महावीर प्रसाद खिलेरी, पूर्व भाजपा आईटी सेल सदस्य
तमाम टकराव और वैचारिक मतभेद के बाद मुझे संघियों से सहानुभूति रही है. मैं अक्सर जब भी संघ की गणवेश में किसी स्वयंसेवक को देखता हूं तो मुझे वे दिन याद आते हैं जब मैं यानि महावीर प्रसाद खिलेरी तथा जोगलिया गांंव के लोकप्रिय सरपंच सनवर राम आदि कई भाई बंधु 5वीं से 10वीं तक पढ़ते थे और खेलने के लालच में शाखाओं में चले जाया करते थे.
बीजेपी आईटीसेल में (2012 से फरवरी 2016 हरियाणा जाट नरसंहार तक) तमाम आरएसएस के ब्राह्मण मित्रों के साथ में रहने के बाद वाले दिनों में आकर मालूम हुआ कि मैं ऐसे गिरोह में रमकर आया हूं, जहां इस गिरोह के लोग मनुष्य के मस्तिष्क में एक ख़ास तरह के नफरत भरे और धर्मांध मस्तिष्क का प्रत्यारोपण कर दिया जाता है.
प्रेमाराम सियाग, रामनारायण चौधरी, सुखवंत सिंह दांगी, ध्रुव राठी, अरविंद सहारन, पंकज धनकड़, मीत मन, विपीन सिंह बलियान, संगीता दहिया व तमाम मतभेदों के बाद भी अमेरिकन गप्पोड़ी/मौकापरस्त अवि डांडिया आदि के संपर्क में आने के बाद (खासकर मनोज दुहन व मा. वामन मेश्राम को सुनने के बाद) से मैं अपने आप के बच जाने को आज भी गनीमत मानता हूं.
हालांकि आपने देखा या सुना भी होगा कि ध्रुव राठी के साथ बीजेपी की असलियत बताते हुये दो इंटरव्यू देने के बाद बौखलाये हुये संघियों ने प्लानिंग करके मेरा यानि महावीर प्रसाद खिलेरी का घर-परिवार भी अग्निकांड करके एक बार पूर्णत: बर्बाद ही कर दिया था. हमारे पास कुछ भी दिनचर्या के प्रयोग का सामान तक नहीं छोड़ा था. उसके बाद से अब तक भी अस्त-ध्वस्त गृहस्थ हालातों को सही से संभाल नहीं पाया, ये मेरे तमाम करीबी मित्रों व शुभचिंतकों को हालात अच्छे से मालूम है.
हर स्वयंसेवक मेरी तरह से कभी अपने वास्तविक स्वरूप में अबोध और मासूम रहा होगा. अब जब मैं किसी जाट, गुर्जर, मीणा, यादव, पटेल, मराठा, कुर्मी, भील, मेघवाल, खाती, नाई, लोहार, सुनार, जसनाथी, विश्नोई, आंजणा आदि समाजों के टाबरों/बच्चों को संघियों से जुड़े देखता हूं तो उसकी इस अवस्था में उसका दोष कम मानकर उसकी परवरिश और आसपास के माहौल को भी दोषी मानता हूं जिन्होंने इसे ऐसा होने में योगदान दिया. एक संघी अपना सम्पूर्ण ब्रेन वाश होने के बाद किसी मौलिक चिंतन-मनन के लायक नहीं बचता. उसका जीवन चाबी भरकर चलने वाले एक खिलौने की तरह निरीह और लाचार होता है.
एक बेहद तंग दायरे में, तंग वैचारिकी की प्रक्रिया के द्वारा उसके मस्तिष्क की जो निर्मित (जिसे दुर्गति कहना ज्यादा सही होगा) होती है, जहां से उसका दिमाग सीमित दायरों के बाहर सोच भी नहीं सकता ! इंसान से इंसान के बीच जहर घोलने की सोच से भरे जिस गिरोह ने उसे यहां तक पहुंचाया है, उसके नेपथ्य की साज़िश को वह ता-उम्र कभी जान नहीं पाता है.
वह जिस संगठन के सदस्य होने पर गर्व करते हुए थकता नहीं है, उसका सच तो यह है कि उस संगठन ने उस बेचारे की चिंतन प्रक्रिया को बहुत पहले दिमागी नसबंदी करके मानसिक रूप से पंगू बनाकर हाथ में लाठी थमाकर पैदल सैनिक बना दिया होता है. उसकी हैसियत तेली की उस घाणी के बैल की तरह होती है, जिसकी आंख पर पट्टी बांधकर उसे ता-उम्र उस दुष्चक्र में घूमने पर मजबूत होना होता है.
