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अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए का देशी एजेंट है आरएसएस और मोदी

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अमेरिकी जासूसी एजेंसी सीआईए का देशी एजेंट है आरएसएस और मोदी

आजादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश सरकार का जासूसी संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय समाज की एकता को लगातार छिन्न भिन्न करने की कोशिश करता रहा. उसने अपनी इस कोशिश में भगत सिंह, आजाद समेत हजारों क्रांतिकारियों को मौत के घाट उतारने या जेलों में बंद करने में ब्रिटिश हुकूमत की पूरजोर मदद की. परन्तु, आजादी की उफनते जोश के बीच संघी कारकूनों की करामतें ज्यादा रंग नहीं ला पाई, फलतः ‘आजादी’ के ठीक बाद ब्रिटिश सरकार के विरोध का प्रतीक महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी.

महात्मा गांधी की हत्या के बाद बैकफुट पर आई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने काम करने का तरीकों में थोड़ा बदलाव लाया और दुश्प्रचार और फर्जी इतिहास गढ़ कर देश के भीतर अपनी स्वीकार्यता बनाने लगा. यूं भी द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात कमजोर हो चुके ब्रिटिश शासन की जगह अमरीका ने ले लिया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के शरण में चला गया और संघी एजेंडा – दुश्प्रचार और फर्जी इतिहास – देश में फैलाने लगा, और इसके निशाने पर थे आजादी की लड़ाई के दौर के वे तमाम क्रांतिकारी और प्रगतिशील ताकतें, जिसमें खासतौर पर था महात्मा गांधी की हत्या के बाद भी उनकी बेमिसाल लोकप्रियता को खत्म करना और कांग्रेस के वारिस नेहरू और उनके वंश को निशाना बनाना.

समाज के अशिक्षित और राजनैतिक तौर पर कमजोर तबकों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दुश्प्रचार और फर्जी इतिहास ज्यों ज्यों जड़ जमाता गया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पैठ गहरी होती गई. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इसी पैठ का नतीजा था एक एक कर नेहरू वंश की हत्यायें. संजय गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की हत्यायें होती चली गईं और अब सीआईए एजेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेहरू वंश के वर्तमान प्रतिनिधि राहुल गांधी की हत्या का प्रयास कर रहा है और इसकी अपने विभिन्न अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से घोषणा भी कर दिया है.

विदित हो कि इंदिरा गांधी पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटने के बाद बांग्लादेश के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिस कारण वह सीधे तौर पर अमेरिकी निशाने पर आ गई थी. इस बात से भी कोई इंकार नहीं किया जा सकता है कि इंदिरा गांधी की हत्या में सीआईए और उसका भारतीय प्रतिनिधि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रत्यक्ष हाथ था और राजीव गांधी की हत्या में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रत्यक्ष भागीदारी थी. वरिष्ठ पत्रकार राजीव मित्तल अपने सोशल मीडिया पेज पर ‘राजीव गांधी का जाना..लेकिन क्यों’ शीर्षक में इन तथ्यों की बड़ी ही बारीक पड़ताल की है, जो यहां प्रस्तुत है.

नवभारत टाइम्स में रहते की तो याद नहीं कि राजीव गांधी को अक्षम मान लिया हो. हालांकि 1986 में वीपी सिंह ने वित्तमंत्री पद से हटा कर रक्षामंत्री बनाये जाने का बदला निकालना शुरू कर दिया था. और राजीव गांधी के सबसे कमजोर पक्ष अमिताभ बच्चन और उनके भाई अजिताभ को निशाना बनाते हुए बोफर्स में कमीशन खाने का मुद्दा उछाल दिया था.

वीपी सिंह के राजीव के खिलाफ उछाले गए इस मुद्दे को आरएसएस और रामनाथ गोयनका ने तेजी से अपनी मुट्ठी में दबाया और अभियान छेड़ दिया. वीपी ने कांंग्रेस छोड़ दी और मसीहाई अंदाज़ में जनमोर्चा टाइप मंच पर बैठ भजन कीर्तन करने लगे (23 साल बाद अन्ना हजारे ने बिल्कुल वीपी सिंह के नक्शेकदम पर चलते हुए मनमोहन सरकार को निशाना बनाया था, तो समझ सकते हैं कि खेल के तरीके कितने पुराने हैं और कांग्रेस ने सबक लेना नहीं सीखा).

नवभारत टाइम्स छोड़ कर जनसत्ता चंडीगढ़ जब पहुंचा तो देखा गोयनका के दोनों पालतू अरुण शौरी और प्रभाष जोशी की तोपें राजीव गांधी पर गोले दाग रही हैं और वीपी सिंह संघियों के साथ ‘हय्या हो हय्या हो’ कर रहे हैं. कुछ दिन बाद वामपंथी भी शामिल हो गए और वीपी सिंह दोनों की गोद में खेलने लगे.

