वैज्ञानिक रिसर्च कर रहे हैं. हर बार का निष्कर्ष पहले से अधिक भयानक और विध्वंसकारी हैं. लेकिन फिर भी जलवायु परिवर्तन को रोकने की दिशा में काम न के बराबर है. अगर ऐसा ही रहा तो मनुष्य क्यों लाचार होता जाएगा, इसी का विश्लेषण है जलवायु परिवर्तन (Climate Change) की इस कड़ी में, जिसे सोपान जोशी नेे लिखा है और न्यूज-18 के वेब पोर्टल पर प्रकाशित हुआ है. क्यों विज्ञान बेबस है ? कारण विज्ञान है या विज्ञान से सत्ता का सामान बनाने वाले नेता. हिन्दी में ऐसे लेख कम होते हैं.
उत्तर भारत में कड़ाके के जाड़े ने कई रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. लेकिन रूस में बीता साल सबसे गर्म था, इतना कि राजधानी मॉस्को में नकली हिमपात का इंतजाम किया गया. रूस में इस समय तापमान शून्य से नीचे चला जाता है और बर्फ सभी को ढंक देती है, इस तरह कि कहा जाता है कि नेपोलियन और हिटलर की सेनाएं भी जाड़े से हार गई थीं. अब रूस का कुख्यात और सर्वशक्तिमान जाड़ा जलवायु परिवर्तन के सामने घुटने टिकाता प्रतीत होता है.
सबसे विचित्र हालात तो दूर दक्षिणी गोलार्ध की ग्रीष्म ऋतु में ऑस्ट्रेलिया में व्याप्त हैं. सन् 2019 ऑस्ट्रेलिया का आज तक का सबसे गर्म साल था. गर्मी से सूखे हुए जंगलों में सितंबर से आग लगी हुई है. वैसे इस मौसम में वहां के वनों में आग लगती ही है, पर इस साल की आग अप्रत्याशित है और ढाई करोड़ एकड़ से ज्यादा जमीन पर फैल चुकी है. इन दावानलों में लाखों वन्य प्राणियों का संहार किया है. लगभग सभी वैज्ञानिक इसमें जलवायु परिवर्तन के लक्षण देख रहे हैं.
वैज्ञानिक बहुत समय से चेतावनी दे रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के असर ऑस्ट्रेलिया पर क्या होंगे. कुछ वैज्ञानिक बताते आए हैं कि उन्हें ऑस्ट्रेलिया पर गुजरने वाली भयानक स्थितियों का पूर्वानुमान लग रहा है उससे उन्हें अवसाद होता है. इस तरह की रपटें दुनिया भर से आ रही हैं, खासकर बच्चों में, जिनका अंतरराष्ट्रीय चिह्न ग्रेटा थनबर्ग हैं. सबसे विकट परिस्थिति तो उनकी है जो इस विध्वंस को आते हुए देख सकते हैं पर उसके बारे में कुछ भी नहीं कर सकते हैं.
बेबसी का विज्ञान
वैज्ञानिक जो भी शोध करते हैं, जो भी खोजते हैं, उसमें उन्हें केवल विध्वंस और त्रासदी के पूर्वानुमान मिलते हैं. सभी संकेत, सभी प्रमाण एक ही कहानी सुना रहे हैं – पृथ्वी की जलवायु बदल रही है. इस परिवर्तन की गति सभी अनुमानों से कहीं ज्यादा तेज है. इसका कारण है औद्योगिक विकास के लिए कोयला और पेट्रोलियम जलाने से निकलने वाला कार्बन का धुंआ. इससे होने वाले नुकसान अकल्पनीय होंगे.
इस बात को उजागर हुए तीस साल बीत चुके हैं. सन् 1988 से वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि हमारी बेहिसाब औद्योगिक तरक्की से पृथ्वी की जलवायु की अनुकूलता चली जाएगी. फिर भी उनकी बात सुनने को कोई राजी नहीं है. औद्योगिक विकास की हवस में अंधी हो कर हमारी सभी सरकारें अंधाधुंध विकास में लगी हैं. पहले से अधिक कोयला और पेट्रोलियम जला के हवाई कार्बन बढ़ाने का काम कर रही हैं.
जैसे कोई बड़ा घर जल रहा है और उसके निवासी घर में पहले से अधिक बारूद, लकड़ी और तेल डाले जा रहे हैं. हर सदस्य की अपेक्षा यही है कि दूसरे सदस्य ही आग बुझाएं, खुद उसे तमाशा देखने के लिए छोड़ दें. सभी सदस्य एक-दूसरे को आग बुझाने के महत्व पर उपदेश दे रहे हैं, लंबे-लंबे भाषण दे रहे हैं कि उन्हें साथ मिल-जुल कर घर को सुंदर बनाना चाहिए. घर का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक किनारे खड़े हो के सभी को बता रहे हैं कि घर जलने के बाद उन सब के लिए रहने की कोई जगह नहीं बचेगी. किंतु घर का कोई भी सदस्य खुद आगे बढ़ के आग बुझाने के लिए कुछ भी नहीं करना चाहता, सिवाय दो-एक पर्यावरण कार्यकर्ताओं के जो छोटी-छोटी कटोरियों में पानी ला-ला के आग की ओर उछाल रहे हैं और सभी को चिल्ला-चिल्ला के बता रहे हैं कि यह सर्वनाश है.
