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जिन ताकतों की मजबूती बन हम खड़े हैं, वे हमारे बच्चों को बंधुआ बनाने को तत्पर है

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जिन ताकतों की मजबूती बन हम खड़े हैं, वे हमारे बच्चों को बंधुआ बनाने को तत्पर है

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
जो सोच सकते हैं, वे अपने बाल-बच्चों के बारे में भी नहीं सोचना चाहते कि जिन ताकतों की मजबूती बन कर हम खड़े हैं, वे हमारे बच्चों को बंधुआ बनाने को तत्पर हैं.

हमने देखा है बाबू ग्रेड की नौकरी करने वालों के ग्रेजुएट बेटों को स्विगी और जोमैटो में डिलीवरी ब्वाय की नौकरी करते, जो पैकेट डिलीवर करते वक्त अपने सिर से हेलमेट नहीं उतारते. हमने यह भी देखा है कि गांव में ऐंठ कर चलने वाले लोग महानगरों में दिहाड़ी की लाइन में लग कर खड़े हैं और दिन भर की हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद अपने कई-कई साथियों के साथ 10 बाय 8 के सीलन भरे अंधेरे कमरों को साझा करते हैं. इस मुकाम पर पहुंचने के बाद सब समान होते हैं, क्या जाति, क्या धर्म, क्या इलाका, क्या गोरा, क्या सांवला.!

ज़माना तेजी से बदला है और उससे भी तेजी से बदलता जा रहा है जीवनशैली. रोजगार का संकट और जीवन की अनिवार्यताओं से सामंजस्य बिठाते लोग मशीन बन कर रह गए हैं, जिन्हें चलाने वाले हाथों में संवेदना नाम की कोई चीज बाकी नहीं रह गई है. काहे की संवेदना…??? वे मुनाफे के लिये फैक्ट्री चला रहे हैं, न कि मनुष्यता की रक्षा के लिये ?

देखने की बात यह है कि कोरोना त्रासदी की आड़ में बचे-खुचे श्रम कानूनों का भी लोप कर कामगारों को फैक्ट्री मालिकों का बंधुआ बना देने वाले सरकारी फैसलों पर ऑफिसों में काम करने वाले बाबू ग्रेड के लोग क्या सोचते हैं ? गांवों में ऐंठ कर चलने वाले बबुआन क्या सोचते हैं ?

हालात जितने भी बदतर हों, महामारी फैल रही हो, लोग मौत के खौफ़ में जी रहे हों, बुधियार लोग हर हाल में लाभ उठाने की जुगत लगा ही लेते हैं. कोरोना की अफरातफरी का लाभ उठा कर पूंंजी के प्रभुओं के लिये मैदान साफ न किया तो खून में व्यापार कैसा ?

तो, जो सीधे रास्ते नहीं हो सकता था उसे महामारी के साये में करने का मौका मिल गया. न्यूनतम मजदूरी की बाध्यता खत्म, काम के घण्टे 8 के बदले 12, कामगारों का रिकार्ड रखने की कोई जरूरत नहीं. कोई चूं चपड़ करे, लात मार कर फैक्ट्री के गेट से बाहर करो. सत्ता सेवा में है, कानून कदमों में है.

पूंजी के प्रभु मां भारती की दुलारी औलादें हैं. विकास के वाहक भी, उसके असल उपभोक्ता भी. राष्ट्रवाद के असल लाभार्थी, जिनकी गिरफ्त में राष्ट्र के संसाधन हैं, जिनकी सहूलियत के लिये राष्ट्र के कानून हैं, जिनकी राहों को बुहारने के लिये राष्ट्र के नेता हैं – उनके लिये पैकेज है, टैक्स में छूट है, सस्ती दरों पर लोन है, थोड़ा बदनाम होने को तैयार हों तो लोन ले कर पचा जाने की सुविधा भी है.

उन्हीं में से किसी का प्यारा-सा डॉगी विदेश से हवाई जहाज से आया तो हवाई अड्डा पर खीसें निपोड़ते हुए डीएम साहब उसके लिये बिस्कुट लिये खड़े नजर आए. पता नहीं, किस मरदूद फोटोग्राफर ने फोटो खींच ली और वह वायरल भी हो गया.

अपने-अपने फ़्लैट्स की बालकनी में खड़े, लाकडाउन की बोरियत मिटाने को म्यूजिक सुनते बाबू लोग श्रम कानूनों को अगले तीन साल तक सस्पेंड किये जाने पर क्या सोच रहे होंगे ? गांवों के बबुआन क्या सोच रहे होंगे ?

लेकिन, हम क्यों यह उम्मीद करें कि वे सब इस पर सोच भी रहे होंगे. सोचने वाली नस्ल होती तो सरकारों की इतनी हिम्मत ही नहीं होती. आर्थिक विकास का पहिया तेज चले, इसके लिये कामगारों का खून चूसने वाली व्यवस्था एकाएक तो खड़ी नहीं हो गई. यह इसलिये खड़ी होती गई, क्योंकि सोचने वाले लोगों की कमी होती गई.

जो सोच सकते हैं, उन्हें अकेले कर देने की कोशिशों में व्यवस्था के पीछे वे लोग खड़े होते गए जो खुद के आगे सोचना ही नहीं चाहते कुछ. यहां तक कि अपने बाल-बच्चों के बारे में भी नहीं सोच सकते कि जिन ताकतों की मजबूती बन कर हम खड़े हैं, वे हमारे बच्चों को बंधुआ बनाने को तत्पर हैं.

कामगारों को कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिये कि उनके साथ जो अन्याय हो रहा है, उसमें इस देश का खाता-पीता वर्ग कुछ भी सहानुभूति दिखाएगा. उनका मन मानवता के लिये बंजर हो चुका है.

कामगारों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी. अतीत में जिनके लिये लड़े, वे तमाम अधिकार खतरे में हैं. बहुत कुछ तो छिन चुका है. बचा-खुचा भी छीनने को तैयार है व्यवस्था.

हालांकि जो टीवी पर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान देखते मुतमईन हैं, निश्चिंत वे भी नहीं रह पाएंगे. आग उनकी हदों तक भी जाएगी. लपटों की तपिश पहुंचने लगी है उन तक भी.

कोई नहीं बचने वाला है. जो भी कामगार है, छोटा हो या बड़ा हो, सरकारी हो कि प्राइवेट हो, मानवद्रोही व्यवस्था सबका लहू निचोड़ेगी. इसी लहू को पीकर तो पूंजी के पिशाच अतिरिक्त तंदुरुस्ती हासिल करते रहे हैं.

कोरोना ने अवसर दिया है तो सत्ता क्यों न अपना चरित्र दिखाए ? डर किस बात का ? शर्म किस बात की ? आखिर देश पर आपदा आई है और इस त्रासदी के वक्त में आप काम के घण्टे गिनते हैं ? मिनिमम वेजेज की उम्मीद करते हैं ? महंगाई भत्ते का हिसाब जोड़ते हैं ? जो कुछ आपका है वह देश का है और जो देश का है …? वह तो कब का उनकी जेब में जा चुका जिनके हितों के लिये श्रम कानूनों को सस्पेंड किया जा रहा है.

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