हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
दुनिया के कई देशों की तरह हमारे देश के भी प्राइवेट सेक्टर के अधिकतर बाबुओं के बैंक खाते में अप्रैल के वेतन की राशि नहीं आई है. इसमें कोई बहुत अचरज की बात भी नहीं है. हर निजी उपक्रम इतना समर्थ नहीं कि बिना किसी उत्पादन या आमदनी के अपने स्टाफ को वेतन का भुगतान कर सके.
जो समर्थ उपक्रम हैं, कोई जरूरी नहीं कि उनके मालिकों का दिल भी उतना ही बड़ा हो. यहां तो अपने अंबानी सर तक संकट की शुरुआत में ही लंबा लेट गये और घोषणा कर दी कि ‘मैं खुद वेतन नहीं लूंगा, बाकियों का वेतन भी आधा ही दे पाऊंगा.’
जाहिर है, त्रासदी बड़ी है और भविष्य धुंधला-धुंधला सा है. कोरोना संकट ने बाजार अर्थव्यवस्था की चूलें हिला दी हैं. बड़े-बड़े अर्थशास्त्री भी यह समझ नहीं पा रहे कि पहले से ही मांग के संकट से जूझ रहा बाजार कब तक संभल पाएगा. तो, इस संकट काल में राज्य की भूमिका बनती है.
दुनिया के प्रायः सभी ज़िन्दा देशों में वेतन से वंचित कामगारों के बैंक खातों में राज्य ने राशि जमा की है. कहीं कम तो कहीं ज्यादा. लेकिन, इतना तो जरूर कि इस आपदाकाल में लोगों को कुछ सहारा मिला है.
छोटे बच्चे को नहीं मालूम कि जिस चादर के साथ वह खेल रहा है वह हमेशा के लिए मौत की गहरी नींद सो चुकी माँ का कफ़न है। 4 दिन ट्रेन में भूखे-प्यासे रहने के कारण इस माँ की मौत हो गयी। ट्रेनों में हुई इन मौतों का ज़िम्मेवार कौन? विपक्ष से कड़े सवाल पूछे जाने चाहिए कि नहीं?? pic.twitter.com/pdiaHuS9vf
— Sanjay Yadav (@sanjuydv) May 27, 2020
लेकिन, हमारे भारत महान में वित्त मंत्री बीते कई दिनों से टीवी पर आती रहीं, घंटों-घंटों तक लोगों को बताती रहीं कि उनके बाप-दादों की मेहनत से खड़ी की गई राष्ट्रीय संपत्तियों को बेच डालना कितना जरूरी है, कि अंतरिक्ष अनुसंधान से लेकर आयुध निर्माण आदि के क्षेत्र में निजी पूंजी की भागीदारी बढ़ानी कितनी जरूरी है, कि कम्पनी मालिकों को बिना गारंटी के हजारों करोड़ का लोन देना वक्त का तकाजा है.
वित्त मंत्री के बगल में भाव हीन चेहरा लिये बैठा उनका डेप्युटी मंत्री बीच-बीच में कुछ ऐसे ही राग अलापता रहा और प्रेस कांफ्रेंस खत्म होने के बाद निस्पृह भाव से झोला-कागज समेट कर ओझल होता रहा.
किसी के खाते में कोई राशि नहीं. आप चाहे 5 हजार प्रति माह की नौकरी करते हों या 50 हजार की या फिर दो लाख की, वेतन ही न मिले तो दिमाग की बत्ती गुल होनी ही है.
लेकिन, प्रधानमंत्री ने तो 20 लाख करोड़ रुपये के ‘पैकेज’ की घोषणा की थी. फिर, क्या हुआ ऐसा कि न 5 हजार कमाने वाले के एकाउंट में कोई पैसा गया, न 50 हजार वाले के एकाउंट में ?
सुना, विशेषज्ञ बता रहे थे कि यह तो लोन का पैकेज था. लोन…लोन…और लोन. कम्पनियों को लोन से लेकर ठेले पर मूंगफली बेचने वालों तक को लोन. वह भी इतना अबूझ, आम लोगों के लिये इतना अव्यावहारिक कि सारा कुछ बेवजह का लगता है. उम्मीदों भरी निगाहें टीवी पर जमाए रहे कि मंत्री मैडम के श्रीमुख से कुछ अपने हित की बात भी निकल जाए लेकिन वे तो भविष्य के अर्थशास्त्र की रूपरेखा समझाती रही.
कितनी खोखली थीं हमारे प्रधानमंत्री की बातें, जब वे बोलते थे कि बस, अगले कुछ ही वर्षों में हमारा देश 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बन जाने वाला है.
