सुब्रतो चटर्जी, राजनीतिक विश्लेषक
जब शाहीन बाग आंदोलन चल रहा था तब बहुत सारे तथाकथित लिबरल बुद्धिजीवी, जिनको राजनीति शब्द से चिढ़ है, इस बात पर इतरा रहे थे कि चूंंकि इस आंदोलन का कोई राजनीतिक लीडरशिप नहीं है, इसलिए यह जनता का स्वत:स्फूर्त विरोध है और वैसा ही रहना चाहिए.
आज, जब लॉकडाउन की आड़ में उस आंदोलन के मुखर चेहरों को यूएपीए के तहत एक क्रिमिनल तड़ीपार गिरफ़्तार कर रहा है, आंदोलन के पास राजनैतिक नेतृत्व का अभाव होना सबको खल रहा है. ये सच है कि योगेन्द्र यादव जैसे कतिपय एक्टिविस्ट उनके समर्थन में आज भी खड़े हैं और पहले भी थे, लेकिन ये काफ़ी नहीं है.
आंदोलनकारी ये भूल गए थे कि उनका सामना एक ऐसे निजाम से है जो कि मूलतः फ़ासिस्ट हैं और चुनावी चोरी के माध्यम से सत्ता हथिया कर देश को लूटने के लिए और सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिये ही बैठा है. दुनिया के इतिहास में हर जगह फ़ासिस्ट चुनाव जीतकर ही सत्ता हथिया लेते हैं.
ऐसा होने पर प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या किसी भी सांविधानिक पद या संस्था की गरिमा काग़ज़ पर लिखी गई एक बेकार की बात बन कर रह जाती है. अवचेतन में जनता उनसे उम्मीद लगाए बैठती है कि भला कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के पद पर बैठे इतना ‘नीच’ कैसे हो सकता है ? जनता भूल जाती हैं कि ये ‘नीच’ हैं इसलिए इस पद को पाने के लिए हर संभव नीचता कर यहांं तक पहुंंचे हैं.
मूल प्रश्न पर लौट आना चाहिए. शाहीन बाग आंदोलन के राजनीतिक नेतृत्व नहीं होने के फलस्वरूप आज यह बिखर गया. मोदी सरकार को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप दो महीने धरना पर बैठे हैं या दो सौ साल. वे तो यही चाहते हैं कि आप कायराना गांधीवादी तरीक़ा अपनाएंं और उनकी गोलियांं भी बची रहे और आप राजनीतिक रूप से अपने क्रियाशील होने के दंभ में खुश.
वे इस बात पर खुश कि आप वाक़ई में उनका कुछ भी बिगाड़ने की स्थिति में न कभी थे और न कभी होंगे. इसके उलट, वे यह कहेंगे कि ये आंदोलन तो मुस्लिम समुदाय का है और इसकी आड़ में दिल्ली में जनसंहार करवा देंगे. उन्होंने ऐसा ही किया और देश के बहुसंख्यक बुद्धिजीवी इसे दंगा कहते रहे, जबकि हमला एकतरफ़ा था. कोरोना ने फ़ासिस्ट सरकार को कर्फ़्यू लगाने का मौक़ा दिया और उसके बाद की कहानी सबको मालूम है.
आज जब छ: महीने की गर्भवती स्त्री को जेल में झूठे आरोप में ठूंंस दिया जाता है और उसके लिए लड़ने के लिए कोई राजनेता नहीं है, तब शायद लोगों को समझ आ गया होगा कि ग़ैर राजनीतिक चेतना संपन्न कोई भी आंदोलन सिर्फ़ आत्मघाती होता है.
मत भूलिए कि यह एक देश है जहां लॉकडाउन खुलने के दो घंटे के अंदर बंगलौर जैसे शहर में पैंतालीस करोड़ का दारू बिक जाता है और दिल्ली सरकार एक दिन में दारू पर सत्तर प्रतिशत टैक्स बढ़ा देती है.
ये दो उदाहरण काफ़ी हैं आपको समझाने के लिए कि इस देश के मध्यम वर्ग लोगों की राजनीतिक चेतना कितनी उन्नत है ! अब ये पियक्कड़ जोंबी फ़ासिस्ट एजेंडा ही पूरा करने के लिए कंडिशन्ड हैं, आपके साथ जुड़ने के लिए नहीं मेरे शाहीन बाग के साथियों. जन आंदोलन स्पष्ट राजनीतिक चेतना और नेतृत्व के बिना महज़ एक पानी का बुलबुला है.
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‘आप बोलेंगे, और अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे’
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