Home गेस्ट ब्लॉग आज का पूंजीवादी संकट तथा मार्क्स की विचारधारा

आज का पूंजीवादी संकट तथा मार्क्स की विचारधारा

10 second read
0
0
1,246

आज का पूंजीवादी संकट तथा मार्क्स की विचारधारा

मार्क्स के 202वीं जयंती पर उनके दार्शनिक राजनीतिक आर्थिक विश्लेषण को समझना आज की हालत को समझने के लिए आवश्यक है. 20वीं सदी में दुनिया के मजदूरों ने, रूसी समाजवादी क्रांति के द्वारा लेनिन के नेतृत्व में पूंजीवादी व्यवस्था के ऊपर जीत हासिल की, लेकिन 20वीं सदी के अंतिम दशकों में पूंजीवाद ने पुनः मजदूर वर्ग और उसके द्वारा संचालित समाजवादी अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया.

इन दशकों में पूरी दुनिया में वित्त पूंजी का तीव्र विकास हुआ. भूमंडलीकरण के द्वारा इसने पूरी दुनिया में पिछड़े से पिछड़े देशों और अधिकांश छोटे उत्पादकों को भी अपने जाल में जकड़ लिया. 20वीं सदी के पूर्वार्ध की तरह छोटी पूंजी के मालिक साम्राज्यवाद और वित्त पूंजी के खिलाफ अब अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष करने की सोच भी नहीं सकते हैं.

विज्ञान व तकनीकी के विकास ने पूंजीवाद को इतना मजबूत कर दिया कि वे पिछड़े प्रदेशों में पूंजी व तकनीक का निर्यात कर बेशुमार उत्पादन शुरू किया. इसके परिणामस्वरूप मजदूरों की श्रम शक्ति से भारी अतिरिक्त मूल्य का निर्माण हो रहा था. यह अतिरिक्त मूल्य श्रम की उत्पादकता बढ़ने का परिणाम था. मजदूर अपनी मांस पेशियों की गति को तेज कर कम ही समय में मशीन के द्वारा बहुत सारा माल पैदा कर दे रहा था लेकिन इस पैदावार में से उसे बहुत ही छोटा हिस्सा के रूप में मिल रही थी.

बाकी बड़े हिस्से में से पूंजीपति सरकारों को भारी टैक्स और परजीवी वर्गों को किराया देने के बाद भी भारी मुनाफा बटोर ले जा रहा था. इस मुनाफे का एक छोटा अंश विश्वविद्यालयों को अनुदान के रूप में और एनजीओ को कल्याणकारी कार्य के लिए दिया जा रहा था. बदले में ये सब मिलकर बौद्धिक जगत में नए-नए विचारधारा और दर्शन गढ़ने लगे. ये मार्क्सवाद को अप्रासंगिक घोषित कर रहे थे.

पूंजीवाद ने विश्वविद्यालयों और अपने बुद्धिजीवियों की पूरी टीम को मार्क्सवाद के खिलाफ प्रचार में लगा दिया. जब ऐसे पूंजीवादी बुद्धिजीवी और इनका प्रचार तंत्र मार्क्सवाद और इतिहास की मृत्यु की घोषणा कर रहा था, तभी 2007 की मंदी ने ऐसा पलथा मारा कि पूंजीवादी बुद्धिजीवी भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संकटों को समझने के लिए मार्क्स की महत्वपूर्ण कृति ‘पूंजी’ के शरण में चले गए.

अचानक मार्क्स की कृति पूंजी की बिक्री में काफी तेजी आ गई. ये पूंजीवादी बुद्धिजीवी मार्क्स के बताए हुए रास्ते पर चलने के लिए नहीं, बल्कि पूंजीवाद के संकटों की व्याख्या मार्क्स से समझ कर उसे बचाने के लिए उपाय ढूंढने के लिए मार्क्स के शरण में गए थे.

पूरी दुनिया में 21वीं सदी में पूंजीवाद और खास करके वित्त पूंजी के हमलों और उसके द्वारा मचाई जा रही तबाहियों की चर्चा मेहनतकशों के बीच तेज हो गई. ऐसा क्यों हुआ ? इसे हम मार्क्स के महत्वपूर्ण कृति ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र में एक योगदान’ की भूमिका में, प्रस्तुत विचारों के आलोक में समझने की कोशिश करते हैं.

