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भारत की विस्तारवादी नीतियां जिम्मेदार है नेपाल-भारत सीमा विवाद में

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भारत की विस्तारवादी नीतियां जिम्मेदार है नेपाल-भारत सीमा विवाद में

नेपाली राष्ट्र के अपमान का प्रतीक इस सुगौली संघी समेत तमाम अपमानजनक संधियों को तत्काल प्रभाव से रद्द कर नेपाल को उसका वास्तविक जमीन जो अंग्रेजों से पहले (सुगौली संधी के पूर्व) का था, वापस कर दिया जाये.

अमेरिकी साम्राज्यवाद और सोवियत संघ के सामाजिक साम्राज्यवाद (1956 के बाद) के बीच पेंडुलम की भांति डोलने वाले भारतीय विस्तारवादी नीतियों के कारण दक्षिण एशियाई मुल्कों के बीच भारत की छवि हमेशा संदेह के घेरे में रही है. परन्तु सोवियत संघ सामाजिक साम्राज्यवाद के पतन के बाद भारतीय विस्तारवादी नीतियां अमेरिकी साम्राज्यवाद का पूंछ बनकर रह गई है, जो दक्षिण ऐशियाई मुल्कों के साथ दादागिरी पर उतारु है.

2014 के बाद देश की सत्ता पर झूठे वादों के साथ काबिज अनपढ़ गुंडों की फौज ने इस दादागिरी को इतना ज्यादा बढ़ा दिया कि अब बकायदा तमाम पड़ोसी मुल्कों से अपना संबंध खराब कर चुका है. आलम यह हो गया है कि हजारों सालों से सबसे भरोसेमंद और निकटतम पड़ोसी मुल्क नेपाल के साथ भी अपना संबंध बिगाड़ लिया है, जिसके साथ घर-आंगन का संबंध था.

लैण्डलॉक्ड देश नेपाल जिसकी सीमा भारत के साथ खुलती है, के साथ देश की सत्ता पर काबिज मोदी सरकार ने बकायदा गुंडों की तरह व्यवहार किया. मोदी सरकार बकायदा नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया. निश्चित तौर पर किसी संप्रभुता सम्पन्न मुल्क के आंतरिक मामलों में अनावश्यक हस्तक्षेप एक आपराधिक मामला है.

नेपाल की अर्थव्यवस्था के अधिकांश लाभदायक हिस्सों पर भारतीय व्यापारियों का नियंत्रण है. जिसका फायदा भारत का विस्तारवादी शासक नेपाल को बंधुआ बनाने में करता है और उसके राजनैतिक नीतियों को अंतरिम तौर पर प्रभावित करने (थोपने) की कोशिश करता है. भारतीय विस्तारवादी शासक के इस रवैये का विरोध नेपाली आवाम अब मुखर तौर पर करने लगी है.

भारतीय विस्तारवादी शासक के इस आपराधिक रवैये का सबसे बड़ा अनुभव तब हुआ जब 2015 में नेपाली संविधान में अनावश्यक हस्तक्षेप हेतु मोदी सरकार ने नेपाल का आर्थिक नाकेबंदी कर दिया था और नेपाल में आवश्यक सामग्रियों की भारी किल्लत हो गई थी. नेपाल में हाहाकार मच गया था, जिस कारण नेपाली आवाम ने संभवतः पहली बार यह महसूस किया कि उसके स्वतंत्र अस्तित्व के लिए भारत पर निर्भरता कम करना होगा. फलतः उसने अपने दूसरे पड़ोसी मुल्क चीन की ओर देखना शुरु किया और चीन ने भी उसे निराश नहीं किया और भरपूर मदद की. फलतः नेपाल ने नेपाली संविधान में आपराधिक भारतीय हस्तक्षेप को नकार दिया.

नेपाल मामले के विशेषज्ञ भारतीय पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं, ‘नेपाल तीन ओर से भारत से घिरा हुआ है. जैसे लैंड लॉक्ड कहते हैं, उस तरह से कहा जा सकता है कि यह इंडिया लॉक्ड है. तीन तरफ़ से यह भारत से घिरा है और एक तरफ़ चीन है. मगर चीन की तरफ़ पहाड़ हैं और मौसम ऐसा है कि नेपाल चीन पर निर्भर नहीं रह सकता.’

‘अगर तीन तरफ से नाकेबंदी होगी तो नेपाल चीन की तरफ ही देखेगा. नाकेबंदी के दौरान यही हुआ था. 20 दिन बाद उसने पेट्रोल लेने के लिए चीन की तरफ हाथ बढ़ाया था. उस समय ओली की सरकार थी और आज भी वह पीएम हैं. सर्दियों के उस मौसम में अगर वे चीन से मदद नहीं मांगते तो भूखों मर जाते. वह चीन के लिए अच्छा अवसर था और उसने खूब मदद की. आज भी चीन मदद कर रहा है.’