समस्त मनुष्य प्रजाति जलवायु परिवर्तन की आग के सामने खड़ी है और उसे नजरअन्दाज कर रही है. हम अपने विकास के लिए पहले से अधिक कोयला और पेट्रोलियम जला रहे हैं. हवाई कार्बन बढ़ रहा है, जिसकी वजह से पहले से अधिक गर्मी और वायुमंडल से हमारी ओर वापस लौटा रही है. कुल मनुष्य जाति का घर जल रहा है, जैसा इस श्रृंखला के पहले हिस्से बताया गया था.
मूर्ति-पूजा और निराकार ब्रह्म का द्वैत हमें मौसम और जलवायु परिवर्तन के बारे में क्या समझा सकता है?
विज्ञान के दौर में लाचार वैज्ञानिक
सभी छात्रों को स्कूल के पाठ्यक्रम के अंतर्गत विज्ञान पर निबंध लिखने पड़ते हैं. विषय ‘विज्ञान के चमत्कार’ जैसे होते हैं. हमारा समय विज्ञान का दौर कहा जाता है. आधुनिक विज्ञान के पास आज किसी भी दूसरी विधा से ज्यादा जानकारी है, ज्यादा प्रमाण हैं, ज्यादा ज्ञान है. यह तरक्की पिछले 200 साल में यूरोप में हुई है. इसकी वजह से कुल मनुष्य आबादी एक शताब्दी में 1.6 अरब से लगभग पांच गुना बढ़ के 7.75 अरब हो गई है.
आज जो भी देश ताकतवर हैं उन्होंने पिछली शताब्दी में विज्ञान के विकास के लिए बहुत से साधन लगाए हैं, खूब सारे वैज्ञानिकों के काम को बढ़ावा दिया है. राजनीति, युद्ध, रोजगार, स्वास्थ्य, शिक्षा…कोई ऐसी विधा नहीं है जो 20वीं शताब्दी में नए सिरे से बदली न हो.
तरक्की विज्ञान की है. लेकिन विज्ञान अमूर्त होता है, निराकार होता है. उसका रूप अदृश्य होता है, सिद्धान्तों और परिकल्पनाओं में. यही नहीं, विज्ञान के कोई अपने मूल्य नहीं होते. उसकी कोई चिंता नहीं होती, कोई अपना प्रयोजन नहीं होता. विज्ञान विचार है, उससे हमें केवल समझने में मदद मिलती है, खुद कुछ बदलता नहीं है.
जिन सिद्धांतों का विज्ञान निरूपण करता है उनके आधार पर प्रयोगशाला और कारखानों में यंत्र बनते है. विचार को यंत्र बनाने की पद्धति को अंग्रेजी में ‘टेकनिक’ कहते हैं, जिससे हिंदी का शब्द ‘तकनीक’ आता है. इन तकनीक और यंत्रण से युद्ध के नए हथियार बनते हैं, अनेकानेक उपकरण भी जिनका हम इस्तेमाल कर सकते हैं. (यह लेख ऐसे ही उपकरणों से पढ़ा जा रहा है)
अमेरिका का युग
विज्ञान और तकनीक की तरक्की से कोई दूसरा देश इतना प्रभावित नहीं रहा है जितना संयुक्त राज्य अमेरिका रहा है. लगभग एक शताब्दी पहले अमेरिका दुनिया के सबसे ताकतवर देशों में नहीं था. उसकी सत्ता और ताकत बढ़ने में सबसे बड़ी भूमिका है दुनिया भर से वहां पहुंचे वैज्ञानिकों की, जिनमें सबसे बड़ा नाम अल्बर्ट आइन्स्टाइन है. कुछ इतिहासकारों ने 20वीं सदी को अमेरिकी शताब्दी कहा है.
पृथ्वी की जलवायु पर वैज्ञानिक शोध जब 19वीं सदी में शुरू हुई, तब आधुनिक विज्ञान का गढ़ यूरोप था. आगे चलते हुए अमेरिका में विज्ञान और तकनीक में जिस तरह का निवेश हुआ उससे वहां के वैज्ञानिक इस विषय के सबसे बड़े जानकार बन के उभरे.
जलवायु परिवर्तन के कारण और प्रभाव सिद्ध करने में अमेरिकी वैज्ञानिक और विश्वविद्यालयों की भूमिका अहम थी. इनमें से बहुत से शोधकर्ता अमेरिकी सरकार के संस्थानों में काम करते रहे हैं, खासकर दो प्रसिद्ध प्रतिष्ठानों में – अंतरिक्ष एजेंसी ‘नासा’ और एन.ओ.ए.ए. नामक मौसम और समुद्र के मामलों की एजेंसी.
अमेरिकी सरकार की मौकापरस्ती
ऐसे वैज्ञानिकों के काम से ही पता चलता है कि कोयला और पेट्रोलियम जला के वायुमंडल में कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ने के इतिहास में अमेरिका पहले स्थान पर रहा है. यानी जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयास अगर न्याय पर आधारित होंगे, तो उनकी सबसे बड़ी कीमत अमेरिका को ही चुकानी होगी.
सच्चाई इसके ठीक विपरीत है. पिछले तीस साल से अमेरिकी सरकार ही इस कठिन समस्या और इससे होने वाले विनाश को रोकने में सबसे बड़ी अड़चन है (इस विषैली राजनीति की चर्चा इस श्रृंखला के अगले लेख में होगी). यानी जिस देश की अंतरराष्ट्रीय प्रभुसत्ता विज्ञान और तकनीक की तरक्की से है, उसकी सरकार अपने ही वैज्ञानिकों की बात लगातार अनसुनी करती आ रही है.