अब रुकिए, यहां से एक तार 1974 के जेपी के बिहार आंदोलन से भी जुड़ा है. तब भी उस आंदोलन का संचालन इंडियन एक्सप्रेस और रामनाथ गोयनका कर रहे थे और बम्बई का एक्सप्रेस टॉवर और दिल्ली का राजघाट, ये दोनों जेपी और गोयनका की रणनीतिक स्थली बने हुए थे. बाद में जब जेपी के कीन्स के पूर्ण रोजगार के सिद्धांत टाइप वाले काल्पनिक सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन से जब राजनीतिक दल जुड़ने लगे तो गोयनका संघ और जनसंघ को पूरे उत्साह के साथ जेपी से जोड़ने में जुट गए. और फिर संघ जेपी के इतना नज़दीक पहुंच गया कि जेपी खुले आम अपने को संघी कहने में कतई नहीं हिचकते थे.

अब इस खेल को समझने को थोड़ा और पीछे चलिए. 1971 के युद्ध में इंदिरा गांधी ने जिस तरह अमेरिकी राष्ट्र्पति निक्सन और उनके सलाहकार किसिंजर को उनकी औकात दिखाई और पाकिस्तान को तोड़ कर बांग्लादेश बनवाया, तो अमेरिका को इंदिरा गांधी को खत्म करने के लिए सीआईए को तो उतारना ही उतारना था. इधर किसिंजर चूंकि अमेरिका की हमेशा से सबसे मजबूत रही यहूदी लॉबी के नुमाइंदे थे तो उन्हें भारत में संघ का संगठन मिल गया और बरसों से दिल में नेहरू-गांधी परिवार को लेकर ज़हर का पोषण कर रहे रामनाथ गोयनका की मार्फत संत नेता जयप्रकाश नारायण को मैदान में उतारने लायक मुद्दे तलाश लिए गए.

कुल मिलाकर देवी दुर्गा की तरह पुजती आ रहीं इंदिरा गांधी 1975 के शुरुआती महीनों में भारत माता की सबसे बड़ी दुश्मन के रूप में स्थापित कर दी गयीं. घटनाक्रम बहुत तेजी से बदला. इंदिरा गांधी ने अपने छोटे बेटे के कहने पर कोर्ट के आदेश को किनारे कर उसी साल जून में देश में इमरजेंसी लगा दी. अब यहां फिर देखिए कि एक महीने बाद ही बांग्लादेश के निर्माता शेख अब्दुल्ला, उनके परिवार और उनके मंत्रिमंडल के कई सारे सदस्यों का खून कर दिया और यह क़त्लेआम बांग्लादेश में कई महीनों चला. इसके पीछे सौ फीसदी सीआईए का हाथ था. शेख मुजीब की हत्या इंदिरा गांधी की बड़ी विफलताओं में गिनी जाती है. थी भी उन पर बहुत बड़ी चोट.

कुल मिलाकर गोयनका और संघ के कई खेलों में 1977 में कई दलों की चर्बी से बनी जनता पार्टी की सरकार बनना भी एक बहुत खेल था. चूंकि संघ को अभी देश में वो मान्यता नहीं मिली थी, इसलिए गोयनका अटल को तो नहीं, लेकिन उनसे भी ज़्यादा घातक इंसान मोरार जी देसाई को संघ की मदद से जगजीवन राम को किनारे कर प्रधानमंत्री बनवाने में सफल हुए, जबकि पूरा संसदीय दल उनके विरोध में था लेकिन धुर दक्षिणपंथी जेबी कृपलानी के जरिये जेपी को तैयार किया गया और उस समय जेपी की बात काटने का सवाल ही नहीं उठता था. उस समय चौधरी चरण सिंह भी जगजीवन राम को न बनवाने के लिए अड़ गए. मतलब कि पूरी जनता पार्टी की मति मारी गई थी जो मोरार जी को प्रधानमंत्री बनवा दिया.

मधु दण्डवते और मधु लिमये जैसे कुछ समाजवादी नेताओं के अलावा पूरा मंत्रिमंडल सीआईए के इशारों पर काम कर रहा था. तभी विदेश मंत्रालय अटल को और सूचना मंत्रालय आडवाणी को मिल गए, यानी संघ के हवाले हो गए दूर तक और देर तक असर डालने वाले दो विभाग. उसके बाद नौटंकियों का अंबार लग गया. फिर तो जनता पार्टी की सरकार का चरमरा कर गिरना, इंदिरा गांधी का सत्ता में आना और फिर सीआईए का सक्रिय होना, पंजाब में आतंकवाद को बढ़ावा और स्वर्णमंदिर में सैन्य कार्रवाई के फलस्वरूप इंदिरा गांंधी की हत्या वगैरह क्या मारियो पूजो के उपन्यास ‘गॉड फादर’ की याद नहीं दिलाते, जिसमें डॉन वीटो कारलोन के जमाई की मदद से डॉन के ही बड़े बेटे सोनी की हत्या करवाने का बृहद मंच तैयार किया जाता है, मात्र एक वेश्या के फोन जरिये !