उसकी ज्ञान प्रक्रिया आदर्श विद्या मंदिर जैसी पाठशालाओं में शुरू होती हैं, जहां की शैक्षणिक प्रक्रिया का जिम्मा संघीयों के हिस्से होता है. गुरु को ज्ञान हो तो चेले तक पहुंचेगा, अतः वहां से शुरू होता है एक दुष्चक्र. पाठशाला के बाद विष उगलती शाखाएं जिसमें तथाकथित संस्कृति की रक्षा के नाम पर जो सिखाया जाता है, उसका मैं स्वयं वर्षों तक साक्षी रहा हूं.
हम सुनते, पढ़ते व देखते आएं हैं कि इस्लाम के चरमपंथी दल जेहादी और फ़िदायीन आतंकी तैयार करते हैं, जो इस्लाम के नाम पर कुछ भी करने को उतारू होते हैं. संघ भी उन चरमपंथियों से कम नहीं है. सिवाय धार्मिक अलगाव और नफरत के अलावा उसने आज तक कुछ और नहीं सिखाया है.
एक स्वयं सेवक (संघी) का अध्ययन इतना कम होता है कि उससे क्या कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति वैचारिक बहस करेगा ! वह वैचारिक बहसों में अक्सर अपने सीमित ज्ञान के चलते परास्त होने पर सामने वाले पर हमला करने को आमादा रहता है. उसका इतिहास बोध इतना हास्यास्पद होता कि उसे कोई भारतीय इतिहास के सामान्य कालक्रम के बारे में पूछे तो वह बहुत भावुक होकर पांच हजार साल के काल्पनिक अखंड हिन्दू राष्ट्र का गुणगान करने लगता है.
उसकी राष्ट्रीयता की परिभाषा में उन राजाओं को राष्ट्रवाद या देशभक्ति का प्रतीक बताते हैं, जिन्होंने सिर्फ अपनी अपनी जमीन/जागीरों और रियासतों को बचाए रखने के लिए संघर्ष या समझौता किया और कोई प्रत्यक्ष युद्ध नहीं लड़ा. उसका भूगोल का ज्ञान आर्यावर्त जैसे अमूर्त भूखंड की कल्पना तक सिमटा हुआ रहता है.
राजनीतिक ज्ञान की तो चर्चा ही छोड़ दी जाए क्योंकि वह उसके रेंज से बाहर की बात होती है. छूटकलों वाली श्रीमदभागवत कथा के चार श्लोक, चाणक्य की चालाकी युक्त दो बातें और मनुस्मृति के स्त्री, किसान (शूद्र) विरोधी दो चार सूक्तियों के अलावा सच में उसे कुछ भी पता नहीं होता है. ऐसे ज्ञानवानों की यह पचपन अक्षोहिणी फ़ौज भारत को फिर से विश्वगुरु बनाने का दावा करती है. साहित्य संस्कृति और भाषा की बात इनके लिए बहुत दूर की कौड़ी होती है.
विज्ञान प्रौद्योगिकी और तकनीकी ने समय के साथ इतनी उन्नति कर ली लेकिन यह है कि हर मुश्किल का सामना लाठी से करने के लिए तैयार रहते हैं. संघियों के नादानियों के किस्सों से आजाद भारत का इतिहास भरा पड़ा है. एक नई नादानी जो इनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है उसका एक किस्सा आपको साझा करना चाहूंगा.
यह बाड़मेर शहर की हकीकत घटना है. कुछ ही साल पहले एक कुम्हार अपने व्यावसायिक जरूरत के लिए कुछ गधों को मिनी ट्रक पर लादकर अपने घर ले जा रहे थे. गधों को धूप से बचाने के लिए ट्रक पर त्रिपाल की छाया की हुई थी. रास्ता लंबा होने के कारण संध्या हो गई तो वो और उस मिनी ट्रक का ड्राइवर पानी के लिए एक ढाबे पर रुकते हैं.
एक सतर्क और चौकन्ने स्वयंसेवक ने जिसे हर ट्रक में गाएं ही नजर आती थी, अपनी जासूसी का गुरुत्तर दायित्व निर्वाह करते हुए संघ की ही अनुषंगी गौरक्षावहिनी सेना को तुरन्त आह्वान किया. कुछ ही पलों में गौमाता को बचाने का श्रेय लेने के लालच में मीडिया समेत स्वयंसेवक भक्त पदचालन करते हुए लाठियों से लैस होकर ढाबे पर पहुंचे और मलेच्छ समझकर उस निर्दोष कुम्हार को मार मारकर अधमरा कर दिया.