कार्ल मार्क्स ने लिखा है, ‘भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है. मनुष्यों की चेतना उनके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उल्टे उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है. अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुंचकर समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियां तत्कालीन उत्पादन संबंधों से, या उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यूं कहा जा सकता है कि उन संपत्ति संबंधों से टकराती है जिनके अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती हैं. यह संबंध उत्पादक शक्तियों के विकास के अनुरूप न होकर उनके लिए बेड़ियांं बन जाते हैं, तब सामाजिक क्रांति का युग शुरू होता है.

‘आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समस्त वृत्ताकार ऊपरी ढांचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है. ऐसे रूपांतरण ऊपर विचार करते हुए एक भेद हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपांतरण है, इसे प्राकृतिक विज्ञान की एकता के साथ निर्धारित किया जाता है दूसरी ओर वे कानूनी राजनीतिक धार्मिक, सौंदर्य बोध या दार्शनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं जिनके दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उसे मिटाते हैं.’

20वीं सदी के उत्तरार्ध में पूंजी का जो तेजी से संचार होता है, जैसा कि मार्क्स ने बताया है कि पूंजी को पुनर्निवेशित होने के लिए यह आवश्यक है कि पूंजीपतियों के मुनाफे की दर बढ़ती रहे. लेकिन पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की यह विसंगति है कि मुनाफे की दर उत्पादन के साधनों पर बढ़ते खर्च तथा मजदूरी पर कम खर्च के कारण तेजी से गिरने लगती है. इस रहस्य को पूंजीवादी बुद्धिजीवी तथा खुद पूंजीपति समझ ही नहीं पाएंगे क्योंकि जो पूरी दुनिया में विभिन्न वस्तुओं में मूल्य का निर्माण होता है, उसके मुख्य स्रोत के रूप में मजदूरों की श्रम शक्ति को न मानकर वे तकनीक और प्रबंधन को इसका श्रेय देते हैं .

समाजवाद तथा राजकीय पूंजीवाद की तबाही के बाद रूस चीन और एशिया अफ्रीका में बेशुमार पूंजी निवेश के कारण साम्राज्यवादी देशों में पूंजी का बहुत बड़े पैमाने पर संकेंद्रण हुआ. तमाम विकसित देश खासकर अमेरिका और इंग्लैंड अब अपने यहां से उत्पादन को पिछड़े प्रदेशों में हस्तांतरित कर वित्त पूंजी के हेरा फेरी वाले खेल के केंद्र बन गये. वे हेज फंड, शेयर मार्केट और नाना प्रकार के गोरखधंधे के द्वारा उत्पादन के क्षेत्र से सूद, मुनाफा में हिस्सेदारी और शेयरों को बढ़ा घटाकर मुनाफा बटोर रहे थे.

21वीं सदी की शुरुआत में पिछड़े प्रदेशों में पूंजीवाद का तेजी से विकास हुआ लेकिन पिछड़े प्रदेशों में भी पूंजीवाद के विकास की एक सीमा थी. मुनाफे के भूखे पूंजीपतियों ने इन प्रदेशों में बहुत ही कम मजदूरी देकर काम के घंटों तथा मशीनों की रफ्तार को बढ़ा कर जैसा कि मार्क्स ने बताया है, निरपेक्ष और सापेक्ष दोनों तरह के अतिरिक्त मूल्य को निचोड़ने लगे.

नव उदारवादी नीति के तहत ट्रिकल डाउन थ्योरी का प्रतिपादन किया गया. इसमें कुछ लोगों को बहुत अमीर बनाना आवश्यक बताया गया ताकि उनके द्वारा बूंद बूंद टपका कर नीचे में कई स्तर के वर्गों को तैयार किया जा सके और उन्हें रोजगार उपलब्ध हो सके. इन बड़े पूंजीपतियों के ठीक नीचे बड़े पैमाने पर इस अतिरिक्त मूल्य से प्राप्त मुनाफे तथा टैक्स के हिस्सेदार बन कर एक बड़े मध्यवर्ग का निर्माण हुआ. पूरी दुनिया में भवन निर्माण के धंधे तथा नए शहरों के विकास में काफी तेजी आई लेकिन इससे भी ज्यादा तेजी वित्त पूंजी के गोरखधंधे में आई.