दूसरी बार गुंडों की मोदी सरकार ने नेपाल पर आर्थिक हमला तब किया जब उसने 2016 आननफानन में हजार और 500 के नोटों को चलन से बाहर कर दिया और उसके बदले में नये नोट नेपाल सरकार को वापस जारी नहीं किया. नेपाल के केंद्रीय बैंक का कहना है कि उसके पास भारत के तकरीबन आठ करोड़ रुपये मूल्य के पुराने नोट हैं. जिस कारण नेपाल को भारत ने दूसरी बार भरोसे पर प्रहार किया और मजबूरन नेेेपाल सरकार को नेपाल में भारत के नये ‘मोदी’ नोट को गैरकानूनी करार देना पड़ा.

इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि इन भारतीय रुपयों के साथ पकड़ा जाएगा तो उस पर आर्थिक अपराध के तहत मामला दर्ज होगा और गिरफ्तार कर जेल भी भेजा जाएगा. नेपाल में भारतीय नोट लेन-देन के आम चलन के कारण जब ये नोट रद्द किए गए तो न केवल वहां के लोग और अर्थव्यस्था पर बुरा असर पड़ा बल्कि भारत के ऊपर नेपाली भरोसे को भी खत्म कर दिया जो इससे पहले आज तक कभी नहीं हुआ था.

गुंडे मोदी सरकार की यह दो गुण्डागर्दी ने नेपाल में भारत पर भरोसे की नींव हिला दी और स्वभाविक तौर पर नेपाल में भारतीय शासकों के खिलाफ जनमानस बन गया. हालत यह हो गये हैं कि नेपाली प्रधानमंत्री ओली जिसे नेपाल में भारतीय चहेता माना जाता था, वह आज नेपाल में भारत के सबसे मुखर विरोधी बन गए हैं. आज नेपाल में भारतीय समर्थकों को हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है. यह भारतीय विस्तारवादी शासक के विदेश नीतियों पर करारा तमाचा है.

वर्तमान में नेपाल के साथ भारत का सीमा विवाद इसी विस्तारवादी नीतियों का परिणाम है. अविश्वसनीय भारत सरकार जो अपने ही नागरिकों की लाश पर चंद औद्योगिक घरानों की गुलामी कर रहा है भला वह नेपाल का भला कैसे कर या सोच सकता है ? अब जब भारतीय शासक बिना नेपाल को भरोसे में लिए सड़क निर्माण कर दिया है तब स्वभाविक तौर पर नेपाल को सवाल करने का हक है.

बीबीसी अपने हिन्दी पोर्टल पर लिखता है : नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप कुमार ज्ञावली ने ‘द हिन्दू’ को दिए इंटरव्यू में कहा है कि, ‘भारत को कालापानी से सुरक्षा बलों को वापस बुला लेना चाहिए और यथस्थिति से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए. सीमा विवाद का जल्द से जल्द समाधान होना चाहिए. हमलोग चाहते हैं कि भारत सुगौली संधि का सम्मान करे. सबसे अच्छा तो यही होता कि भारत अपने सुरक्षा बलों को वापस बुला लेता और हमारी ज़मीन हमें वापस कर देता. नेपाल के इलाक़े में सड़क बनाने का काम भारत को नहीं करना चाहिए था. अब भी पूरे विवाद को जितनी जल्दी हो सके निपटाने की ज़रूरत है.’

ज्ञावली ने कहा, ‘पिछले साल नवंबर में भारत ने अचानक से राजनीतिक नक्शा जारी कर हमें निराश किया था. यह नक्शा 1997 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री आई के गुजराल के नेपाल दौरे में बनी सहमति के ख़िलाफ़ है. नेपाल हमेशा से कोशिश करता रहा है कि विदेश सचिव के स्तर पर सीमा विवाद पर भारत से बातचीत शुरू हो लेकिन नहीं हो पाई. हमें भारत की तरफ़ से कोई जवाब नहीं मिलता है.’

नेपाल सुगौली संधि के आधार पर लिपुलेख और कालापानी को लेकर दावा करता है. 19वीं सदी की शुरुआत में नेपाली शासकों और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुए समझौते को 21वीं सदी के राजनयिक विवाद में आधारशिला मानना सही है ?इस सवाल के जवाब में नेपाल के विदेश मंत्री ने कहा, ‘ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को हम इस तरह से नहीं देख सकते. ब्रिटिश इंडिया से लड़ाई में नेपाल की हार के बाद ही सुगौली संधि हुई थी. नेपालियों के लिए सुगौली संधि को याद करना किसी गर्व से नहीं जुड़ा है. हम ब्रिटिश इंडिया के साथ लड़ाई में अपना एक तिहाई क्षेत्र हार गए थे. हम उस तथ्य को कैसे भूल जाएं कि एक संधि हुई थी जिसमें सीमा का निर्धारण हुआ था. सर्वे टीम 1981 से इसी आधार पर सीमा तय करती रही है. सुगौली संधि में ही नेपाल और भारत के बीच की सरहद तय हुई.’