जलवायु परिवर्तन की बातचीत अमेरिका में बहुत कड़वी है. बहुत-से अमेरिकी लोग इसे जानकारी या प्रमाण के सहारे नहीं, विश्वास और प्रचलित कहानियों के सहारे देखते हैं. जैसे-जैसे अमेरिकी वैज्ञानिक इस समस्या पर एकमत होते जा रहे हैं, वैसे-वैसे अमेरिकी राजनीति में उनकी अनदेखी हो रही है. एक के बाद एक सर्वेक्षण ऐसी ही बातें बता रहा है.
सत्य नकारने वाला राष्ट्रपति
इस कड़वाहट का चेहरा है अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का, जो लगातार जलवायु परिवर्तन को नकारते आ रहे हैं. वे कोयला और पेट्रोलियम के खनन में लगे उद्योगों के चहेते हैं और उन्हीं की तरफदारी करते हैं. या तो वे जलवायु परिवर्तन का क-ख-ग भी नहीं जानते हैं या वे जानबूझ के अपने करीबी औद्योगिक घरानों की मदद के लिए इसकी अनदेखी कर रहे हैं.
ट्रंप कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन चीन की सरकार का अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र है, ताकि अमेरिकी औद्योगिक उत्पादन पर रोक लगे और चीन की अर्थव्यवस्था को लाभ मिले. वे मानते हैं कि औद्योगिक विकास सदा-सदा होता रहेगा. उनकी इस विवादास्पद छवि के बावजूद सन् 2016 में अमेरिकी जनता ने उन्हें अपना राष्ट्रपति चुना. सन् 2015 में जलवायु पर हुए पेरिस समझौते पर उनसे पहले राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा ने दस्तखत किए थे. ट्रंप के प्रशासन ने उससे भी हाथ खींच लिया है. कोई भी कोशिश ट्रंप को अपनी जिद छोड़ने के लिए राजी नहीं कर पाई है.
अमेरिका के पास दुनिया का सबसे बड़ा आधुनिक ज्ञान-विज्ञान तंत्र है. उसी का राष्ट्रपति उसे नकार रहा है, अपनी हठ और राष्ट्रवाद के लिए, औद्योगिक मुनाफाखोरी के लिए. हजारों-लाखों वैज्ञानिकों की मेहनत, मेधा और ईमानदारी अपने राष्ट्रपति को सच स्वीकार करने के लिए मना नहीं सकती!
सत्ता के दरबार में विज्ञान इतना निरीह क्यों है? वही सत्ता तंत्र जिसे खड़ा करने में उसकी भूमिका मुख्य रही है? इसका जवाब आधुनिक विज्ञान के पालने में है, जर्मनी में है.
विज्ञान और राष्ट्रवाद – एक विषैला रसायन
अमेरिका में विज्ञान और सैन्य शक्ति की ताकत बढ़ाने का काम करने वाले कई वैज्ञानिक ऐसे यहूदी थे जो दूसरे विश्व युद्ध से पहले वहां भाग कर आए थे. वे जर्मन राष्ट्रवाद-फासीवाद के प्रकोप से भाग रहे थे – इनमें आइन्स्टाइन और परमाणु बम बनाने वाले कई वैज्ञानिक भी थे.
यूरोप को दो विश्व युद्धों में झोंकने की ताकत जर्मनी में विज्ञान और तकनीक से ही आई थी. पहले विश्व युद्ध की 1914-18 के बीच की विभीषिका में इसका बड़ा योगदान था. इसके पहले एक आविष्कार ने जर्मनी को खेती की खाद और असलहा-बारूद बनाने की असीम ताकत सौंप दी थी – इसे आधुनिक दुनिया को बदलने वाला सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार माना जाने लगा है. भारतीय खेती में हरित क्रांति के मूल में भी यही आविष्कार रहा है.
पहले विश्व युद्ध के बाद जब अडॉल्फ हिटलर की नाज़ी पार्टी सत्ता में आई तब जर्मन विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा देने में उसकी विशेष रुचि थी. इससे निकली सैन्य ताकत का सीधा नतीजा था दूसरा विश्व युद्ध. नाज़ी राज में वैज्ञानिक शोध के नाम पर अभूतपूर्व क्रूरता बरती गई, खासकर जिस तरह नजरबन्द यहूदियों को यातना दे-दे कर जबरन मजदूरी करवाई जाती थी और शोध के लिए मार दिया जाता था. इसमें डॉक्टर जोसेफ मेंगेल का नाम खास है, जो ऑशविट्ज़ के नजरबन्दी कैंप में तमाम तरह के भयावह प्रयोग करते थे.
इसी तरह कैन्सर पर शुरुआती शोध यातना और नृशंस हत्याओं से जुड़ा है. विज्ञान के इतिहास में ऐसे अनेकानेक किस्से हैं जिनकी बात विज्ञान के चमत्कार के बखानों में छिप जाती है, चाहे वह युद्ध के समय का जापान रहा हो या अमेरिका में गुलाम महिलाओं के जननांगों पर हुए प्रयोग, जिनसे आधुनिक प्रसूतिशास्त्र का जन्म हुआ है.
हिंसा-क्रूरता को विज्ञान प्रयोग और जिज्ञासा की आंख से देखता है. यह पुरानी कहानी बार-बार दोहराई जाती है.
