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संवाद में विश्वसनीयता का प्रश्न

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संवाद में विश्वसनीयता का प्रश्न

इन पंक्तियों के लेखक की समझ है कि संवाद में विश्वसनीयता का होना बहुत आवश्यक है. कह देने और सुन लेने अथवा लिख देने और पढ़ लेने से संवाद की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती है. कहना, सुनना, लिखना और पढ़ना संवाद की प्रक्रिया के प्रारंभ होने की स्थिति मात्र होते हैं. संवाद अपनी पूर्णता को तब प्राप्त करता है, जब वह अपने लक्ष्य तक पहुंच जाता है.

मानव जीवन में संवाद का क्या उद्देश्य होता है ? संवाद ज्ञान मीमांसा के एक अवयव के रूप में मानव जीवन में अपनी भूमिका निभाता है. संवाद के माध्यम से मनुष्य –

  1. प्रकृति जगत में अपनी स्थिति का बोध विकसित करता है.
  2. दी हुई प्राकृतिक परिस्थितियों में वह अपने जीवन को भौतिक एवं सांस्कृतिक रूप से विकसित करने का प्रयास करता है, और
  3. अपने ज्ञान के संसार को लगातार विकसित करता है.

लेकिन अगर संवाद अपनी प्रारंभिक भौतिक स्थिति – कहना, सुनना, लिखना और पढ़ना – तक सीमित रह जाए, तब वह ज्ञान मीमांसा को थोड़ा भी समृद्ध नहीं कर पाता है. वैसी स्थिति में संवाद निरर्थक गप्पबाजी में तब्दील हो जाता है. संवाद तब अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है, जब वह निम्नलिखित में से कम से कम किसी एक लक्ष्य को प्राप्त करता है –

  1. प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन करे.
  2. प्रकृति जगत में मनुष्य की उपस्थिति का उचित आकलन करे, अथवा
  3. उसके भौतिक व सांस्कृतिक जीवन को समृद्ध करने की संभावना को जन्म दे.

संवाद की पूर्णता की एक शर्त और है. वह है, समाज में अथवा समुदाय विशेष में संवाद के निष्कर्षों की स्वीकृति. यह अत्यंत कठिन कार्य होता है क्योंकि संवाद हमेशा ज्ञान को विस्तारित करने की चेष्टा करता है और नए निष्कर्षों तक पहुंचने का प्रयास करता है. ऐसे में उसे समाज में पारंपरिक रूप से मौजूद निष्कर्षों और जीवन मूल्यों से संघर्ष करना पड़ता है. नव अन्वेषित निष्कर्षों को पारंपरिक निष्कर्षों और जीवन मूल्यों को विस्थापित कर ही अपने को समाज में स्थापित करना होता है.

ठीक यहीं पर संवाद में विश्वसनीयता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है. संवाद द्वारा अन्वेषित नए निष्कर्ष तब तक समाज में स्वीकृति नहीं पा सकते, जब तक उन निष्कर्षों के प्रति समाज में विश्वसनीयता का भाव पैदा न हो जाए इसलिए संवाद की प्रक्रिया को प्रारंभ करने वाले व्यक्ति को लगातार इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसके द्वारा क्रियान्वित संवाद और उसके निष्कर्ष समाज में स्वीकृति को प्राप्त करे. अब प्रश्न है कि यह कैसे हो ?

संवाद और उसके निष्कर्षों की स्वीकृति के लिए आवश्यक है कि –

  1. संवाद की प्रक्रिया में निरंतरता हो.
  2. संवाद की प्रक्रिया में श्रोता व पाठक के प्रश्नों, टिप्पणियों और आलोचनाओं का ध्यान रखा जाए; अर्थात उनके महत्व को वक्ता अथवा लेखक से कम न आंका जाए.
  3. संवाद के दौरान इस बात को हमेशा रेखांकित करते रहने की जरूरत है कि प्रश्न सिर्फ संशय नहीं खड़ा करते हैं, बल्कि वह ज्ञान के नए आयामों को बीज रूप में स्थापित भी कर रहे होते हैं.
  4. संवाद के निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए ज्ञेय विषय की विवेचना तथ्यों के आधार पर की जा रही हो.

अगर संवाद सामाजिक एवं राजनीतिक बदलाव पर केंद्रित हो, तब संवाद की पूर्णता के लिए यह भी आवश्यक है कि संवाद में मुख्य भूमिका निभाने वाले व्यक्तियों के वचन और कर्म में एकरूपता हो. शिक्षाशास्त्र के नजरिए से भी शिक्षक के वचन और कर्म की एकरूपता अनिवार्य है.

राजनीतिक बदलाव के निमित्त संवाद की सफलता के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि राजनीतिक कार्यकर्ता के कथन और क्रियाकलापों में विपरीत संबंध न हो. साथ ही, यह भी आवश्यक है कि राजनीतिक कार्यकर्ता और जनता के बीच निरंतर संवाद हो. संवाद की निरंतरता निकटता को जन्म देती है और निकटता विश्वास का बीजारोपण करती है.

बदलाव की राजनीतिक शक्तियों के लिए इस संदर्भ में अंतिम लेकिन सबसे महत्वपूर्ण शर्त है, संवाद में सत्य का हाथ न छोड़ना. असत्य अथवा पाखंड बदलाव की राजनीति को निष्प्रभावी बना देता है.

  • अशोक कुमार सिन्हा

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