नेपाल के विदेश मंत्री ने कहा, ‘नेपाल की विदेश नीति पूरी तरह से स्वतंत्र है. हमारा संबंध भारत और चीन दोनों से है. दोनों को जोड़ना और कोई संबंध खोजना फालतू की बात है. भारत ने पिछले साल नवंबर में एकतरफ़ा फ़ैसला लेते हुआ नया राजनीतिक नक्शा क्यों जारी किया था ? काली नदी के पूरब का इलाक़ा जिनमें कालापानी, लिम्पियुधुरा और लिपुलेख हैं, वो नेपाल के हैं. सुगौली संधि के अनुच्छेद पांंच में यह बात स्पष्ट रूप से कही गई है.’

बीबीसी हिन्दी पोर्टल के अनुसार नेपाल के नए संविधान पर भारत के असंतोष पर नेपाल की ओली सरकार कहती रही है कि यह उसका आंतरिक मामला है. भारत और नेपाल के बीच 1950 में हुए पीस एंड फ्रेंडशिप संधि को लेकर ओली सख़्त रहे हैं. उनका कहना है कि संधि नेपाल के हक़ में नहीं है. इस संधि के ख़िलाफ़ ओली नेपाल के चुनावी अभियानों में भी बोल चुके हैं. ओली चाहते हैं कि भारत के साथ यह संधि ख़त्म हो.

दोनों देशों के बीच सीमा विवाद भी एक बड़ा मुद्दा है. सुस्ता और कलपानी इलाक़े को लेकर दोनों देशों के बीच विवाद है. चार साल पहले दोनों देशों के बीच सुस्ता और कलपानी को लेकर विदेश सचिव के स्तर की बातचीत को लेकर सहमति बनी थी, लेकिन अभी तक एक भी बैठक नहीं हुई है.

वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा बताते हैं कि भारत के शासक वर्ग की औपनिवेशक मानसिकता के कारण ही पड़ोसी देशों से उसके रिश्ते अच्छे नहीं. वह कहते हैं, ‘नेबरहुड पॉलिसी राजीव गांधी के भी समय थी. भारत की नेपाल ही नहीं, पड़ोसी देशों के प्रति भी कुछ ऐसी नीति रही है कि इनके छोटे होने के कारण, छोटी आर्थिक हैसियत होने के कारण वह इन्हें अपनी सैटलाइट कंट्री मानता रहा है. इसी कारण किसी भी पड़ोसी देश के साथ संबंध अच्छे नहीं हैं. ‘अगर कोई यह कहे कि भारत के संबंध भूटान के साथ अच्छे हैं, तो यह भूटान की मजबूरी है. भूटान काफ़ी हद तक भारत की मदद पर निर्भर है, लेकिन वह विरोध नहीं कर पाता. भूटान की जनता इसे महसूस करती है. पिछले चुनाव में उन प्रधानमंत्री को हारना पड़ा, जिन्होंने चीन के प्रधानमंत्री से रियो डी जेनेरो में मुलाकात की थी और भारत नाराज़ था.’

ऐसा कैसे हुआ, इस बारे में आनंद स्वरूप वर्मा दावा करते हैं, ‘चुनाव के समय भारत ने मिट्टी के तेल और गैस पर सब्सिडी रोक दी और संकेत दिया कि इस प्रधानमंत्री को अगर विजय मिली तो आपको ऐसे ही हालात से दो-चार होना होगा. इस कारण जनता ने जानते हुए भी आने वाली मुसीबतों से बचने के लिए झुकना पसंद किया. मैं समझता हूं कि यहां के शासक वर्ग की जो औपनिवेशिक मानसिकता है, इसके पीछे वही काम करती है.’

6 अप्रैल, 2018 को ओली ने नई दिल्ली में एक प्रेस कॉ़न्फ़्रेंस को संबोधित करते हुए कहा था, ‘भारतीय निवेशक दुनिया भर के देशों में निवेश कर रहे हैं, लेकिन अपने पास के ही नेपाल में नहीं करते हैं. आख़िर ऐसा क्यों है ? हम भौगोलिक रूप से पास में हैं, आना-जाना बिल्कुल आसान है, सांस्कृतिक समानता है और ऐसा सब कुछ है जो दोनों देशों को भाता है फिर भी निवेश क्यों नहीं होता ?’

नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमीरे बताते हैं कि आखिर नेपाल में भारत की किस बात को लेकर नाराज़गी है. वह कहते हैं, ‘नेपाल में गरीबी हो सकती है, पिछड़ापन हो सकता है, अशिक्षा हो सकती है लेकिन वह अपनी आजाद बने रहने, किसी का उपनिवेश न बनने की बात पर गर्व करता है. जब कोई उसकी संप्रभुता को कम करके आंकता है तो उसे आक्रोश आता है. खासकर यहां ऐसी धारणा है कि भारत साल 2006 के बाद नेपाल की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप की कोशिश कर रहा है.’

वरिष्ठ पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं कि ज़रूरी है कि पड़ोसी देशों की संप्रभुता का सम्मान किया जाए. भारत कुछ न करे, कम से कम पड़ोसियों, नेपाल की जनता के प्रति सम्मान का प्रदर्शन करे. इसके लिए छोटा सुझाव यह है कि जितने भी चेक पोस्ट हैं भारत और नेपाल के बीच, ऐसी व्यवस्था की जाए कि वहां नेपाली अपमानित न हो. वहां जिस तरह से भारत आने वाले या भारत से जाने वाले पढ़े-लिखे नेपालियों को भी पुलिसकर्मियों द्वारा अपमान का सामना करना पड़ता है, वे उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते.

दूसरी बात यह है कि भारत छोटा देश और बड़ा देश की बात को दिमाग से निकाल दे और हर देश की संप्रभुता को बराबर माने. अगर हम भारत के लोग यह बात दिमाग से निकाल देंगे कि हमारी संप्रभुता नेपाल और भूटान से बड़ी है तो उन देशों की जनता के साथ सद्भावनापूर्ण संबंध स्थापित हो पाएंगे.

जानकारों का मानना है कि भारत अपने पड़ोसी देशों का भरोसा तभी जीत सकता है, जब वह उनसे किए अपने वादों को पूरा करे और उन्हें उसी रूप में स्वीकार करे, जैसे वे हैं – स्वतंत्र और संप्रभु पड़ोसी राष्ट्र. नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार युवराज घिमीरे भी मानते हैं कि आर्थिक नाकेबंदी के बाद से नेपाल को विचार करना पड़ा है कि फिर वैसी नौबत आए तो एक विकल्प होना चाहिए. वह बताते हैं, ‘नाकेबंदी के बाद नेपाल ने कहा कि ट्रेड और ट्रांजिट के लिए सिर्फ भारत पर निर्भर करना मुश्किल है. हमें चीन के साथ भी ट्रेड और ट्रांजिट बढ़ाना चाहिए ताकि दोबारा ऐसे हालात बनने पर वैकल्पिक मार्ग बने. नेपाल की जनता इससे खुश है और उसने ओली सरकार हो या कोई और, इस मुद्दे पर उसका समर्थन किया है.’

भारत और नेपाल के बीच सीमांकन का इतिहास बहुत लंबा है. 1816 में सुगौली संधि के पहले नेपाल किंगडम का विस्तार पश्चिम में सतलज से लेकर पूरब में तीस्ता नदी तक था. एंग्लो-नेपाली युद्ध में नेपाल की हार हुई और इसका अंत सुगौली संधि के साथ हुआ. सुगौली संधि के तहत नेपाल को काली और राप्ती नदी के बीच का पूरा मैदानी इलाक़ा ब्रिटिश इंडिया को सौंपना पड़ा.

स्पष्ट है नेपाल के साथ सीमा विवाद का मसला अंग्रेजों की देन है जिसके कारण अंग्रेजों के साथ नेपाल को अपमानजनक सुगौली संधी करना पड़ा, जिसकी मुखालफत वहां की जनता सदैव करती रही है पर अब जब वहां लोकतांत्रिक सरकार अस्तित्व में आई है तब यह विरोध वाजिब तौर पर पटल पर दीखने लगा है.

भारत के शासक को चाहिए कि नेपाली स्मिता और उसकी संप्रभुता का सम्मान करते हुए जितनी जल्दी हो नेपाली राष्ट्र के अपमान का प्रतीक इस सुगौली संघी समेत तमाम अपमानजनक संधियों को तत्काल प्रभाव से रद्द कर नेपाल को उसका वास्तविक जमीन जो अंग्रेजों से पहले (सुगौली संधी के पूर्व) का था, वापस कर दिया जाये.

समानता और न्याय का सिद्धांत भी यही कहता है कि मित्र राष्ट्र का अपमान कर कोई भी मित्रता दीर्घायु नहीं हो सकती है. नेपाल हमारा न केवल पड़ोसी राष्ट्र है बल्कि हमारा उसके साथ हजारों सालों से बंधुत्व का संबंध रहा है, इसे महज अपने अहंकार के भेंट नहीं चढ़ाया जाना चाहिए.

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ROHIT SHARMA

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