब्त करवा कर मीडिया में जोर-शोर से उसका प्रचार करवाना अलग बात है, ऊंचे स्तर के भ्रष्टाचार के मर्म पर चोट करना अलग बात है.

आजकल यूपी की किसी महिला के बारे में ऐसी खबरें देश भर में चर्चा बटोर रही हैं कि वह एक साथ 25 स्कूलों में पढ़ाने के लिये नियुक्त थी, और कि उसने सभी जगहों से वेतन के रूप में करोड़ों रुपये बीते वर्षों में ले लिए. जाहिर है, शिक्षा विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की मिलीभगत के बिना ऐसा हो ही नहीं सकता. यूपी में फर्जी शिक्षकों का मामला नया नहीं है. जैसी खबरें आती रही हैं, वहां अगर सही तरीके से जांच हो तो हैरत अंगेज सच्चाइयां बाहर आ सकती हैं.

लेकिन, आबादी और आकार में छोटा भाई होने के बावजूद फर्जी शिक्षकों के मामले में बिहार यूपी को भी पीछे छोड़ने की स्थिति में है. अंतर यही है कि वहां शासन फर्जी लोगों के पीछे पड़ा हुआ है जबकि बिहार में लीपापोती के अलावा इस मामले में अधिक कुछ भी नहीं होता. वह भी तब, जब हाईकोर्ट बार-बार डंडा फटकारता है.

हजारों फर्जी शिक्षकों का फैला जाल, सरकारी नियुक्ति संबंधी तमाम परीक्षाओं में गड़बड़झाला के आरोप, हो चुकी परीक्षाओं का अक्सर रद्द हो जाना, प्रश्न-पत्र आउट हो जाने के बार-बार के आरोप बिहार के बेरोजगार युवाओं के लिये किसी दुःस्वप्न के समान रहे हैं. नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया इतनी लंबी चलती है, इतने बरस दर बरस गुजरते जाते हैं कि इन्हें गिनीज बुक में दर्ज होने की पात्रता हासिल होने लगती है. यह सुशासन तो नहीं ही है. यह नाकारा तंत्र के हाथों बेरोजगारों के जीवन और सपनों के साथ क्रूर खिलवाड़ है.

यूपी की अनामिका शुक्ला की तरह के न जाने कितने प्रकरण बिहार में होने की खबरें हम बीते वर्षों से अखबारों में पढते रहे हैं. एक टीईटी सर्टिफिकेट पर दर्जन-दर्जन भर लोगों के शिक्षक की नौकरी करने वाली खबरें बिहार के लिये नई नहीं हैं लेकिन, हमने कभी इस फर्जी जाल पर शासन की संगठित और सख्त कार्रवाई की खबरें नहीं देखीं. कुछेक मामलों में कार्रवाइयां हुईं, लेकिन वे उदाहरण नहीं बन सकी कि फर्जीवाड़ा करने वाले आतंकित हो सकें.

गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिये फर्जीवाड़ा कर हजारों गलत लोगों को नियुक्त करना और उन्हें लागातार संरक्षण मिलते रहना, नीतीश राज का यह एक प्रकरण लालू राज की हजार अराजकताओं पर भारी पड़ता है. अगर मध्यवर्गीय लोग और अभिजात वर्ग इस प्रकरण से आंखें मूंदे रहे तो इसलिये कि उनके बच्चे इन फर्जी शिक्षकों के भरोसे नहीं, किसी महंगे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं.

अराजकता सिर्फ यह नहीं होती कि किसी गांव या शहर के किसी चौक पर किसी गुंडे की गुंडागर्दी चलती है और राजनीतिक संरक्षण के कारण पुलिस उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाती. लालू राज में ऐसी अराजकताओं के आरोप लगते रहे थे. दरअसल, ऐसी गुण्डागर्दियों से मध्यम तबके के संभ्रांत लोग भी प्रभावित होते थे तो ऐसी अराजकाताएं राज्य और देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां भी बनती रहीं लेकिन, गरीबों के बच्चों को पढ़ाने वाले सरकारी स्कूलों में व्याप्त अराजकताओं का असर सिर्फ गरीबों पर ही पड़ता है, भले ही उनकी संख्या बहुत अधिक हो, तो ऐसी अराजकाताएं मीडिया की सुर्खियां नहीं बनतीं.

अगर किसी चौक पर बेरोकटोक गुंडागर्दी को जंगल राज कह सकते हैं तो हजारों स्कूलों में फर्जी मास्टरों की बेरोकटोक आवाजाही और उनका नियमित वेतन उठाते जाना, वास्तविक हकदारों का रोड पर बेरोजगार भटकना भी किसी जंगल राज को ही परिभाषित करता है.

जब भी स्वास्थ्य संबंधी कोई बड़ा संकट आया, बिहार के बड़े सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा उजागर हुई. मुजफ्फरपुर में पिछले साल सैकड़ों बच्चों की अकाल मौत और इसके जिम्मेवार लचर स्वास्थ्य तंत्र की खबरें तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई थी. जंगल राज की परिभाषा को संकीर्ण नहीं बनाया जा सकता. आधुनिक सभ्य लोकतंत्र में इसे व्यापक तौर पर परिभाषित किये जाने की जरूरत है. फर्क सिर्फ इतना है कि मीडिया की प्राथमिकताएं क्या हैं.

राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, कौन कह सकता है, लेकिन, बिहार की राजनीति जिस तरह से फिलहाल बिखरी-बिखरी सी है, विपक्ष में व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं का जिस तरह अनर्गल टकराव नजर आ रहा है, सम्भव है नीतीश कुमार फिर से बिहार की सत्ता पर काबिज हो जाएं.

हालांकि, 2015 के बाद फिर से भाजपा के साथ में उनका वह तेज और संस्कार नजर नहीं आ रहा जिसके लिये अतीत में वे प्रशंसा पाते रहे थे. बहरहाल, यह किसी राजनेता के व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि वह इतिहास में किस तरह याद किये जाने को तैयार है. कभी नरेंद्र मोदी के एक विकल्प के रूप में चिह्नित किये जाने वाले नीतीश कुमार आज राजनीतिक रूप से किस आधार भूमि पर खड़े हैं, यह उन्हें अधिक पता होगा.

Read Also –

रोज़गार के प्रश्न को भारत के बेरोज़गार युवाओं ने ही ख़त्म कर दिया
आगे क्या करने का विचार है, विद्रोह या ग़ुलामी ?
कोरोना महामारी के नाम पर लाखों करोड़ रुपये की वसूली कर रही है मोदी सरकार
लंबी लेख पढ़ने की आदत डाल लीजिए वरना दिक्कतें लंबे लेख में बदल जायेगी 

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…