पत्रकारों ने मृत्यु के मुख में जाती हुई गौमाताओं का लाइव कवरेज करने के लिए त्रिपाल हटाया तो मिनी ट्रक के त्रिपाल के नीचे सहमे हुए चार मासूम गधों को पाया. वो गधे ही थे जिन्होंने उन गधों की खबर दी थी. यह बात मेरी कपोल कल्पित नहीं है. कुछ वर्ष पहले अख़बारों में प्रकाशित हो चुकी हैं. संघ की आपकी राष्ट्रीय चिंता के विस्तार का यह एक अनुपम उदाहरण है.
अपराधियों की अंतिम शरण स्थली राजनीति होती है, यह बात संघ पर भी लागू होती है. गैर कानूनी धंधे करने वाले (चाहे वो किसी भी किस्म का हो) सजायाफ्ता अपराधियों से लेकर लुच्चे लफंगे, उठाईगीरों से लेकर हत्यारों तक की एक लंबी फ़ौज है, जो संघ के स्वयंसेवकों का एक हिस्सा होकर भारत की अखंडता और एकता की चिंता रात-दिन किया करती है.
परस्पर मिलने पर एक दूसरे को भाई साहब का विनम्र संबोधन करने वाले ये मीठे सौधे ठग हर जगह है, ढाणी-देहात से कस्बों और महानगरों तक में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं, मगर इनकी खासियत यह है कि ये पहचाने नहीं जा सकते. रक्तबीज की तरह स्कूलों में अध्यापक से विश्वविद्यालयों में आचार्यों कुलपतियों तक, कोर्ट में अर्दली से वकील – जज बनकर, अस्पतालों में चपरासी से सर्जन तक, जेबकतरे से पंडितों तक, अनजानों से संबंधियों तक इनकी जड़ें गहरा चुकी हैं.
यह जिस भारत की अक्षुणता और अखंडता की बात करते हैं, उस भारत की आजादी की लड़ाई में इनका कोई हाथ नहीं है. संविधान निर्माण सभा में इनका कोई योगदान नहीं है. देश के संविधान और राष्ट्रध्वज तिरंगे का विरोध सबसे पहले इन्हीं राष्ट्रभक्तों ने किया था.
हां, आजादी के बाद अहिंसा के पूजारी महात्मा गांधी की हत्या का जिम्मा इनके ही चरमपंथी नाथूराम गोडसे पर था. इस गोडसे के मंदिर बनाने की बातें इन दिनों चरम पर है. भारत का साप्रदायिक वातावरण बिगाड़ने और वैमनस्य फैलाने में इनका कोई सानी नहीं है.
आज़ाद भारत में जितने भी साप्रदायिक दंगे हुए हैं, उसके मूल में संघ का हाथ है. आए दिन बुद्धिजीवियों पर जानलेवा हमले, मॉब लिचिंग, गौरक्षा के नाम पर आवारा पागलों की एक फौज वहशी बनकर सड़क चौराहों लोगों की निर्मम हत्या कर रही है.
हां, इनका एक दूसरा चेहरा है जो हिंसा के बाद पब्लिक वेलफेयर के नाम पर लीपा-पोती का काम करता है. अपनी काली करतूतों को ढंकने के लिए ये बहुरूपिए अवसर की ताक में रहते हैं. प्राकृतिक आपदा के समय खाकी सुंथने और खाकी टोपियां पहने ये लोग श्रेय लेने के चक्कर में फोटो सेशन करते हुए सब जगह मिलेंगे.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बुनियाद की पड़ताल करें तो हम पाएंगे कि इसमें ब्राह्मणवाद और सामंतवाद का एक छुपा हुआ चेहरा है, जिस कुंठित विचार को पोषित पल्लवित करने के लिए हर बेखबर संघी तथाकथित राष्ट्रीयता का पहरुआ बनकर भ्रम में जीता मरता है, जबकि सच यह है कि हर स्वयंसेवक उस मृत लेकिन अवशेष ब्राह्मणवाद और सामंतवाद का लठैत मात्र है.
कुदरत का एक नियम है कि जो उसके विरुद्ध होता है उसका विनाश देर सवेर तय है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत जैसे लोकतांत्रिक गंगा जमुनी तहजीब वाले मुल्क में एक ‘कोरोना’ की तरह है. वर्ष 2014 से यह ‘वायरस’ अपनी चरम पराकाष्ठा पर है. वह दिन दूर नहीं जब इस नासूर को काटकर बरसों से कराहते भारत को दर्द से राहत मिलेगी.
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