वित्त पूंजी अमरलता वेरों की तरह है जो उत्पादक पूंजी पर छाई रहती है और उसके द्वारा निचोड़े गए मुनाफे को हड़प कर उससे कई गुना तेजी के साथ विकास करता है. यह कई क्षेत्र में निवेशित्त होकर उत्पादन के क्षेत्र में तेजी भी लाता है और उसे तबाह कर पुनः दुनिया के किसी दूसरे कोने में जाकर उत्पादन क्रिया को फैलाने लगता है. हालत यह है कि अपनी तेज मुनाफा के लिए वित्त पूंजी के मालिक कभी भी कहीं भी उत्पादन के क्षेत्र में भूचाल ला सकते हैं. 20वीं सदी के अंत में जार्ज सोरोस नाम के सटोरिए ने अचानक अपनी पूंजी एशियन टाइगर कहे जाने वाले देशों से निकालकर वहां की अर्थव्यवस्थाओं में कोहराम मचा दिया था.

ऐसी तबाह अर्थव्यवस्था में पुनः निवेशित होकर वित पूंजी बहुत ही कम भाव में इन तबाह उत्पादन के उद्योगों को खरीद लेता है और एक तरह से उसे चलाने वाले पूंजीपतियों को अपना छोटा पाटनर या अधीनस्थ मुलाजिम बना देता है. इस तरह से वित्त पूंजी के बड़े-बड़े मालिक पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और उनकी सरकारों के महत्व को नकारते हुए वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेशन के समझौतों के तहत अपनी पूंजी का बेरोकटोक निवेश करते हैं और मुनाफा बटोरते हैं. इसीलिए आज अमेरिका या इंग्लैंड के पूंजीपति अपने देश या तथाकथित राष्ट्रीय हितों को नकार कर चीन या दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था में निवेश करते रहते हैं.

वित्त पूंजी के मालिकों के पास बेशुमार पूंजी के संकेंद्रण के कारण अक्सर उत्पादन के क्षेत्र उपेक्षित भी हो जाते हैं. अर्थव्यवस्था में मूल्य का निर्माण करने वाले, उत्पादक क्षेत्र के व्यापक मजदूर वर्ग की हाल खराब होती जाती है. सेवा क्षेत्र और दूसरे अन उत्पादक क्षेत्रों में पूंजी का निवेश बढ़ने लगता है. नए-नए तरह के काल्पनिक उत्पादों का निर्माण कर उसे बिकाऊ बना दिया जाता है. ये उत्पाद किसी तरह से किसी के लिए भी कोई उपयोगिता नहीं रखती है, लेकिन बाजार में बैंकों के द्वारा इसे खरीदने के लिए बड़ी ही सुलभता के साथ कर्ज देने की व्यवस्था की जाती है और इन कर्जों को बीमा कंपनियों के द्वारा सुरक्षा प्रदान की जाती है.

कई बार बैंक नहीं वसूल किए जा सकने वाले कार्जों को भी माल बनाकर बेच देता है. फिर ट्रिकल डाउन थ्योरी के तहत जो मध्यवर्ग अपनी मोटी कमाई में बड़ी बचत करता है, उसका एक हिस्सा ऐसे वित्तीय उत्पादों को खरीद कर, अपनी पूंजी बढ़ाने के चक्कर में , वित्त पूंजी के मालिकों के जाल में फंसते रहते हैं. शेयरों का बढ़ना घटना, म्यूच्यूअल फंड जैसे वित्तीय कारोबार में होने वाले घाटे इनकी तबाही का कारण बनता है.

इस तरह से मध्यवर्ग की पूंजी का संपत्तिहरण होकर वित्त पूंजी के मालिकों के हाथ में पूंजी संकेंद्रित होता जाता है. उत्पादन के क्षेत्र में अमेरिका, इंग्लैंड फ्रांस जैसे क्षेत्रों में ऐसे निवेश में आई कमी का परिणाम इस कोरोना के संकट के काल में एकदम से नंगा होकर सामने आ गया है. इतने विकसित राष्ट्र अपने डॉक्टर और मरीज के लिए सुरक्षा उपकरण, दवाइयां और वेंटीलेटर उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं.

ऐसी स्थिति उनके अर्थव्यवस्थाओं में वित्तीय कारोबार के अति वर्चस्व का परिणाम है. जैसा कि मार्क्स ने बताया है कि मूल्य का निर्माण श्रमिकों के श्रम शक्ति से होता है और मूल्य का निर्माण ही पूंजी का स्रोत है. इसीलिए मार्क्स ने पूंजी को मृत श्रम कहा है. उत्पादन के क्षेत्र को तबाह करने के साथ-साथ वित्त पूंजी के मालिक उत्पादक शक्तियों को भी तबाह करते हैं. बाजार व्यवस्था के कारण मूल्य नहीं चुका पाने की स्थिति में एक बहुत बड़ी आबादी उत्पादित वालों का उपभोग नहीं कर पाता है और बाजार में माल पड़े रहते हैं.

