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मोदी सरकार की नाकाम विदेश नीति

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मोदी सरकार की नाकाम विदेश नीति

पिछले 6 सालों से देश की सत्ता अनपढ़ गंवार अपराधियों के कब्जे में आ गया है. यह अनपढ़ अपराधी देश की तमाम संवैधानिक व्यवस्था में अपने गुंडे बिठा कर उसका उपयोग अपनी जरूरत के हिसाब से कर रहा है. यहां तक कि चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट तक इस गुंडे के हिसाब से बोलता और फैसला सुनाता है.

देश की ही तरह इस गुंडे ने अपने पड़ोसी मुल्कों को अपनी उंगलियों पर नचाना चाहा, और धौंस जमाने के लिए हजारों करोड़ रुपया फूंक कर सारी दुनिया का चक्कर काटता रहा, पर इसका परिणाम यह निकला जिन मुल्कों के साथ हमारा हजारों सालों से घर-आंगन का संबंध था, आज वह भी युद्ध करने की चेतावनी दे रहा है. हम बात नेपाल की कर रहे हैंं. ‘द राइजिंग नेपाल’ न्यूज आउटलेट को दिए एक इंटरव्यू में नेपाल के रक्षा मंत्री ने कहा कि जनरल मनोज नरवणे का कूटनीतिक विवाद में चीन की तरफ इशारा करना निंदनीय है. उन्होंने कहा कि अगर जरूरत पड़ती है तो नेपाली सेना लड़ाई भी करेगी.

नेपाल के रक्षा मंत्री का यह बयान तब आया जब सीमा विवाद के सवाल पर पिछले हफ्ते भारतीय सेना प्रमुख जनरल मनोज मुकुंद नरवाने ने कहा था कि ‘उत्तराखंड में बनी नई सड़क का नेपाल द्वारा विरोध ऐसा मालूम होता है जैसे वो किसी के इशारे पर किया जा रहा हो.’ उनका इशारा स्पष्ट रूप से चीन की तरफ था.

नेपाल के रक्षा मंत्री ने कहा, ‘किसी देश के सेना प्रमुख का राजनीतिक बयानबाजी करना कितना पेशेवर है ? हमारे यहां ऐसा कुछ भी नहीं है. नेपाली सेना ऐसे मुद्दों पर नहीं बोलती. सेना बोलने के लिए नहीं है.’

नेपाल के साथ भारत का हजारों साल का संबंध को युद्ध तक ले जाने जैसी स्थिति तक पहुंचाने में इस नकारे अनपढ़ मोदी को 6 साल भी नहीं लगे. मोदी शासनकाल के शुरुआत से ही तमाम पड़ोसी राष्ट्रों से भारत का संबंध बिगड़ने लगा. भारत के विदेश नीति की असफलता का सटीक विश्लेषण पत्रकार अरुण माहेश्वरी चार वर्षों पूर्व किये थे, यहां प्रस्तुत है, जो सन्मार्ग के 27 अक्टूबर, 2016 के अंक में प्रकाशित हुआ था.

मोदी शासन के ढाई साल को भारत की विदेश नीति के चरम पतन के ढाई साल कहा जाए तो कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

इन्होंने शुरुआत की थी पड़ोस के सभी देशों के शुभाशीष से और आज सारे पड़ोसी भारत को शक की गहरी निगाह से देख रहे हैं. सबसे बुरा नजारा तो देखने को मिला अभी गोवा में, ब्रिक्स की आठवीं बैठक (15-16 अक्टूबर, 2016) में. इसके साथ ही चली बिमस्टेक (द बे ऑफ बंगाल इनिशियेटिव फॉर मल्टी-सेक्टरल टेक्निकल एंड इकोनोमिक कोऑपरेशन) के राष्ट्राध्यक्षों के साथ बैठक पर भी ब्रिक्स की काली छाया पड़ी रही. और, कुल मिलाकर देखने को यह मिला कि ब्रिक्स की बैठक के दो दिन बाद ही नरेंद्र मोदी उत्तराखंड में एक सभा में इसराइल की प्रशंसा करते हुए मिले. इसराइल- यानी अरब दुनिया में अमरीका और पश्चिमी देशों की एक सामरिक चौकी, अपने पड़ोसी राष्ट्रों से पूरी तरह अलग-थलग होने का प्रतीक, मूलत: एक सामरिक राज्य, जनता के एक हिस्से ( फिलिस्तीनियों) के दमन की नाजीवादी सत्ता का एक जीवंत उदाहरण.

