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आत्मनिर्भरता : ‘साहसिक आर्थिक सुधार’ यानी निजीकरण की आंधी

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आत्मनिर्भरता : ‘साहसिक आर्थिक सुधार’ यानी निजीकरण की आंधी

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

कुछ शब्द फ़िज़ाओं में तैर रहे हैं आजकल, – आत्मनिर्भरता, अवसर, लोकल, वोकल, स्वदेशी आदि. राष्ट्र के नाम संदेश में इन शब्दों को उछाल कर प्रधानमंत्री ने कोरोना से त्रस्त माहौल को एक नई गर्माहट दी है.

जाहिर है, लंबे लॉक डाउन से एकरस हो चुके समाज में विमर्शों की कुछ बंद खिड़कियां फिर खुली हैं हालांकि, एक और शब्द, जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री ने अंग्रेजी में किया था, उसकी बहुत अधिक चर्चा नहीं हुई. वह था – ‘बोल्ड रिफॉर्म्स.’

‘अवसर’ शब्द के साथ इस अंग्रेजी शब्द को जोड़ कर प्रधानमंत्री ने राष्ट्र को जो संदेश दिया, उस पर सबसे अधिक गौर करने की जरूरत है.

यानी, प्रधानमंत्री के अनुसार, कोरोना त्रासदी ने अवसर दिया है कि देश की अर्थव्यवस्था में ‘बोल्ड रिफॉर्म्स’ किये जाएं. हालांकि, कोई यह नहीं बता रहा कि इन बोल्ड यानी कि साहसिक सुधारों के लिये कोरोना का नाम क्यों घसीटा जाए ?

कोरोना ने ऐसा क्या संदेश दिया कि बुरी तरह प्रभावित तबकों को तात्कालिक राहत देने के बजाय बीच संकट में हमें हवाई अड्डों, कोयला खदानों, आयुध निर्माण कंपनियों, अंतरिक्ष अनुसंधान आदि के क्षेत्र में निजी पूंजी के निवेश को गति देने की जरूरत महसूस होने लगी ?

यह महज संयोग नहीं है कि जिस दिन प्रधानमंत्री राष्ट्र को समझा रहे थे कि यही अवसर है, हमें साहसिक आर्थिक सुधारों की ओर कदम बढाने होंगे, ठीक उसी दिन के ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने एक आलेख लिखा, जिसमें उन्होंने इन शब्दों का प्रयोग किया, ‘इट्स नाव ऑर नेवर, वी विल नेवर गेट दिस अपॉरचुनिटी अगेन, सीज इट.’

आलेख में अमिताभ कांत प्रधानमंत्री के सुर में सुर मिला कर देश को समझा रहे थे कि अभी नहीं तो कभी नहीं, कोरोना ने हमें आर्थिक सुधारों की गति तेज करने का जो अवसर दिया है, उसे हमें चूकना नहीं है.

आलेख में नीति आयोग के सीईओ ने कुछ राज्य सरकारों द्वारा श्रम कानूनों को सस्पेंड किये जाने को ‘बोल्डेस्ट एन्ड ब्रेवेस्ट’ कदमों की संज्ञा दी और इसके पक्ष में तर्कों की बौछार कर दी.

गौर करें इन शब्दों पर ‘बोल्डेस्ट एन्ड ब्रेवेस्ट’, और आकलन करें अमिताभ कांत की उस मानसिकता का, जो श्रमिक अधिकारों के प्रति उन्होंने व्यक्त की है. उनके शब्द इसलिये महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे उस नीति आयोग के सीईओ हैं, जिस पर देश के नीति निर्धारण का दायित्व है.

अपने आलेख में उन्होंने कोरोना संकट को बोल्ड आर्थिक सुधारों का ‘अवसर’ बताते हुए श्रम कानून, कृषि, जन वितरण प्रणाली आदि की तो विशद चर्चा की, लेकिन आश्चर्य है कि भारत की चिकित्सा प्रणाली पर एक शब्द भी नहीं कहा.