अब फिर 1987 के दिनों में लौटा जाए. अब तक सबसे बड़ा बहुमत पाकर सरकार बनाने वाले राजीव गांधी किस हश्र को प्राप्त हुए और किस तरह यहां वीपी सिंह के अलावा राजीव गांधी को बरबाद किया गया खुद उनके कज़िन अरुण नेहरू के हाथों, इसे जानते हैं.

वीपी के हटते ही राजीव गांधी का सारा विश्वास अरुण नेहरु पर हो गया था, लेकिन अरुण नेहरु खेल गए संघ के हाथों में, और उन्होंने ही राजीव गांधी से शाहबानो जैसे दो कौड़ी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बदलवा दिया और तब आरिफ मोहम्मद खान जैसे छुटभैये महान क्रांतिकारी बन गए. और दूसरे गृहमंत्री रहते अरुण नेहरु ने राजीव को फंसा कर राम मंदिर का ताला खुलवा कर कब से बंद पड़ा संघ का और संघी पत्रकारों का कारोबार खड़ा कर दिया, यानी इस बार अरुण नेहरु ने वही खेल खेला गॉड फादर के जमाई वाला.

गोयनका और देवीलाल जैसे कद्दावर नेता की मेहनत से 1989 के चुनाव में वीपी सिंह मैदान में ताल ठोंकने लायक सीटें पा गए और फिर वीपी सिंह को मिल गयीं संघ और वामपंथियों की बैसाखी. मुराद पूरी हुई राजा साहब की, बन गए एक वर्षीय प्रधानमंत्री लेकिन प्रधानमंत्री बने थे देवीलाल की बदौलत, तो दोनों शातिरों में ज़्यादा दिन नहीं निभी. तब दूसरा ठाकुर तैयार बैठा था चन्द्रशेखर, जिन्हें कांग्रेस का पौन वर्षीय समर्थन मिला.

फिर आ गए 1991 के चुनाव. चंद्रशेखर ने खुन्नस में कार्यकारी प्रधानमंत्री की हैसियत से राजीव गांधी को मिली सुरक्षा वापस ले ली. तो उसी टूटी-फूटी सुरक्षा और सुरक्षा एजेंसियों की विफलता के चलते राजीव गांंधी तमिल उग्रवादियों का बेहद सुलभ टारगेट बन गए. लिट्टे के मन में 1987 का शांतिसेना वाला विष तो भरा ही था. एक तरह से राजीव ने अपनी मौत की तैयारी चार साल पहले ही कर ली थी.

कहांं की बोफर्स रिश्वत ! कहांं का वीपी सिंह का मसीहाई अंदाज़ !! कहांं के मीडिया टायकून गोयनका !!! सब सुसरे फर्जी साबित हुए. जब राजीव गांंधी की मौत के बाद प्रभाष जोशी चंडीगढ़ आये और जनसत्ता वालों को होटल में दावत दी तो उससे पहले छोटा सा प्रवचन भी दिया कि राजीव गांधी नहीं रहे, रामनाथ गोयनका भी चले गए तो भाई अपन लोग अब विरोध की पत्रकारिता नहीं करेंगे. पॉज़िटिव काम करेंगे तो दिल में आया कि … छोड़िए अब क्या कहूंं !

अमेरिकी जासूसी ऐजेंसी सीआईए के मंजे हुए भारतीय एजेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का असली चेहरा अब उजागर हुआ जब उसके एक गुर्गे नरेन्द्र मोदी देश की सत्ता पर हजारों झूठे वादों के संग काबिज हो गया और सरकारी तंत्रों, न्यायपालिका का सहारा लेकर देश के तमाम मजदूरों, किसानों और प्रगतिशील ताकतों को एक एक कर निशाना बनाना शुरू कर दिया, जो हम आये दिन अपने आस पास रोज देख रहे हैं.

इसके साथ ही हमें इस तथ्य पर भी ध्यान देना होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा सीआईए का ही वफादार कुत्ता बनकर रहेगा, ऐसा नहीं है. असल में रीढ़विहीन यह फासीवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आदर्श हिटलर और उससे भी बढ़कर देश में ब्राह्मणवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहता है, जिसका जिक्र मनुस्मृति करता है.

अगर हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इतिहास को गौर से देंखे तो साफ पता चलता है कि यह अपनी ताकत पाने के लिए किसी का भी साथ ले सकता है, और फिर ज्यों ही ताकत हासिल कर लेगा, उसे लात मार कर बाहर निकाल देगा. देर सवेर अमेरिका के भी साथ यह वही करने वाला है, बस अमेरिका को थोड़ा कमजोर हो जाने का इंतजार कर लीजिए.

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