जर्मन वैज्ञानिक, अमेरिकी विज्ञान
विश्व युद्धों की चौतरफा विध्वंस के बाद जो देश विजेता उभरे, उन्होंने जर्मनी से सबक नहीं सीखा. बल्कि वे जर्मनी का अनुसरण करना चाहते थे. दूसरे विश्व युद्ध के पहले और बाद में अमेरिका की नजर जर्मन वैज्ञानिकों पर थी. जर्मनी जैसी ही हिंसक ताकत पाने के लिए बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों को अमेरिका लाया गया. इनमें ऐसे वैज्ञानिक भी थे जिन पर युद्ध में किए घिनौने अपराधों के लिए अभियोग चलने थे. अमेरिका का दुनिया में सबसे ताकतवर देश बन के उभरने में ऐसे वैज्ञानिकों का योगदान भी था.
युद्ध के आखिरी दिनों में जापान के नगर हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराने की कोई जरूरत नहीं थी. जापान हार के कगार पर था, उसने आत्मसमर्पण के प्रस्ताव भी रखे थे. सोवियत रूस की सेना तैयार थी दो दिन में जापान पहुंचने के लिए. अमेरिका के सभी सेनापति और सैन्य सलाहकार परमाणु बम के उपयोग के खिलाफ थे और बम बनाने वाले कुछ वैज्ञानिक भी.
फिर भी जापान के साधारण नागरिकों पर परमाणु शक्ति का प्रयोग हुआ, तो सिर्फ इसलिए क्योंकि अमेरिका के नए राष्ट्रपति सोवियत रूस के सामने शक्ति प्रदर्शन करना चाहते थे. पहले अनदेखे स्रोतों के हवाले से इतिहासकार आज यह भी बता रहे हैं कि नौसेना के कम-से-कम एक सेनापति ने कहा था कि, “बम बनाने वाले वैज्ञानिक अपना नया खिलौना आजमा के देखना चाहते थे.”
सेना-उद्योग की सांठ-गांठ में विज्ञान
दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका और उसके मित्र देशों के जो मुख्य सेनापति रहे थे वे बाद में आठ साल अमेरिका के राष्ट्रपति रहे. उन्होंने अपने विदाई भाषण में सेना और उद्योग की सांठ-गांठ के बारे में चेतावनी दी थी. दोनों की ताकत विज्ञान की तकनीकी से ही उपजी है. एक यशस्वी सेनापति रहा हुआ राष्ट्रपति सेना और उद्योग के अनैतिक प्रभाव से सरकार को सतर्क कर रहा था.
इस चेतावनी के ठीक विपरीत यह प्रभाव बढ़ता ही गया, इसके नए रूप उभरने लगे. उनके बाद जॉन एफ. केनेडी राष्ट्रपति बने. सन् 1962 में एक चर्चित भाषण में उन्होंने अमेरिका के विज्ञान में अग्रणी रहने की बात की, चांद तक पहुंचने की प्रतिज्ञा की. इसके सात साल बाद सन् 1969 में एक अमेरिकी ने चंद्रमा पर पहला कदम रखा.
सन् 2019 में जब इसके 50 साल पूरे हुए तब वैज्ञानिकों ने उस भाषण को इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण भाषणों में गिना. प्रशंसा में भीगी बातों में यह नहीं कहा गया कि अंतरिक्ष जाने वाले रॉकेट का मूल शोध एक नृशंस युद्ध अपराधी ने जर्मनी में मिसाइल बनाने के लिए किया था. युद्ध के बाद अमेरिका ने उसे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के हवाले नहीं किया. उसके शोध के आधार पर सेना और विश्वविद्यालयों ने अमेरिका को अंतरिक्ष में पहुंचाया.
हिंसा का विज्ञान, विज्ञान की हिंसा
वैसे विज्ञान की यंत्रणा का युद्ध से सम्बन्ध बहुत पुराना है. बड़े साम्राज्यों के बनने में इसका योगदान कहीं न कहीं रहता ही है. साम्राज्य तो खत्म हो जाते हैं लेकिन तकनीक और यंत्रण में तरक्की होती ही जाती है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण दुनिया का सबसे बड़ा जमीनी साम्राज्य है, जो आज से लगभग 800 साल पहले मंगोल लड़ाकों ने एशिया और यूरोप में बनाया था. लेकिन मंगोल घुमन्तू चरवाहे थे, उनके पास नागरीय विज्ञान और तकनीक नहीं थी.
सन् 1205 से मंगोलों ने चंगेज़ खान के नेतृत्व में चीन के अलग-अलग राज्यों को हराना शुरू किया. चीन में मध्य युग के दौरान विज्ञान की खूब तरक्की हुई थी, कई महत्वपूर्ण आविष्कार हुए थे. जैसे बारूद, घोड़ों पर लगने वाली नई रकाब, छपाई, कागज़ की मुद्रा, चाय, कम्पास…इत्यादि. इनकी मदद से चीन ताकतवर और साधन-सम्पन्न था.
किंतु चीन का विज्ञान और तकनीक उसे बचा नहीं सके. सन् 1279 तक चंगेज़ के वंशज कुबलाई खान ने उस समय की आखिरी चीनी राज्य को हरा दिया था. चीनी तकनीक और आविष्कार मंगोल शासकों के हाथ लग गए. धातु की पहली बन्दूक मंगोल काल से ही मिलती है, जिसका बड़ा रूप तोप ने लिया. आज इतिहासकार कहने लगे हैं कि बारूद की ताकत से बनने वाला पहला साम्राज्य मंगोलों का ही था.
मंगोल राज में विज्ञान की और तरक्की हुई. चंगेज़ खान और उनके पुरखों की आस्था टेंग्री धर्म में थी, जिसमें आकाश पिता माना जाता है. उन्होंने और उनके वंशजों ने बड़ी संख्या में बौद्ध, मुसलमान और ईसाई लोगों को मारा, किंतु वे सभी धार्मिक मामलों में उदार थे. हर देश, हर संस्कृति से वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को उन्होंने अपने यहां बुलाया, विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा दिया. मंगोल सेनाओं में कई धर्म के लोग साथ-साथ लड़ने लगे. नए विज्ञान से बनी नई तकनीकी के बल पर मंगोल सेनाओं ने हिंसा के नए आयाम स्थापित किए.