अगर कोरोना संकट ने अवसर दिया है तो पहला सबक तो यही है कि देश की चिकित्सा प्रणाली में आमूल चूल सुधारों की बात की जाए. इन सुधारों की दिशा क्या होगी, कैसे इसे सार्वजनिक तंत्र के रूप में सशक्त बनाया जाए ताकि पंक्ति के अंतिम आदमी तक इसके लाभ पहुंचें, इस पर चर्चा होनी चाहिये. लेकिन, न नीति आयोग का सीईओ इस पर एक शब्द बोलता है, न लगातार प्रेस कांफ्रेंस कर रहीं वित्त मंत्री इस पर बोलती हैं, न नीति निर्धारकों में कोई और इस पर कुछ बोल रहा है.

इसके बदले में, हमें बताया जा रहा है कि अन्य विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्रों में देशी/विदेशी निजी पूंजी के प्रवेश का अनुपात बढाना क्यों जरूरी है, कि इस प्रक्रिया में तेजी लाना क्यों जरूरी है ?

अमिताभ कांत तो कई कदम आगे बढ़ कर यह तक कहते हैं कि महज तीन साल के लिये श्रम कानूनों को सस्पेंड किये जाने से कंपनियां सशंकित हैं. उनका सुझाव है कि इन कानूनों को हमेशा के लिये दफन कर देना चाहिये ताकि निजी पूंजी उत्साह और आत्मविश्वास के साथ देश के विकास में भागीदारी दे सके.

‘देश’…, पता नहीं अमिताभ कांत जैसों के दिमाग में देश की क्या परिभाषा है और देश के 40 करोड़ श्रमिकों को वे आदमी मानते भी हैं या नहीं. बहरहाल, सरकार को बताना चाहिये कि कोरोना ने कौन सा संदेश दिया है कि निजीकरण की गति को अति तीव्र किया जाना बहुत जरूरी हो गया है ?

यह भी बताना चाहिये कि कोरोना ने देश के स्वास्थ्य तंत्र के संदर्भ में कौन सा संदेश दिया है ? यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि नीति आयोग के सीईओ सार्वजनिक मंचों पर ‘एलिमेंटरी एडुकेशन’ के साथ ही ‘हेल्थ सेक्टर’ के ‘कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन’ की बात करते रहे हैं. देश के तमाम सरकारी जिला अस्पतालों में निजी पूंजी के प्रवेश के तरीके तय करने पर नीति आयोग अरसे से काम कर रहा है.

आज कोरोना ने अवसर दिया है कि प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और नीति आयोग देश को बताएं कि हेल्थ सेक्टर के प्राइवेटाइजेशन पर वे क्या सोचते हैं ? इस अवसर पर इससे बड़ा कोई सवाल हो सकता है क्या…?

कोरोना ने नीति आयोग की स्वास्थ्य नीतियों का सत्य से साक्षात्कार करवाया है. आयोग को बताना चाहिये कि भविष्य में देश के हेल्थ सेक्टर का रोड मैप क्या होगा ? लेकिन, वह इन सवालों से बच कर हमें कुछ और बता रहा है.

आज, जब पूरा देश महामारी और लॉक डाउन की त्रासदी से मनोवैज्ञानिक रूप से त्रस्त है, लोगों का इकट्ठा होना, किसी भी तरह का धरना-प्रदर्शन गैर कानूनी है, कामगार वर्ग तितर-बितर है तो हमें बताया जाता है कि देश के विकास के लिये श्रम कानून सस्पेंड होने जरूरी हैं, और अधिक संख्या में हवाई अड्डों का निजीकरण जरूरी है, सरकारी आयुध कंपनियों का निगमीकरण जरूरी है, विदेशी निवेश की सीमा बढाया जाना जरूरी है आदि आदि.

‘अवसर’ शब्द के अर्थ बहुआयामी हैं. ये नकारात्मक भी हो सकते हैं, सकारात्मक भी हो सकते हैं. इसी से एक शब्द ‘अवसरवाद’ भी निकलता है. निहित उद्देश्यों से प्रेरित सत्ता द्वारा शब्दों के ऐसे अर्थ भी दिए जा सकते हैं जो अनर्थ के द्योतक हों.

बहरहाल, प्रधानमंत्री के शब्दों पर ही नहीं, वित्त मंत्री और नीति आयोग के शब्दों पर भी गौर करें. ये शब्द, उनके द्वारा दिये जा रहे इनके अर्थ देश और देशवासियों की दशा-दिशा तय कर रहे हैं.

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