हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
अभी, साल दो साल पहले ही तो हम उन खबरों को देख-सुन कर हलकान हुए जा रहे थे कि कोई रोटोमैक कंपनी सरकारी बैंकों का 2,850 करोड़ रुपये कर्ज लेकर अब उसकी अदायगी में हीला हवाली कर रही है, और कि, सरकार उस कंपनी के मालिक कोठारी बंधुओं पर ‘कड़ी कार्रवाई’ करने के मूड में है.
फिर, खबरें आने लगी कि आज कंपनी परिसर पर सरकार ने छापा मारा, कि आज मालिक बंधुओं से कड़ी पूछताछ हो रही है, कि उनसे बैंकों के कर्ज की राशि वसूल की जाएगी आदि-आदि.
अब आज हम खबरों में देख-सुन रहे हैं कि 2,850 करोड़ रुपये का वह बैंक कर्ज सरकार ने ‘राइट ऑफ’ कर दिया और कंपनी मालिक को ‘विलफुल डिफॉल्टर’ घोषित कर दिया.
‘राइट ऑफ’ बोले तो, सरकार ने उस कर्ज की राशि को बट्टे-खाते में डाल दिया, जबकि ‘विलफुल डिफाल्टर’ का अर्थ हमें यह समझाया जा रहा है कि ऐसा कर्जदार, जो कर्ज चुकाने में तो सक्षम है, लेकिन चुकाने की मंशा नहीं रखता.
हम तमाम टैक्स पेयर्स, बेरोजगार और निरीह नागरिक ‘विलफुल डिफाल्टर’ और ‘राइट ऑफ’ की परिभाषाएं समझने की कोशिश करते हैरत में हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है ?
कोई हजारों-हजार करोड़ रुपयों का कर्ज ले ले, चुकाने में सक्षम भी हो, लेकिन चुकाने की मंशा नहीं रखता हो, तो कानून क्या करे ? क्या सिर्फ यही कि कर्ज की उस भारी-भरकम राशि को बट्टे-खाते में डाल दे और हमें उसकी परिभाषा समझा दी जाए कि जी, हम भूले नहीं हैं उस कर्ज को, कोशिश जारी है…???
रोटोमैक कम्पनी एक छोटा-सा हिस्सा है इस गोरखधंधे का, जिसमें भारत के मेहनतकश लोगों के बैंकों में जमा पैसों को बड़े लोग कर्ज के रूप में लेते हैं और फिर ‘विलफुल डिफाल्टर’ बन जाते हैं. कोई इस राशि को पचा कर विदेश में ‘सेटल’ हो जाता है, किसी का पता ही नहीं चलता कि आजकल वह है कहांं ?
सुनते हैं, राइट ऑफ की गई राशि 10 लाख करोड़ से ऊपर जा पहुंची है. यानी 10 पर इतने शून्य…जिन्हें गिनते-गिनते आपका माथा सुन्न हो जाए.
पहले यूपीए सरकार इन बड़े लोगों को कर्ज देती थी और फिर वे बड़ी ही मासूमियत से विलफुल डिफाल्टर बन जाते थे, ‘लो जी, मैं कर्ज नहीं चुकाने वाला, जो करना है कर लो.’
उतनी ही मासूमियत से सरकार कर्ज की राशि को राइट ऑफ कर देती थी. पब्लिक में चिल्ल-पों होती तो जो भी संबंधित मंत्री या अधिकारी होता, हमें अर्थशास्त्र की गूढ़ शब्दावलियों में समझा देता कि….
फिर साहब का राज आया. नया नेता, नया दौर. लेकिन बड़े लोग वही, उनका रसूख वही, बैंक वही, कर्ज लेने की शैली वही, लिया हुआ कर्ज न चुकाने की मंशा वही और फिर मंत्री के बोल वही, हाकिमों के बोल वही.
