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अपनी ही बेटी के कब्र पर बेटों का महल सजाती मां !

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इस पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था में “मां “. आखिर किसकी मां ?

मां, संसार का सबसे प्रिय शब्दों की उपमा भी शायद पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था की ही देन है, जहां एक मां अपने पुत्र खातिर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देती है पर सवाल यह भी उठता है कि क्या एक मां अपनी पुत्री खातिर भी अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती है ? इसका जवाब क्या हो सकता है आखिर ? शायद हां ! शायद न् !

यह सत्य है कि पुत्र की चाहत में एक मां अपनी पुत्रियों को अपने गर्भ में ही मार डालती है. पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था में यह बखूबी देखने को मिलता है और रोज ही देखने को मिलता है. पर दुनिया में आ चुकी पुत्री की कब्र पर मां अपने पुत्र का महल सजाये, यह बेहद आश्चर्यजनक है.

नाम कुछ भी हो सकता है, इसकी कोई जरूरत नहीं है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है पीड़ित का नाम उजागर नहीं होने देना चाहिए. मैं भी पीड़ित का नाम या परिवार का नाम उजागर करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करता. अपने आसपास देखने भर की जरूरत है, दीख जायेगी. ’’पिता की मृत्यु के साथ ही उसके जीवन की खुशहाली का अंत हो गया’’, सुबकते हुए जब वह बेटी यह बात कहती है तो पुरूषसत्तात्मक व्यवस्था में अपनी पुत्री खातिर अपनी ही व्यवस्था से लड़ते एक पिता की भूमिका स्पष्ट हो जाती है.

हमारी बनाई व्यवस्था में एक पुत्री का जीवन पिता के आंगन से शुरू होकर पति के घर पर जाकर खत्म होता है, जहां वह एक नये परिवार की रचना करती है.

18वें बसंत में अपने पिता को खो चुकी उस बेटी के जीवन में ‘‘पति के आंगन’’ का प्रवेश उसके 34वें बसंत में होता है, जिसे उसकी मां ने अपने बेटों और अन्य दमादों की मदद से महज चंद महीने में खत्म कर दिया क्योंकि उस ‘‘मां’’ की सेवा करने से अन्य सभी बेटी और उनके दमादों ने इंकार कर दिया और पुत्रों ने अपने नौकरी के कारण दूर होने का हवाला देकर पल्लू झाड़ लिया.

उक्त ‘‘मां’’ ने अपने जीवनचर्या को दुरूस्त बनाये रखने हेतु अपनी तीसरी बेटी को उसके पति से घर से जबरन ले आई और अपने पास रख ली. उसके पति ने जब इसका विरोध किया तो पुलिस विभाग में बड़ी हस्ती होने के रसूख का इस्तेमाल कर जिला एस.पी. को मिलाकर उसके पति को थाने में लाकर बेरहमी से पिटाई करवाई. बड़ी मुश्किल से उसके पति की जान बच पाई.

उस ‘‘मां’’ ने अपनी बेटी को अपने घर ले लाई. गर्भ में पल रहे उसके गर्भस्थ शिशु को उसकी ‘मां’’ ने मार डालने की कोशिश की पर उसकी बेटी ने इंकार कर दिया. तब अपनी गर्भस्थ बेटी के गर्भ को नष्ट कर डालने हेतु उस ‘‘मां’’ ने उस पर अत्याचार का सहारा लिया और इसके लिए अपनी बड़ी बेटी के माध्यम से उस पर जुल्म ढ़ाना शुरू कर दिया. किसी भी प्रकार का डाॅक्टरी जांच न कराना, दिन भर नौकर की तरह काम कराना, भारी काम कराना, कपड़े साफ कराना, अपने बेटे के बच्चों का सेवा कराना आदि जैसे कामों के कारण उस गर्भस्थ बेटी का गर्भस्थ शिशु जन्म लेने के साथ ही अनेक विकृतियों का शिकार हो गया.

अब उस ‘‘मां’’ ने अपनी ही बेटी के बच्चे को एक मोहरा की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया और उसके बेटे की देखरेख के नाम पर अपनी ही बेटी को अपना बंधुआ गुलाम बना ली. कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि वह अपने बेटों के माध्यम से अपने बेटी के बच्चे का गलत इलाज करवाकर अथवा बिजली का शाॅट लगवाकर उस नवजात शिशु को मानसिक तौर पर अपंग बना दी ताकि बाद में वह शिशु बड़ा होने पर समझदार न बन सके और वह गुलाम की तरह आजन्म उसके परिवार की सेवा करता रह सके.

वह बेटी जब कभी विरोध करती तो उसकी मां उस पर अपनी अन्य बेटियों और बेटों के माध्यम पर उस पर शारीरिक पिटाई भी करवाने लगी. कहीं घर से भाग न जाये इसके लिए अनेक तरह की व्यवस्थायें बनायी. उसके जरूरत भर ही पैसे देती थी और उन पैसों का भी पूरा-पूरा हिसाब रखती थी. उसकी दूसरी शादी करवाने का झांसा देकर उसका शारीरिक और मानसिक शोषण अनवरत् जारी रखी.

समय के लंबे अंतराल के बाद जब उसकी बेटी लगातार अत्याचार और दमन के कारण शारीरिक तौर पर अक्षम होने लगी है, तब उसे दूध में गिरी मक्खी की तरह अपने घर से उसके पुत्र सहित निकाल फेंका है.

संभवतः वह बेटी अपने मानसिक तौर पर अपंग 5 साल के बेटा को साथ लेकर सड़क पर भटकने के लिए मजबूर है.

इंसाफ शब्द अब उस बेटी के लिए क्या मायने रखती है ? “मां की महिमा” भी भला अब उसके लिए क्या मायने रखती है ?

क्या उसके लिए भी मां शब्द का वही मायने होगा जो एक पुत्र के लिए होता है ? एक मां का अपनी ही पुत्री के साथ यह भयानक कृत्य ‘‘मां’’ शब्द को ही कलंकित करता है. मां की महिमा गाने वाला यह पुरूषसत्तात्मक समाज में बेटी के लिए भी मां, कभी मां नहीं होती.

अपने पुत्रों की जागीर की हिफाजत करने के कारण ही शायद यह समाज ‘‘मां’’ की महिमा गाता है. पुत्र और पुत्री दोनों के लिए ‘‘मां’’ की महिमा न केवल अलग-अलग है वरन् परस्पर विरोधी भी. शायद सेवा का कोई मूल्य नहीं होता ! चाहे वह सेवा मां की ही क्यों न हो !

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One Comment

  1. S. Chatterjee

    July 20, 2017 at 3:47 am

    मां एक बायोलॉजिकल तथ्य है और प्राणीमात्र में अपनी प्रजाति को बचाने की जो छटपटाहट रहती है वह करुणा और वात्सल्य के माध्यम से प्रस्फुटित होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उसके रिस्पांस कंडिशन्ड होते हैं। किसी भी तरह की रोमांटिक व्याख्या बेकार है।

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