यह पूंजीवाद के अंतर्विरोधों का परिणाम है जो मंदी के रूप में समय समय पर आकर पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को संकट में डालते रहता है. यह अधिक मार्लों के उत्पादन के कारण नहीं आता है बल्कि यह समाज की बहुत बड़ी श्रमिक आबादी को उपभोग करने से जबरदस्ती वंचित करने का परिणाम है.

साम्राज्यवाद के युग में पूंजीवाद अपने इन अंतर्विरोधों के कारण हमेशा संकट से घिरा रहता है और इस संकट से निकलने के लिए वह अक्सर युद्ध तथा अर्थव्यवस्थाओं को तबाह कर पुनः पूंजी के निवेश के लिए अवसर बनाता है. उसके ऐसे घृणित कुकृत्य के कारण लाखों जिंदगियां तबाह हो जाती है. खास करके मजदूर वर्ग भयंकर तबाही को झेलता है. ठीक उसके पीछे मध्यवर्ग भी तबाह हो कर मोहभंग की स्थिति में पूंजीवादी सरकारों को कोसने लगता है.लेकिन इन संकटों का समाधान पूंजीवादी सरकारों तथा बुद्धिजीवियों के पास नहीं है.

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की संरचना का अध्ययन करने के बाद मार्क्स ने कहा कि उत्पादन का समाजीकरण होने के बाद भी उत्पादन के साधनों पर निजी मलकियत होने के कारण उत्पादन का लक्ष्य मुनाफा बना रहता है. पूंजीवादी व्यवस्था में उत्पादन का उद्देश्य समाज की आवश्यकताओं को पूरा करना नहीं रहता है.

ऐसी स्थिति में जब पूंजीपतियों के मुनाफे की दर गिरने लगती है या माल नहीं बिक पाने के कारण मंदी आने लगती है तो पूंजीपति उत्पादन बंद कर देते हैं और उत्पादित माल को बर्बाद कर देते हैं, ताकि बाजार में फिर से मांग शुरू हो सके. यह तबाही का दौर सामाजिक चेतना में तेजी से विकास कराता है. यहीं पर मेहनतकशों की सुसंगठित राजनीतिक पार्टियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. मेहनतकश वर्ग इनके नेतृत्व में सामाजिक क्रांतियों को जन्म देता है और उत्पादन तथा वितरण व्यवस्था को समाज के अधीन कर समाज की आवश्यकता के लिए अर्थव्यवस्था को संचालित करता है.

मार्क्स की प्रस्थापना थी कि शासन को संचालित करने वाले मजदूर वर्ग को शासन से बेदखल करने और पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था को पुनः शुरू करने के लिए पूंजीपति वर्ग, उनकी सरकारें तथा पूंजीपरस्त बुद्धिजीवी तरह-तरह के षड्यंत्र तथा प्रचार करते हैं, इसलिए मजदूरों की शासन व्यवस्था, जिसे समाजवाद कहा जाता है, तबाह करने के लिए पूंजीपति किसी भी हद तक नीचे गिरते हैं.
सोवियत संघ तथा चीन में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना ने यह साबित किया है कि मजदूरों की राजनीतिक तथा सांस्कृतिक चेतना के लगातार विकास के बगैर समाजवाद को नहीं बचाया जा सकता है.

पूंजीवादी शोषण से मुक्त होने के बाद मेहनतकशों का जीवन स्तर ऊंचा उठता है, तो उनके सामने पूंजीवादी दुनिया के स्वप्न परोसे जाते हैं, निजी संपत्ति के द्वारा ऐसो आराम के लिए पूंजीवादपरस्ती के बीज बोए जाते हैं. खासकर इनके बीच से निकले बौद्धिक समाज, तकनीकी विशेषज्ञ तथा संस्कृति कर्मी इस तरह के वैचारिक प्रदूषण को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. इन्हीं कारणों से मार्क्स और उनको मानने वाले चिंतकों ने सर्वहारा की तानाशाही पर विशेष बल दिया.