तीन करोड़ से ले कर आठ करोड़ के बीच की संख्या में लोगों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसे इतिहासकारों का अनुमान है. मंगोल साम्राज्य के प्रभाव से पूरी-की-पूरी सभ्यताएं मिटने के कगार पर थीं. वीरान खेतों में उग आए जंगलों ने वायुमंडल से इतनी कार्बनडाइऑक्साइड निकाली कि उसकी हवाई मात्रा तेजी से घटने लगी थी.
विज्ञान के राजमार्ग पर दौड़ता आधुनिकता का बारूद
साम्राज्य सड़कों से बनते हैं. मंगोल राज में पूर्वी चीन से ले कर सड़कें 6,000 किलोमीटर दूर यूरोप तक जाती थीं. इन सड़कों पर होने वाले रेशम के व्यापार की वजह से बाद में इन्हें ‘सिल्क रोड’ कहा गया. इनके रास्ते कई नई चीजें चीन और एशिया से यूरोप की ओर आईं. बारूद, पिस्तौल और तोप भी.
मंगोल साम्राज्य के विज्ञान का असर आधुनिक समय में इतना माना जाता है कि एक इतिहासकार ने चंगेज़ खान को आधुनिकता पर सबसे बड़ा प्रभाव बताया है. बारूद का असर युद्ध और राजनीति में बढ़ता ही गया, बारूद का युग शुरू हुआ. जो विज्ञान और तकनीक चीनी साम्राज्यों को नहीं बचा सकी वह मंगोल साम्राज्यों को कैसे बचाती? जिन इलाकों को मंगोल सेनाओं ने रौंदा था उन्हीं में बारूद की ताकत से तीन साम्राज्य उठ के खड़े हुए. तुर्की में उस्मानी साम्राज्य आया, ईरान में सफावी और भारत में मुगल. कुछ इतिहासकार इन्हें बारूद के साम्राज्य ही कहते हैं.
चीन के विज्ञान का आधिकारिक इतिहास लिखने वाले सबसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक-इतिहासकार ने यह तक कहा है कि आधुनिक उद्योग में कोयला और पेट्रोलियम के इस्तेमाल का बीज भी बारूद में ही है. यानी कोयला जला के भाप से चलने वाला इंजन ही नहीं, वे पेट्रोलियम इंजन के मूल में भी बारूद की विस्फोटक ताकत ही देखते हैं. यानी कोयले और पेट्रोलियम से पैदा हुए आधुनिक औद्योगिक विकास के मूल में बारूद है. जलवायु परिवर्तन में भी!
दूसरे विश्व युद्ध के बाद विज्ञान और विकास का बारूद अमेरिका और सोवियत रूस के बीच बंट गया, उससे शीतयुद्ध पैदा हुआ जो सन् 1991 तक चला. सोवियत रूस के विघटन के तीस साल बाद भी अमेरिका का सैनिक बजट दुनिया के कुल सैन्य खर्च का एक तिहाई से ज्यादा बना हुआ है.
अब अमेरिका की सैन्य होड़ चीन के साथ है. जलवायु परिवर्तन का ऐतिहासिक जिम्मा चाहे सबसे ज्यादा अमेरिका का रहा हो, लेकिन सन् 2007 से चीन अमेरिका से अधिक हवाई कार्बन का निकास करने लगा है (हालांकि अमेरिका की आबादी चीन की तुलना में चौथाई से भी कम है). जलवायु परिवर्तन के मूल में जो तकनीकी तरक्की है, जो विज्ञान का बारूदी यंत्रण है, वह जहां से निकला है वहीं आज फल-फूल रहा है.
क्या विज्ञान की तरक्की ही इंसान की तरक्की है ?
डॉनल्ड ट्रंप का अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जाना बताता है कि विज्ञान की तरक्की में आग्रह आज भी वही है जो पुराने समय के साम्राज्यों में रहा है – सैन्य और आर्थिक ताकत. सभी राष्ट्रीय सरकारें विज्ञान में निवेश इन्हीं कारणों से करती हैं. चाहे जितने भी वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन की चेतावनी दें, सरकार और उद्योग उससे ज्यादा वैज्ञानिकों को भाड़े पर रख सकते हैं, नए विध्वंसक हथियार या सुविधाजनक यंत्र बनाने के लिए. कोयला और पेट्रोलियम के खनन, व्यापार और उन्हें जला के उपकरण बनाने वालों के पास वैज्ञानकों का और भी बड़ा जत्था है.
विज्ञान से बहुत-सी नई सुविधाएं आई हैं. किंतु विज्ञान की प्रगति इंसान की तरक्की नहीं है. इससे मनुष्य का मूल स्वभाव बदलता नहीं है. इंसान की जो कमजोरियां प्राचीन काल के महाकाव्यों और ग्रंथों में मिलती हैं उनसे आज भी हम सभी त्रस्त हैं, वे आधुनिक विज्ञान में भी मौजूद हैं. विज्ञान को पालने-पोसने वाले बड़े-से-बड़े साम्राज्य मिट गए हैं, उनके राजवंशों का क्षय हुआ है. विज्ञान की तरक्की हुई है.
