हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
आज के अखबारों में खबर है कि सरकार ने नई शिक्षा नीति के तहत प्रस्ताव दिया है कि निजी शिक्षा संस्थानों को अपनी फीस खुद तय करने की ‘ऑटोनोमी’ दी जाएगी, शर्त्त यह है कि उन्हें 20 प्रतिशत सीटें गरीब छात्रों के लिये निःशुल्क देनी होंगी. हालांकि, इसमें कोई नई बात नहीं है. निजी संस्थान तो पहले ही मनमर्जी की फीस लेते रहे हैं. उन पर नियामक तंत्र का कोई अंकुश तो कभी नजर आया नहीं.
बात रही 20 प्रतिशत सीटें गरीब छात्रों को देने की, तो यह भी कोई नई बात नहीं. हम सब जानते हैं कि महंगे निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों के लिये रिजर्व रखने का प्रावधान रहा है. यह अलग बात है कि कितने महंगे स्कूलों में कितने गरीब बच्चे नामांकित हैं और इस आड़ में कितने गोरखधंधे चलते रहे हैं. हाल में इरफान की फ़िल्म ‘हिन्दी मीडियम’ में हम इन चालबाजियों को देख चुके हैं कि गरीब छात्रों के नाम पर निजी स्कूल कैसे खेल खेलते हैं.
तो, नई शिक्षा नीति में निजी संस्थानों को, चाहे उच्च शिक्षा के हों, तकनीकी शिक्षा के हों या स्कूली शिक्षा के हों, फीस निर्धारण में ऑटोनोमी देने की बात कोई आश्चर्य पैदा करने वाली नहीं है.
थोड़ा सा आश्चर्य इस पर जरूर है कि जब देश-दुनिया के लोग महामारी के अकल्पनीय संकट से जूझ रहे हैं, भारत के कई क्षेत्रों में संक्रमण अब ‘कम्युनिटी लेवल’ तक पहुंच चुका है, कोई विशेषज्ञ आज यह बताने की स्थिति में नहीं है कि भविष्य का रूप क्या होगा. तब भी, मानवता के समक्ष इस भीषण संकट के दौर में भी वे अपना काम कर रहे हैं. निजीकरण का अभियान, निजी क्षेत्र को सब कुछ सौंपते जाने का अभियान थमा नहीं है. न सिर्फ निजीकरण, बल्कि निजी क्षेत्र को और अधिक ताकतवर बनाने की बातें भी हो रही हैं.
फीस तय करने की ऑटोनोमी
हिन्दी में ऑटोनोमी को ‘स्वायत्तता’ कहेंगे. लेकिन, स्वायत्तता शब्द में वह अर्थ नहीं झलकता जो ‘मनमानी’ शब्द से झलकता है. ऑटोनोमी का एक अर्थ मनमानी भी हो सकता है, खास तौर पर तब जब बात निजी संस्थानों से जुड़ी हो. निजी क्षेत्र की जितनी मनमानी भारत में चलती है, नियामक तंत्र की जितनी शिथिलता भारत में है, शायद ही दुनिया के किसी और ज़िन्दा देश में हो.
स्वायत्तता के साथ एक शब्द ‘जिम्मेदारी’ भी जुड़ा है, लेकिन मनमानी शब्द के साथ यह नहीं जुड़ता. मनमानी के साथ अगर जिम्मेदारी भी जुड़ी होती तो अधिकतर निजी संस्थानों से यह सवाल किया जाता कि आपके यहां से पास आउट लोगों को बाजार नौकरी के लायक क्यों नहीं मानता ?
जब ‘एसोचैम’ यानी ‘एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एन्ड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया’ ने कुछ साल पहले यह बहुचर्चित वक्तव्य दिया था कि भारत के शिक्षा संस्थानों से पास आउट तकनीकी ग्रेजुएट्स में 75 प्रतिशत नौकरी देने के लायक नहीं हैं तो पहली जिम्मेदारी उन संस्थानों की ही बनती थी कि ऐसा क्यों है ?