जब गोवा में ब्रिक्स की बैठक चल रही थी, उसी समय भाजपा और मोदी सरकार के कुछ मंत्री यहां चीनी सामानों के बहिष्कार का अभियान चला रहे थे. उनका यह अभियान कितना भारतीय अर्थ-व्यवस्था के हित में है या कितना अहित में, यह चर्चा का एक अलग विषय है. तथ्य यह भी है कि चीन से आयात के बढ़ने के साथ-साथ उससे ज्यादा अनुपात में भारत में दूसरे देशों से आयात में कमी आई है. लेकिन, ब्रिक्स की बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने जिस प्रकार से पूरा जोर पाकिस्तान-विरोध पर लगा दिया था, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने उतने ही साफ ढंग से पाकिस्तान के खिलाफ भारत की एक भी दलील को सुनने से इनकार कर दिया. अजहर मसूद पर पाबंदी और पाकिस्तान को आतंकवाद की जननी बताने की मोदी की बात पर उनका दो टूक जवाब था – पाकिस्तान भी आतंकवाद का उतना ही शिकार है, जितना कोई और देश.

और तो और, चीन ने एनएसजी में भारत की सदस्यता के सवाल पर भी उसका साथ देने से इनकार कर दिया. रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने शुरू में ही आतंकवाद पर भारत की चिंताओं के प्रति मौखिक सहानुभूति जाहिर कर सफलता के साथ भारत को अपने हथियारों का एक जखीरा जरूर बेच दिया लेकिन उन्होंने भी न पाकिस्तान के साथ अपने सैनिक अभ्यास को रोकने के बारे में कोई आश्वासन दिया और न ही ब्रिक्स की बैठक से किसी प्रकार का कोई पाकिस्तान-विरोधी बयान जारी करने की भारत की पेशकश का साथ दिया. जहां तक ब्रिक्स के दूसरे सदस्य, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका का सवाल है, उन्हें भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव के प्रकार के क्षेत्रीय सामरिक विषयों में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी.

ब्रिक्स की इस बैठक में एक आंखों को चुभने वाला दृश्य तब देखने को मिला, जब नेपाल के प्रधानमंत्री की चीन के राष्ट्रपति के साथ चल रही बैठक के बीच में बिना किसी पूर्व सूचना के ही नरेंद्र मोदी उपस्थित हो गये. आज मोदीजी की भूल से इस प्रकार उनके कमरे में पहुंच जाने पर भारत की ओर से कुछ भी सफाई क्यों न दी जाए, लेकिन कयास लगाने वालों को इसमें नेपाल के प्रति भारत सरकार की आशंकाओं की झलक देखने से कौन रोक सकता है ! जो चीन एक समय में कश्मीर जैसे सवाल पर अमरीकी दबावों के सामने किसी न किसी रूप में भारत के साथ खड़ा रहता था, वही आज जैसे किसी भी सवाल पर भारतीय पक्ष का साथ देने के लिये तैयार नहीं है. और, नेपाल से तो मोदी ने अपने संबंध जिस प्रकार बिगाड़े हैं, उसे देखते हुए म्यांमार और बांग्लादेश के भी कान खड़े हो गये हैं और वे किसी भी विषय में अकेले भारत के भरोसे चलने को तैयार नहीं है. ये दोनों देश भी चीन के साथ गहरे संबंध तैयार करने में जुटे हुए हैं.

म्यांमार की नेता आंग सान सू की ने भारत को साफ शब्दों में कहा है कि ‘पिछले साल की 29 सितंबर को भारत की सेना ने म्यांमार की सीमा में घुस कर जो कार्रवाई की, उसे वह कभी स्वीकार नहीं करेंगी.’ इस प्रकार भारत सरकार को उन्होंने यह शिक्षा दी है कि वह दूसरे देशों की सार्वभौमिकता का सम्मान करना सीखे, और प्रकारांतर से पाकिस्तान में भारत की कथित सर्जिकल स्ट्राइक की निंदा भी कर दी है. उन्होंने नरेंद्र मोदी को दो टूक शब्दों में कहा कि वे आतंकवाद के खिलाफ हैं, लेकिन इसके लिए किसी एक देश या संगठन का नाम लेकर उन्हें दोषी घोषित करने के लिए तैयार नहीं हैं. इस प्रकार भारत की दोस्त सू की ने भी वही रुख अपना लिया, जो चीन के राष्ट्रपति का था.