खुद वैज्ञानिकों के परिवार बर्बाद होने से बच नहीं सके हैं. हवा से नाइट्रोजन खींच के यूरिया बनाने के आविष्कार से आज लगभग आधी मनुष्य आबादी भोजन पाती है. जिन दो वैज्ञानिकों को इस आविष्कार के लिए सन् 1919 का नोबेल पुरस्कार दिया गया वे दोनों ही भयावह त्रासदी में मिट गए, उनके परिवार भी.
विज्ञानः सुविधा बनाम दुविधा
ऐसी अनेक त्रासदियां हैं विज्ञान के इतिहास में. विज्ञान के चमत्कारों के महिमामंडन में यह छिपी रहती हैं. कुछ प्रसिद्ध इतिहासकार-विचारक मानते हैं कि किसी धर्म का कुल मनुष्य समाज पर ऐसा प्रभुत्व कभी नहीं रहा जैसा आज विज्ञान का है. यह भी कि आज दुनिया को सबसे बड़े खतरे किसी तरह के धर्मांध लोगों से नहीं, बल्कि विकास में अंधविश्वास से है, जिसके मूल में विज्ञान और तर्कशास्त्र ठीक वैसे ही बैठे हैं जैसे धर्मांध लोगों के भीतर अपनी-अपनी आस्था बैठी रहती है. धार्मिक लोगों के अंधविश्वास की आलोचना तो आज होती है परंतु विज्ञान में अंधविश्वास की चर्चा तक नहीं होती है.
विज्ञान और तकनीकी की आलोचना को समझना बेहद जरूरी हो गया है. पर्यावरण का जैसा विनाश आज विज्ञान से निकले औद्योगिक विकास से हो रहा है वैसा कभी नहीं हुआ है. जलवायु परिवर्तन इसकी हिंसा का सबसे बड़ा रूप जरूर है, लेकिन इसके कई दूसरे असर हैं जो कयामत की बला रखते हैं. बड़ी संख्या में वन्य प्राणी विलुप्त हो रहे हैं, कीट-पतंगे पर भी कहर बरप रहा है और कई वनस्पति प्रजातियों पर भी.
हर रोज नए प्रमाण बता रहे हैं कि विकास का यह अंधविश्वास हमें सर्वनाश की ओर ले जा रहा है. जो स्थान सभ्यता के विकास में जंगल काट के खेत बनाने का रहा है वही स्थान औद्योगिक विकास में कोयले और खनिजों का खनन रहा है. इन दोनों से बनी आधुनिक सभ्यता ने पृथ्वी पर संपूर्ण जीवन को उलट-पलट कर दिया है.
हर साल इस विध्वंस के भयानक नजारे वैज्ञानिकों के सामने आ रहे हैं, लेकिन हम अपने विकास को रोकने के बजाय उसे और तेज करने में लगे हैं. जिस शाखा पर बैठे हैं उसी को काटने के लिए अधीर हैं. सत्ता और राजनीति में आर्थिक विकास किसी भी धर्म से ज्यादा ताकतवर हथियार बन चुका है.
सहूलियतपरस्ती का विकास
हर सत्ता प्रतिष्ठान विज्ञान से वही लेता है जिससे उसकी सुविधा और ताकत बढ़े. जब विज्ञान कोई कड़वा सच और दुविधा दिखाता है तब उसकी अवमानना होती है. विज्ञान के अपने सामाजिक या राजनीतिक मूल्य नहीं होते. उसकी दिशा अपने समय की राजनीति और सत्ता से तय होती है.
जब प्लास्टिक को नए युग का चमत्कार बताया गया, तब उसे बढ़ावा देने का काम सरकारों और उद्योगों ने तत्परता से किया. यह तभी पता था कि प्लास्टिक की उपयोगिता का कारण है कि वह सहज रूप से सड़ता नहीं है. इसी कारण से उसका प्रदूषण पुराने प्रदूषणों से अलग है, क्योंकि उसके प्राकृतिक निस्तार के तरीके हैं ही नहीं, जबकि प्लास्टिक पेट्रोलियम जैसे प्राकृतिक खनिज से ही बनता है.
आज विज्ञान हमें तरह-तरह से बता रहा है कि प्लास्टिक हमारे जीवन पर हावी है और प्रकृति में बर्बादी का सबब है. पर हम उसे नहीं रोक पा रहे हैं. प्लास्टिक के इस्तेमाल में सहूलियत है. जलवायु परिवर्तन आज तक की सबसे बड़ी असुविधा है. जलवायु परिवर्तन की रोकथाम का मतलब है विकास और उससे पैदा हुई सुविधाओं को घटाना. यह राष्ट्रीय सरकारों की जिम्मेदारी है. राजनेताओं को आज दूरदर्शिता से काम लेने की जरूरत है. किसी भी देश के नेताओं और राजनीति में ऐसी दूरदृष्टि अभी दिखती नहीं है. सभी की आंखों पर विकास का चश्मा लगा है.
राजनीति सभी जगह तात्कालिक मुद्दों की गुलाम है. तत्काल कोटे की इसी राजनीति के हाथ में विज्ञान की लगाम है.
राज पर आश्रित महंगा विज्ञान…
विज्ञान की मूल प्रेरणा व्यक्तिगत जिज्ञासा है, सामाजिक चिंता नहीं. वैज्ञानिक उन सवालों का जवाब ढूंढते हैं जिन्हें कोई नहीं जानता है. (एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने सन् 1963 में विज्ञान को ‘अज्ञान का संतोषजनक दर्शन’ कहा था) विज्ञान की ज्यादातर रहस्यों का उद्घाटन ऐसे लोगों ने किया है जो अपने कौतूहल में डूबे हुए थे.