खास कर, निजी तकनीकी संस्थानों ने स्वायत्तता के नाम पर मनमानी फीस वसूल की लेकिन अधिकांश की शिक्षा का स्तर नितांत निम्नस्तरीय रहा. अधिकतर तो प्रैक्टिकल आदि भी नहीं कराते थे और पता नहीं कैसे, अच्छे अंकों से अपने छात्रों को पास करते-करवाते गए. लेकिन, जब वास्तविक कसौटी पर उन पास आउट लोगों को कसा गया तो डिग्री की सच्चाई सामने आ गई.
नतीजा, तकनीकी ग्रेजुएट्स की बेरोजगारी के मामले में हमारा देश दुनिया में अव्वल नम्बर पर है. उधर, कंपनियों का रोना अलग रहा कि उन्हें भारत में जरूरत के अनुसार योग्य अभ्यर्थी मिलते ही नहीं. अजीब-सा विरोधाभास है.
सितम यह कि सारी जिम्मेदारी उन छात्रों पर ही डाल दी गई जिनसे डिग्री देने के नाम पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तरीके से लाखों की वसूली की गई. जब नियोक्ताओं ने उन्हें नौकरी के लायक नहीं माना तो उन छात्रों को ही समाज ने डिमोरलाइज किया कि वे ही अयोग्य थे कि वे तकनीकी शिक्षा के लायक ही नहीं थे. कि बाप के पैसे के बल पर उन्होंने डिग्री पाई है.
उन पिताओं के दर्द की तो कोई बात ही नहीं होती जिन्होंने खेत बेच कर या पीएफ से लोन लेकर अपने बच्चों की लाखों की फीस भरी और आज उनके बच्चे पर आरोप है कि वह अपनी डिग्री को जस्टिफाई नहीं करता कि इसलिये उसे डिग्री के अनुसार नौकरी नहीं मिल सकती.
तमाम निजी संस्थान किसी भी जवाबदेही से बचे रहे
असल में, हमारे देश के अधिकतर निजी शिक्षा संस्थान ठगैती के अड्डे हैं जिन्हें नियम-कानूनों का पूरा समर्थन है. इस नई शिक्षा नीति में उसी निजी तंत्र को और ताकतवर बनाया जा रहा है. उन्हें ताकत तो दी जा रही है लेकिन उनकी जिम्मेदारियों पर अधिक बातें नहीं हो रहीं. शिक्षा के विकास में निजी क्षेत्र की भागीदारी के अपने तर्क हो सकते हैं लेकिन ठगैती का कोई तर्क नहीं होता.
आज छात्रों की कमी के कारण जितने निजी मैनेजमेंट या इंजीनियरिंग कॉलेज बंद हो रहे हैं, उनमें से अधिकतर संस्थान वर्षों तक शिक्षा के व्यवसाय के नाम पर पूरे समाज को ब्लफ देते रहे. उन्होंने खुद तो अकूत कमाई की लेकिन मनोरोगी बनने की हद तक बेरोजगारी की त्रासदी झेलते पास आउट लोगों का हुजूम तैयार कर दिया.
आगे जो होगा उसका आकलन करना अधिक कठिन नहीं है. शिक्षा के व्यवसाय का नया दौर दस्तक दे रहा है. सवर्ण और अवर्ण की नई परिभाषाएं विकसित हो रही हैं. सवर्ण वह जो अपने बच्चों की महंगी शिक्षा पर खर्च कर सकता है और अवर्ण वह जो ऐसा नहीं कर सकता.
‘नॉलेज बेस्ड इकोनॉमी’ के इस दौर में जिसके पास नॉलेज होगा, जिसके पास स्किल होगी, वह राज करेगा, बाकी तो यह सामाजिक विभाजन राजाओं और गुलामों के वर्ग को बेहतर तरीके से परिभाषित कर सकेगा. ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ जैसे नारे और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं को बढाने वाली नीतियां. यही हमारी राजनीतिक संस्कृति का सच है.
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