अब भी क्या कोई यह दावा करेगा कि भारत सरकार ने पाकिस्तान को दुनिया के देशों के बीच अलग-थलग कर दिया है ? तथ्य तो इसके बिल्कुल विपरीत बात कह रहे हैं.

भारत की यह अलग-थलग दशा, सचमुच दक्षिण एशिया के इस क्षेत्र में क्रमश: वैसी ही होती जा रही है, जैसी कि अरब दुनिया में इसराइल की है. जब से बराक ओबामा ने मोदीजी को अपनी पीठ पर हाथ रखने की अनुमति दी और उनके हाथ की बनाई चाय पी ली, मोदीजी स्वयं को इस क्षेत्र में शायद इसराइल की तरह ही दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति का दूत मानने लगे हैं जबकि, यह भी उनका कोरा भ्रम ही है.

अमरीका यह जानता है कि इस पूरे क्षेत्र में यदि किसी के जरिये उसे इसराइल की तरह की भूमिका अदा करवानी है तो वह भारत कभी नहीं हो सकता, इसके लिए पाकिस्तान या वैसा ही कोई दूसरा छोटा देश उसके काम आयेगा. इसलिए, भले नरेंद्र मोदी अपने अंदर आरएसएस के दिये संस्कारों के कारण, इसराइल बनने का सपना पाले हुए हों, लेकिन इसराइल बनने के लिए उन्हें जिन पश्चिमी देशों की गुलामी स्वीकारनी होगी, उनकी अभी यह तैयारी ही नहीं है कि वे भारत की तरह के एक विशाल और असंख्य समस्याओं से भरे देश को अपने गुमाश्तों की कतार में शामिल करें. इतिहास की आधी-अधूरी समझ के कारण आरएसएस वालों ने इसराइल को इस्लाम का दुश्मन समझ रखा है और इसलिए वे इसराइल-वंदना में लगे रहते हैं. लेकिन, यहूदी धर्म और इस्लाम के बीच के संबंधों की उन्हें जरा भी जानकारी होती तो वे इसराइल की मौजूदा स्थिति के सच को ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते थे. इसराइल पूरे अरब विश्व में साम्राज्यवादियों की सामरिक रणनीति की एक अग्रिम चौकी है, इसलिए अरब दुनिया उसे पश्चिमी प्रभुत्व के प्रतीक के तौर पर देखती है, उससे दूरी रखती है.

इस प्रकार कहा जा सकता है, एक क्षेत्रीय आक्रामक शक्ति बनने की मोदी सरकार की बदहवासी ने भारत की विदेश नीति को पूरी तरह से दिशाहीन बना कर छोड़ दिया है. पिछली सरकारें विदेश नीति के प्रत्येक महत्वपूर्ण विषय पर देश के विपक्षी दलों के नेताओं का सहयोग लेती रही है, इसके कई उदाहरण मौजूद हैं. लेकिन इस सरकार ने तो विपक्ष के साथ राष्ट्रीय महत्व के किसी भी गंभीर विषय पर संवाद का कोई रिश्ता नहीं रखा है. यह आगे तमाम मोर्चों पर इसकी नीतियों के और भी पतन का कारण बनेगा. विदेश नीति तो सचमुच गर्त में जा चुकी है.

अरुण माहेश्वरी का लेख यहां समाप्त होता है लेकिन जो तथ्य उन्होंने प्रस्तुत किया है, उसका वटवृक्ष इतनी जल्दी फलित होकर युद्ध का आकार ग्रहण कर लेगा, किसी ने सोचा भी नहीं होगा. विश्व गुरु बनने की सनक में देश एक अनपढ मूर्ख गुंडे के हाथ में सौंपकर देश की अन्तर्राष्ट्रीय साख पर किस कदर हमला हुआ है, इसका गंभीर खामियाजा देश दशकों तक भुगतता रहेगा.

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