सूक्ष्म-जीवविज्ञान के जनक एक कपड़ों के व्यापारी थे, जिन्हें खाली समय में कांच घिस के माइक्रोस्कोप बनाने का शौक था. अल्बर्ट आइन्स्टाइन स्विट्जरलैंड के पेटेंट दफ्तर में क्लर्क थे. बुनियादी सवालों का जवाब ढूंढने में जैसी कल्पनाशीलता लगती है, वह मौलिक और व्यक्तिगत होती है. विज्ञान की प्रतिभा किसमें होगी यह कभी भी कहा नहीं जा सकता है. मौलिक प्रतिभा हमेशा आश्चर्यजनक जगहों से आती है, उसे पैदा करने और संवारने का कोई नुस्खा नहीं है. यह ‘विशेष’ गुण ‘शेष’ के पास नहीं होता है.
लेकिन आधुनिक विज्ञान जिस तरह के विशेषज्ञों और उनके विशेष ज्ञान पर आधारित है, उसे सहज समाज के साधारण लोग तैयार नहीं कर सकते. जैसे-जैसे आधुनिक विज्ञान के पास सामग्री बढ़ती गई है वैसे-वैसे वैज्ञानिक प्रयोगशालाएं और साहित्य महंगा होता चला गया है. उसके लिए बड़ी मात्रा में असहज साधन चाहिए.
ऐसे विशेष लोगों को इकट्ठा करने में, उनके ज्ञान को संकलित करने में विश्वविद्यालयों की बड़ी भूमिका रही है. सबसे पुराने विश्वविद्यालय चीन और भारत में बने थे. ये धार्मिक अध्ययन के केंद्र थे जिन्हें राजा और राज्य की मदद से बनाया गया था. यूरोप के बहुत से पुराने विश्वविद्यालय भी रोमन चर्च के साधनों से बने थे.
…जो अब उद्योग-पूंजी के आसरे है
पहले ये साधन राज्य/राजाओं और धार्मिक प्रतिष्ठानों के पास ही होते थे, इसलिए कई पुराने विश्वविद्यालय या तो राज्य या धर्म पर आश्रित थे. फिर समय के साथ बड़े उद्योगपतियों से ऐसे साधन आने लगे. आज सबसे सफल माने जाने वाले विश्वविद्यालय अमेरिका में हैं, जिन्हें स्थापित करने में बड़ी संख्या में उद्योगपतियों और व्यापारियों के नाम हैं.
जैसे येल विश्वविद्यालय ईस्ट इंडिया कंपनी के एक ऐसे अध्यक्ष के नाम पर है जो अफ्रीकी गुलामों का व्यापार करते थे. शिकागो विश्वविद्यालय के संस्थापक एक पेट्रोलियम कंपनी के मालिक थे जिन्हें आधुनिक दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति कहा जाता है. प्रसिद्ध अमेरिकी विश्वविद्यालयों के नाम में कई उद्योगपतियों पर पड़े हैं, जैसे कारनेगी और मेलन, स्टॅनफोर्ड, कॉरनेल… जिनमें कुछ बड़े उद्योगों की कहानी अटपटी भी है. इसमें कोई आश्चर्य नहीं है. व्यापारी बहुत पहले से सभी जगहों पर बड़े-बड़े कामों के प्रायोजक रहे हैं. भारत में भी कई जगह ऐसी तालाब और बावड़ियां मिलती हैं जिन्हें सेठ-व्यापारियों ने जनहित में बनवाया था. आधुनिक विश्वविद्यालयों को प्रतिष्ठित करने वाले उद्योगपति भी वही काम कर रहे थे.
अंतर यह आ गया है कि आधुनिक युग की समृद्धि कारीगरों के हाथ से बनी चीजों से नहीं, बल्कि कोयले और पेट्रोलियम से चलने वाले उद्योगों से है. दुनिया भर में औद्योगिक क्रांति उन्हीं जगहों पर हुई थी, जहां कोयले और धातुओं की खदानें थीं. जो देश जितना विकसित है वह उतना ज्यादा कोयला और पेट्रोलियम (और अब प्राकृतिक गैस) जलाता है, उतना ज्यादा हवाई कार्बन छोड़ता है.
आधुनिक युग को कोयले का युग भी कहा गया है. विज्ञान के विकास में इसका बहुत बड़ा हाथ है, उन विश्वविद्यालयों के विकास में भी जो आज विज्ञान के केंद्र हैं. इनके साधन तो इस कार्बन के विकास से आते ही हैं, इनमें उच्च शिक्षा पाने वाले छात्रों को काम भी उन्हीं उद्योगों में करना होता है, इसलिए उनका पाठ्यक्रम भी इसी हवाई कार्बन पैदा करने वाले विकास के आधार पर बनाया जाता है.
क्या विज्ञान राज्य और उद्योग के बंधन तोड़ सकता है ?
विज्ञान का असर राज्य और उद्योग पर जरूर होता है. राज्य की शक्ति सेना और पुलिस के हथियारों से आती है और उद्योग की ताकत उसकी मशीनी उत्पादक क्षमता से. दोनों ही सदा से विज्ञान की तकनीक पर निर्भर रहे हैं, चाहे वह शक्ति बारूद से निकली हो या कोयले-पेट्रोलियम से. लेकिन असली सत्ता तो राजनीति और अर्थनीति के पास ही है. सत्ता के मूल्य ही विज्ञान को चलाते हैं, उसकी तकनीक, दशा और दिशा तय करते हैं.
