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मोदी सरकार ने देश को मौत के मुंंह में धकेल दिया है

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मोदी सरकार ने देश को मौत के मुंंह में धकेल दिया है

Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

सरकार चाहे काम के घंटे 8 घंटे से बढ़ाकर 24 घंटे कर दे या ज़मीन मुफ़्त में उद्योगपतियों को दे दे, फिर भी यहांं कुछ नहीं होगा. कारण ये है कि बाज़ार सिकुड़ चुका है और मांंग की दृष्टि से हम बहुत जल्द अस्सी के दशक में लौट रहे हैं.

मैं कोई आर्थिक मामलों का विशेषज्ञ नहीं हूंं, लेकिन दो चार मोटी-मोटी बातें जो समझ में आती हैं, उन पर बात करना ज़रूरी समझता हूंं.

नब्बे के दशक में जब भारतीय बाज़ार खोला जा रहा था, तब विदेशी पूंंजी में एक उहापोह की स्थिति थी कि भारत में निवेश कहांं तक फ़ायदेमंद होगा ? विशेषकर ये बहस FMCG या Consumer durables बनाने वाली क्षेत्र में था. LG, Samsung, Whirlpool, Hundai जैसी कंपनियों के सामने यक्ष प्रश्न था कि भारत में
कितने लोग उनके उत्पाद ख़रीदेंगे ? सवाल आर्थिक ही नहीं, मानसिक भी था.

भारत का मध्यम वर्ग यूरोप, अमरीका की तुलना में वहांं के महादरिद्र वर्ग से भी ग़रीब था और आज भी है. दूसरी बात, फ़र्श पर पटक कर कपड़े धोने वालों को विश्वास दिलाना कि वाशिंग मशीन भी कपड़े साफ़ कर सकता है, एक कठिन कार्य था, जिसके लिए विज्ञापन, प्रचार और बड़े शहरों की तेज़ी से बदलती जीवन शैली का सहारा था. इसी तरह शिकंजी से पेप्सी तक का भी सफ़र तय किया गया और भूंजा से मैगी तक का सफ़र भी.

इस मानसिक पक्ष के सिवा एक और आर्थिक पक्ष भी था; कितने प्रतिशत लोग afford कर सकते थे इस आधुनिक जीवन शैली को ? कहने को तो उस समय भी भारत के मध्यम वर्ग का आकार पंद्रह करोड़ लोगों का था, जो कि कई यूरोपीय देशों की सम्मिलित जनसंख्या से बड़ी थी, लेकिन, क्रय शक्ति के हिसाब से कमजोर थी. आधुनिक तकनीक का स्वभाव है कि इसका installation cost, operational cost से ज़्यादा होता है. उदाहरणत: 22 किलोमीटर प्रति लीटर पेट्रोल पर चलने वाली गाड़ी ख़रीदने में महंगी होगी.

इस समय सारे बैंकों ने consumer loan का दायरा बढ़ाने की शुरुआत की. आज ये हाल है कि ICICI bank के कुल मुनाफ़े का अस्सी प्रतिशत इसी segment से आता है, जिसमें गृह ऋण भी शामिल है.

ख़ैर, दूसरे पक्ष को देखते हैं. मार्केटिंग के दो एप्रोच हैं, vertical and horizontal. दूसरे वाले में सेवाओं और वस्तुओं की क़ीमतों को इस तरह फ़िक्स किया जाता है कि ये अधिक से अधिक लोगों की पहुंंच के अंदर हो. पहले तरीक़े में कम से कम , लेकिन इनकी भाषा में quality customer के पास पहुंंचे. प्रसंस्करित खाद्य पदार्थ, पेय, रेडीमेड कपड़े और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएंं दूसरी श्रेणी में आते हैं. कार, महंगे घर आदि पहली श्रेणी में.

बिक्री बाज़ार पर, बाज़ार माँग पर और माँग क्रयशक्ति पर पूंंजीवादी व्यवस्था में निर्भर है. 2014 तक सरकार की चेष्टा ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर लाकर horizontal marketing को बढ़ावा देना था. इसके अच्छे नतीजे भी आए.

भारत के नव-धनपशुओं के पास धैर्य नहीं था. वे जल्द से जल्द सारे प्राकृतिक संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कम से कम समय में सुनिश्चित करना चाहते थे. श्रम, फ़ैक्ट्री और भू-अधिग्रहण क़ानून इनके रास्ते में सबसे बड़े रोड़े थे. मनमोहन सरकार भी इनको ख़त्म करने के पक्ष में थी लेकिन कांग्रेस की इमेज का सवाल था और मनमोहन सिंह की विश्वस्तरीय आर्थिक समझ इसके परिणाम से भी परिचित थे इसलिए तथाकथित सुधार धीमे रखे गए. फ़ेबियन समाजवाद, कीन्स की आर्थिक समझ और नव उदारवादी सोच के बीच का एक कारगर संतुलन मनमोहन सरकार ने किया.

जनविरोधी धनपशुओं को ये गंवारा नहीं था और देश के निकृष्टतम व्यक्ति को कैसे राजनीतिक विमर्श के केंद्र में स्थापित किया गया, ये सभी जानते हैं. इस क्रम में इन जनविरोधी ताक़तों से एक आत्मघाती भूल हो गई. उन्होंने अनजाने में एक ऐसे व्यक्ति को अपने काम के लिए चुना जो प्रचंड हीन भावनाग्रस्त और आत्ममुग्ध व्यक्ति है.

नोटबंदी, जीएसटी, सांप्रदायिक एजेंडा, NRC, CAA और अंत में आपदा में क्रिमिनल एजेंडा लागू करने की संभावना में इस मूर्ख ने देश की पूरी अर्थव्यवस्था का ही बेड़ा गर्क कर दिया. मध्यम वर्ग सिकुड़ रहा है, निम्न मध्यम वर्ग ख़त्म हो गया, किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं और मज़दूर पलायन.

लॉकडाउन के परिणामस्वरूप राजनीतिक आंदोलनों पर थोड़ी देर के लिए विराम ज़रूर लग गया हो, लेकिन इस लॉकडाउन के चलते जिस भयंकर आर्थिक विनाश की तरफ़ हम बढ़ चुके हैं, उसमें नए निवेश की अपेक्षा करना दिवास्वप्न है. जनविरोधी धनपशुओं को भी यह बात अच्छी तरह से समझ आ रहा है इसलिए, आश्चर्य नहीं कि निकट भविष्य में वे किसी दूसरे दलाल को ढूंंढ निकाले.

चीन से फ़ैक्ट्री हटाने वाले किसी क़ीमत पर यहांं नहीं आने वाले, यह लिख कर रख लिजिए और MSME sector and Infrastructure sector की कफ़न में आख़िरी कील मज़दूरों के पलायन ने ठोक दी है, चाहे जितना भी फ़र्ज़ी incentives की घोषणा करो. पूंजीवाद का गलित कुष्ठ देश को मौत के मुंंह में धकेल चुका है.

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