सर्वहारा की तानाशाही में मेहनतकशों को जहां अधिक से अधिक जनवाद उपलब्ध होता है, वहीं पुराने शोषक वर्ग तथा मध्यवर्ग को वैचारिक प्रदूषण फैलाने से बलपूर्वक रोका जाता है. सबों के लिए सामाजिक उत्पादन में हिस्सेदारी अनिवार्य कर दिया जाता है. समाज में यह नियम होता है कि बिना श्रम किए हुए आपको कुछ भी उपभोग करने का अधिकार नहीं है. बच्चे, बूढ़ों और विकलांगों तथा बीमार व्यक्तियों की देखरेख की जिम्मेवारी सीधे-सीधे समाज और उसे चलाने वाले राज्य की होती है. संपत्ति संबंधों को खत्म कर दिया जाता है. हर कोई अगली पीढ़ी के लिए बचाकर रखने की चिंता से मुक्त कर दिया जाता है, ताकि निश्चिंत होकर लोग वर्तमान पीढ़ी और अपने जीवन को खुशहाली के साथ जी सकें.

मार्क्स ने बड़ी स्पष्टता के साथ प्रतिपादित किया कि विज्ञान तथा तकनीकी विकास के आधार पर समाज को बेहतर से बेहतर समृद्धि व ऐश्वर्यपूर्ण जीवन उपलब्ध कराया जा सकता है. इस अवस्था में पहुंचकर मनुष्य अपनी क्षमता के अनुसार उत्पादन करेगा और अपनी आवश्यकता के अनुसार सामग्रियों का उपयोग करेगा. यह अवस्था आज की उपभोक्तावादी संस्कृति से बिल्कुल अलग होगी.

आज उपभोक्तावादी संस्कृति का परिणाम है कि चंद मध्यवर्गीय लोग उच्च आय के कारण तरह-तरह के अनावश्यक सामग्रियों और अपनी सनक पूरा करने के लिए साधनों की खरीदारी कर रहे हैं. समाजवाद और इसकी विकसित अवस्था ‘साम्यवाद’ में इस तरह की सनक और अनावश्यक साधनों की खरीद की होड़ से मानव समाज अपने उच्च सांस्कृतिक विकास के कारण मुक्त हो जाएगा. आज उपभोक्तावादी संस्कृति को फैलाकर पूंजीवाद मानव समाज के साथ-साथ पर्यावरण को भी पूरी तरह से तबाह कर दिया है. धन के बड़े-बड़े मालिक अपने अथाह धन के आधार पर मनमाने सनक, मनोरंज और धार्मिक पूर्वाग्रहों को संतुष्ट करने के लिए प्रकृति को तबाह करते रहते हैं.

साम्यवाद इन वैचारिक प्रदूषण से मुक्त होकर प्रकृति का न सिर्फ तार्किक ढंग से मानव समाज के लिए उपयोग करेगा, बल्कि मानव समाज के बेहतर जीवन के लिए सजग होकर प्रकृति को संरक्षित भी करेगा. आज पूंजीवाद मानव समाज के साथ-साथ प्रकृति व पर्यावरण के लिए कितना खतरनाक हो गया है, यह हम सब अपनी आंखों से देख सकते हैं. पूरी दुनिया में युद्ध को प्रायोजित कर के पिछले दशकों में साम्राज्यवाद ने मानव समाज के साथ-साथ प्रकृति को भी बहुत तबाह किया है इसलिए आइये मार्क्स की जयंती पर मार्क्स की शिक्षाओं से सीखते हुए पूंजीवाद के द्वारा बार-बार जो मानव समाज तथा प्रकृति के लिए संकट पैदा किया जा रहा है उससे मुक्ति के अभियान का हिस्सा बनें.

  • नरेन्द्र कुमार

Read Also –

सर्वहारा वर्ग के प्रथम सिद्धांतकार और महान नेता कार्ल मार्क्स
चीन एक नयी सामाजिक-साम्राज्यवादी शक्ति है !
भारतीय कृषि का अर्द्ध सामन्तवाद से संबंध : एक अध्ययन
मार्क्स की 200वीं जयंती के अवसर पर
मार्क्सवाद की समस्याएं

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

नारेबाज भाजपा के नारे, केवल समस्याओं से लोगों का ध्यान बंटाने के लिए है !

भाजपा के 2 सबसे बड़े नारे हैं – एक, बटेंगे तो कटेंगे. दूसरा, खुद प्रधानमंत्री का दिय…