तभी तो अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थाओं की खुलेआम अनदेखी कर सकते हैं. उनकी राजनीति और चुनावी जीत औद्योगिक विकास पर निर्भर है, जलवायु के सत्य पर नहीं. वैसे भी, जलवायु परिवर्तन के भयानक खतरे की समझ विज्ञान की दुनिया को आकस्मिक ही हुई – दूसरे काम करते हुए वैज्ञानिकों को धीरे-धीरे इसका विकराल रूप समझ में आया. किसी सरकार ने दो सौ साल से चली आ रही औद्योगिक क्रांति के हिंसक प्रभाव जानने की स्वतंत्र और व्यापक कोशिश नहीं की है.
पर्यावरण की चिंता के आंदोलन दुनिया भर में सहज समाज से प्रकट हुए हैं, चाहे अमेरिका की रेचल कारसन रही हों या भारत का चिपको आंदोलन या नाइजीरिया के केन सारो-वीवा (जिन्हें एक पेट्रोलियम कंपनी द्वारा किए प्रदूषण का विरोध करने के लिए जेल में डाला गया और फाँसी लगा दी गयी) या ब्राजील के चीको मेंडेज (जो उन 90 लोगों में थे जिनकी हत्या की गयी क्योंकि वे ब्राजील के अमेजॉन जंगल बचाने के लिए अभियान चला रहे थे)। यह सही है कि ऐसे आंदोलनों को कुछ सहृदय वैज्ञानिकों का समर्थन भी मिला, पर विज्ञान की दुनिया समाज और पर्यावरण के आंदोलनों से दूर ही रहती है।
जब वैज्ञानिक पर्यावरण की समस्या को गंभीरता से लेने लगते हैं, तब वे विज्ञान की दुनिया में अपने आप को अकेला ही पाते हैं. आई.आई.टी. कानपुर में प्रसिद्ध प्राध्यापक रहे जी.डी. अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जब गंगा की सफाई और अविरलता के लिए उपवास पर बैठे, तब सरकार और विज्ञान की दुनिया ने उनसे पल्ला झाड़ लिया. एक अनशन में उनकी मृत्यु हो गई. आई.आई.टी. खड़गपुर में पढ़े हुए इंजीनियर दिनेश कुमार मिश्र ने अपना पूरा जीवन बिहार की नदियों को समझने में लगाया, उनमें आने वाली बाढ़ को गहराई से समझा और समझाया. लेकिन राज्य और विज्ञान-तकनीकी का तंत्र वही गलतियां दुहराए जा रहा है जिनकी वजह से बाढ़ का नुकसान बढ़ता ही गया है.
इसमें पूंजीवाद और साम्यवाद/समाजवाद में कोई अंतर नहीं है। साम्यवादी शासन के दौरान जैसी पर्यावरण की हानि सोवियत रूस में होती रही वैसी ही कुछ आज वामपंथी चीन में हो रही है। चीनी विज्ञान भी राजनीतिक सत्ता की ही सेवा करता है, अमेरिका और यूरोप की पूंजीवादी व्यवस्था की ही तरह.
सत्ता का सेवक विज्ञान हमें नहीं बचा सकता
हमारी औद्योगिक सफलता के कारण आज यह विश्वास जनमानस में आ चुका है कि आधुनिक विज्ञान हर समस्या का समाधान ढूंढ सकता है. यह गलतफहमी फैली हुई है कि तकनीक और तर्क से हर मुश्किल सुलझाई जा सकती है. यही विज्ञान में अंधविश्वास है. जलवायु परिवर्तन का कारण ही आधुनिक विज्ञान की पैदा की हुई तकनीक है, जो कोयले और पेट्रोलियम की विस्फोटक शक्ति को साधने में काम आई है.
जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए विज्ञान ने जो भी तरीके सुझाए हैं, वे अंतरराष्ट्रीय राजनीति को स्वीकार्य नहीं रहे हैं. राजनीतिक सत्ता इसके मूल सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहती – कि जलवायु परिवर्तन का कारण कार्बन जलाने वाला औद्योगिक विकास है, इसे रोकने के लिए औद्योगिक विकास रोकना पड़ेगा. तीस साल से हवाई कार्बन घटाने को ले कर अंतरराष्ट्रीय समझौते बार-बार होते हैं, फिर टूट जाते हैं.
राजनीति विज्ञान पर जोर डाल रही है कि वह कुछ ऐसी तकनीक ढूंढे जो मौजूदा औद्योगिक व्यवस्था में ज्यादा फेरबदल किए बिना ही हवा से कार्बन निकाल सके या फिर वायुमंडल में ऐसे रसायन छोड़ दे जो सूरज की गर्मी रोक सकें. इसे भू-इंजीनियरी कहा जाता है और इसमें तरह-तरह के खयाली पुलाव हैं. पर विज्ञान उस हर विचार पर काम करेगा जो सुविधा की राजनीति के लिए सुविधाजनक हैं. हर तरह का अनुसंधान होगा जिससे राजनीति अपनी जिम्मेदारी से बच सके. अपने अल्पकालीन लाभ के लिए हम सब के दीर्घकालीन हित की बलि चढ़ा सकें !
जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए नए सिरे से विचार चाहिए. हमें विकास के सम्मोहन से बाहर निकलना होगा, अपनी असीम आकांक्षाओं को काटना होगा, पृथ्वी की सीमाओं के हिसाब से अपने आप को ढालना होगा. ऐसी अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था बनानी होगी जो सिर्फ उद्योग और मुनाफे पर आधारित नहीं हो.
यह सब विज्ञान कतई नहीं कर सकता. उसकी बागडोर राजनीति के हाथ में है.
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