हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
नरेंद्र मोदी की जो कार्यशैली है, उसमें उम्मीद नहीं कि वे रघुराम राजन और काटजू की सलाहों को मानेंगे. वरना, सबसे पहले निर्मला सीतारमण को वित्त मंत्रालय से मुक्त किये जाने की जरूरत है, जो पीएमओ की प्रवक्ता मात्र की हैसियत में लगती हैं.
विश्वग्राम में तब्दील होती दुनिया में ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बातें करना एक ऐसी अबूझ पहेली है, जिसमें देश के लोग उलझे हुए हैं, लेकिन समझ कोई नहीं पा रहा कि यह कैसा होगा. इस तरह की शब्दावलियों से देश को भ्रांत करने की नरेंद्र मोदी की पुरानी अदा रही है और बढ़ते कोविड संकट में इस शब्द को उछाल कर एक बार फिर उन्होंने यही किया है.
जिसको जैसे मन है वह उस तरह इस शब्द को परिभाषित कर सकता है लेकिन, ठिकाने से कोई नहीं बता सकता कि इसका मतलब आखिर क्या होगा. वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद ने दुनिया के देशों को जिस तरीके से एक दूसरे पर निर्भर किया है, उसमें ऐसी शब्दावलियों के प्रयोग सिर्फ भ्रम ही उत्पन्न करते हैं.
सरकार के प्रवक्ता हमें बता रहे हैं कि ’20-21 लाख करोड़ का यह तथाकथित राहत पैकेज ‘आत्मनिर्भर भारत’ की ओर बढाया गया एक महत्वपूर्ण कदम है.’ ऐसा वक्तव्य उनके जले पर नमक छिड़कने जैसा है जो इस विपदा काल में अपनी नौकरी, अपनी आमदनी गंवा चुके हैं लेकिन सरकारी राहत पैकेज से उनके लिये एक फूटी कौड़ी नहीं निकल पा रही है.
जब आज भूख लगी हो, जब आज बेहद जरूरी कामों के लिये जेब में पैसे नहीं हों और निकट भविष्य में आने की संभावना भी नहीं हो, तब तात्कालिक राहत के बजाय भविष्य के स्वप्न दिखाना, ज़हालत झेल रहे लोगों का मजाक उड़ाना है.
जैसे-जैसे संकट गहराता जा रहा है, इससे निपटने की सरकार की क्षमता पर विशेषज्ञों का संदेह बढ़ता जा रहा है. जाहिर है, यह सिर्फ सरकार का संकट नहीं है बल्कि देश का संकट है और पूरे देश को एकजुट होकर इसका मुकाबला करना होगा. विफलता कोई विकल्प नहीं है.
रघुराम राजन ने सलाह दी है कि विशेषज्ञता के अलग-अलग क्षेत्रों की प्रतिभाओं का सहयोग सरकार को लेना चाहिये, उन्हें सिस्टम में शामिल करना चाहिये. पूर्व न्यायमूर्त्ति काटजू सहित कुछ अन्य लोगों ने भी इसी से मिलती जुलती सलाह दी है. हालांकि, नरेंद्र मोदी की जो कार्यशैली है, उसमें उम्मीद नहीं कि वे इन सलाहों को मानेंगे. वरना, सबसे पहले निर्मला सीतारमण को वित्त मंत्रालय से मुक्त किये जाने की जरूरत है, जो पीएमओ की प्रवक्ता मात्र की हैसियत में लगती हैं.
लोकतंत्र में घनघोर विपदा काल में ‘सर्वदलीय सरकार’ की अवधारणा भी रही है..अगर ऐसा कुछ हो सकता है तो यही अवसर है जब इस पर मोदी जी को कदम आगे बढाने चाहिये. इससे उनकी साख ही बढ़ेगी और इतिहास उनकी प्रशंसा करेगा. यह अंतरराष्ट्रीय चर्चा का विषय रहा है कि नरेंद्र मोदी स्वयं तो ऊर्जा से भरे लोकप्रिय नेता हैं लेकिन उनकी टीम में प्रतिभाओं का अभाव है.
यह वक्त है कि इस अभाव से मोदी जी को जूझना चाहिये. पार्टी लाइन से परे जाकर उन्हें अपनी टीम में ऐसे लोगों को शामिल करना चाहिये, जो अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हों, जो इस संकट से निपटने में प्रधानमंत्री का सार्थक सहयोग करने की क्षमता रखते हों.
अवसर, लोकल, स्वदेशी, आत्मनिर्भर … आदि जैसे शब्दों को उछालने मात्र से समर्थकों और विरोधियों को व्हाट्सएप जोक शेयर करने या एक दूसरे पर दोषारोपण करने से अधिक कुछ हासिल नहीं हो सकता. विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि आर्थिक अराजकताओं की सुनामी देश को घेर रही है, भयानक मंदी के बादल सघन हो रहे हैं, आधुनिक दौर की सबसे भयंकर बेरोजगारी से देश का सामना होना है. चुनौतियों से भरे इस समय में नेतृत्व की ही परीक्षा पहले होगी, जो हो रही है और मोदी जी कोई अच्छे अंक नहीं ला पा रहे.
दुनिया की शीर्ष इन्वेस्टमेंट संस्था गोल्डमैन सैक्स ने साफ साफ कहा है कि ‘भारत सरकार द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ का राहत पैकेज देश की जीडीपी का 10 प्रतिशत नहीं, बल्कि, इसमें वास्तविक राहत का सही आंंकलन किया जाए तो यह जीडीपी के 0.7 से 1.3 प्रतिशत के बीच ही ठहरता है.’ संस्था का कहना है कि ‘यह भारत की परिस्थितियों को देखते हुए अत्यंत निराशाजनक और आर्थिक मंदी को बढाने वाला है.’
यह आंकड़ों की बाजीगरी और शब्दों से खेलने का वक्त नहीं है. जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन चेतावनी दे रहा है, कोरोना अब गरीब देशों में पैर पसार रहा है और भारत इसका अगला सेंटर बनने वाला है. जाहिर है, देश को, इसके नेतृत्व को संजीदा होना ही होगा.
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