‘…सरकार छोड़ेगी नहीं डिफाल्टर्स को…’
‘…कड़ी कार्रवाई होगी…’
‘…सरकारी एजेंसियां अपना काम कर रही हैं, ताकि बैंकों के कर्ज वसूल किये जा सकें…’
लेकिन निष्कर्ष यही कि हर साल हजारों-लाखों करोड़ के लोन ‘राइट ऑफ’ किये जाते रहे, बैंकों का भट्ठा बैठता रहा, पब्लिक पर टैक्सों की मार बढ़ती गई. देश विकास की नई गाथाएं रचता रहा.
एनडीए सरकार बोलती है कि ‘यह सब यूपीए सरकार का किया धरा है. हम तो उनके पापों को ढो रहे हैं जी.’ यूपीए के नेता बोलते हैं कि ‘हिसाब सामने लाओ, कितने कर्ज हमने बांटे और राइट ऑफ किये, कितने कर्ज आपने बांटे और राइट ऑफ किये.’
जाहिर है, साहब के राज के भी तो सातवें वर्ष में प्रवेश करने वाले हैं हम. आखिर, यह गंगा साफ होने की जगह और ज्यादा, और ज्यादा मैली ही कैसे होती जा रही है ?
एक अपने मेहुल भाई हैं कोई. सुना है, हीरा आदि का कारोबार करते हैं. कोई नीरव मोदी हैं. ऐसा ही कुछ चमकता-दमकता कारोबार उनका भी है. चर्चा है कि दोनों कभी साहब के नजदीकी थे. फिर, एक दिन सुना कि दोनों विदेश भाग गए. कोई इस देश, तो कोई उस देश.
क्यों भागे ? क्योंकि, दोनों ने 4-5 हजार करोड़ के कर्ज लिए सरकारी बैंकों से, और फिर उन्हें ‘विलफुल डिफाल्टर’ बनने का शौक चर्राया.
कितना मजा आता है न, इस गरीब देश के मेहनतकश नागरिकों के पैसे डकारने में और फिर विदेशों की सैर पर निकल जाने में.
अब सुन रहे हैं कि जो 68,607 करोड़ रुपयों के बैंक कर्ज ‘राइट ऑफ’ किये गए हैं अभी कल-परसों, और दर्जनाधिक महान आत्माओं को ‘विलफुल डिफाल्टर’ घोषित किया गया है, उनमें अपने मेहुल भाई आदि भी हैं.
रोड पर भूखे भटक रहे श्रमिकों को खाना देने के लिये, कोरोना पीड़ितों के इलाज के लिये सरकार नौकरी करने वालों का डीए रोक कर सवा लाख करोड़ रुपये ले रही है, प्रति माह एक दिन का वेतन अगले एक साल तक अलग से. हालांकि, यह अलग बात है कि कितने भूखों को पेट भर खाना मिल पा रहा है इस अफरातफरी में.
हमें कहा जा रहा है कि देश के लिये बलिदान करो और खरबपतियों का 68,607 करोड़ रुपया आनन-फानन में बट्टे खाते में डाल दिया. मामला 10-11 लाख करोड़ रुपयों पर जा पहुंचा है.
लानत है इस कारपोरेट राज को, जो खुल्लमखुल्ला लूट तंत्र बन गया है. हिसाब सामने आना चाहिये. कितना मनमोहन सरकार ने कारपोरेट लोन बांटा और फिर राइट ऑफ किया, कितना मोदी सरकार ने. एक-एक पाई का हिसाब सामने आना चाहिये और जिम्मेदारी निर्धारित की जानी चाहिये.
बहुत अधिक गरीबी है इस देश में. दुनिया के सर्वाधिक कुपोषितों की भीड़ है यहां. ये सब भी मां भारती की ही संतानें हैं.
हमारी राजनीति कारपोरेट संस्कृति की बंधक बन गई है. सत्ता तो राजनीतिक संस्कृति की कोख से ही निकलती है. तो फिर सत्ता से क्या उम्मीद करें…???
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