कितना फ्रॉडिज्म भरा था हमारे मीडिया में, जब वह हमें बताता था कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था आकार में फ्रांस को पीछे छोड़ चुकी है, कि लो जी, अब तो जर्मनी भी हमसे पीछे हो गया. गर्व करो अपने देश पर, गर्व करो अपने नेता पर. हाल के वर्षों में हमें गर्व करने की बहुत प्रैक्टिस करवाई गई है. तरह-तरह के गर्व. लेकिन अफसोस, आज इस घनघोर विपदा काल में वह प्रैक्टिस हमारे कोई काम नहीं आ रही.
आशंकाएं घनीभूत हो रही हैं. बाजार पहले से ही संकट का शिकार था. मांग की कमी थी, क्योंकि बेरोजगारी बीते 45 वर्षों में सबसे अधिक हो गई थी. अब तो खैर, क्या कुछ कहना बेरोजगारी पर, जो इतिहास के तमाम रिकार्ड तोड़ चुकी है.
शहरों से गांवों की ओर बढ़ते काफिले फिलहाल रुकने वाले नहीं. अभी मजदूर श्रेणी के लोग शहरों से भाग रहे हैं. कल बाबू ग्रेड के लोगों का पलायन भी बढ़ेगा. गांव में बिना किराया के सिर पर छत तो रहेगी, खाने-रहने का खर्च तो घटेगा, अपने लोगों का कुछ सहारा तो रहेगा !
यह संकट काल है. यह राजनीति का वक्त नहीं. लेकिन ऐसा कोई काल नहीं होता जब राजनीति नहीं होती और वह राजनीति हमारे जीवन को प्रभावित नहीं करती. तो, आज सोचने का वक्त है. राजनीति के बारे में भी सोचने का वक्त है, राजनीतिज्ञों के बारे में भी सोचने का वक्त है.
यह सोचना जरूरी है कि हमने अपनी कैसी राजनीतिक संस्कृति बनाई जो इस निचले स्तर तक उतर कर कामगार विरोधी है. 20 लाख करोड़ के पैकेज में बेसहारा फील कर रहे करोड़ों कामगारों के लिये क्या निकला ? 5-10 हजार कमाने वाले मजदूरों के लिये क्या निकला ? 50 हजार-1 लाख कमाने वाले बाबू लोगों के लिये क्या निकला ?सोचना जरूरी है. सवाल जरूरी हैं.
अर्थव्यवस्था के मामले में जिस जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन को पीछे छोड़ने की खबरें वायरल कर मीडिया हमें गर्वोन्मत्त करता रहा, आज वही मीडिया हमें बता रहा है कि उन देशों में वेतन से वंचित कामगारों के एकाउंट में सरकारों ने कितनी बड़ी राशि डाली है. और हमारे देश में…? ठन ठन गोपाल.
बाकी, अगर अपने को गरीब मानने के लिये तैयार हो तो झोला लेकर लाइन में लगो. 5 किलो गेहूं या चावल मिल सकता है. अपनी सरकार दिलदार है. उसने राशन कार्ड रहने की शर्त्त खत्म कर दी है फिलहाल. बस, लाइन में लग जाना है.
5 ट्रिलियन का बनने वाला देश, जर्मनी, फ्रांस को पीछे छोड़ने वाला देश, आज अपने लोगों को उनकी असलियत पर छोड़ चुका है.
खोखला करते गए हैं सरकार में बैठे नेता लोग इस देश को. क्या ये पार्टी, क्या वो पार्टी ! 10 लाख करोड़ से अधिक लोन लेकर डकार चुके हैं बड़े लोग. कितने विदेश जा बसे. उन्हीं के लिये फिर से लाखों करोड़ का लोन पैकेज. बिना गारंटी के. अर्थव्यवस्था का तकाजा है जी ! लोन लेंगे तभी तो उत्पादन इकाइयां फिर से खड़ी हो पाएंगी. सरकार में बैठे लोगों को तर्क करना खूब आता है.
लेकिन, वेतन से वंचित, आमदनी से महरूम आम लोगों के लिये कुछ नहीं. कुछ भी नहीं. भाषण…भाषण… सिर्फ भाषण. वैसे, अपने साहब भाषण अच्छा दे लेते हैं. एकदम से मन मोह लेते हैं. पता ही नहीं चलता कि क्या सच बोल रहे हैं, क्या झूठ बोल रहे हैं.
क्या सरकारी, क्या प्राइवेट ! क्या बड़े पोस्ट वाला, क्या छोटे पोस्ट वाला. आजाद भारत में कामगारों के विरुद्ध ऐसी कोई सरकार नहीं आई थी.
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