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फासीवादी सरकार की सोच और प्रचार प्रसार

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झूठी खबरों से उत्तेजना भड़काने वाली और अफ़वाहें फैलाने वाली संघ की प्रोपेगंडा फैक्ट्री जितने बड़े पैमाने पर नवीनतम आई.टी. तकनोलोजी का सहारा लेकर काम कर रही है, उसके आगे हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स की प्रचार मशीनरी भी बेहद छोटी और कम असरदार थी. गौरतलब है कि आई.टी. सेल के अतिरिक्त अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों और मोहल्ले-मोहल्ले तक फैले शाखाओं के नेटवर्क के ज़रिये काम करने वाली संघ की पारंपरिक प्रचार मशीनरी आज भी उसी गति के साथ काम कर रही है.

असाध्य ढांंचागत संकट से ग्रस्त जिस भारतीय पूंंजीवाद ने राजनीतिक-सामाजिक पटल पर धार्मिक कट्टरपंथी फ़ासिज़्म के इस विकट उभार को जन्म दिया है, उसी ने सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में ऐसी गंदगी पैदा की है, जिसमें आत्मा और शरीर पर संक्रामक बीमारियों के चकत्ते लिये,  पीले-बीमार चेहरों वाले मध्यवर्गीय कीड़े बिलबिला रहे हैं. इन कीड़ों को उग्र फ़ासिस्ट नारों की उत्तेजक नशीली खुराक से ही थोड़ा चैन मिलता है.

सोशल मीडिया पर जो ट्रोल और साइबर गुण्डे लगातार आकर गाली-गलौज करते रहते हैं, ये सभी वेतनभोगी टट्टू नहीं हैं. इनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जो अपनी ज़िन्दगी की निराशाओं-कुंठाओं-रुग्णताओं में जीते हुए और फ़ासिस्ट प्रचार की नियमित खुराक पर पलते हुए तर्क और विवेक की दुनिया से कोसों दूर जा चुके हैं.

ये मनोरोगी किस्म के लोग तर्क, विवेक और सेक्युलर-लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करने वालों से रोम-रोम से घृणा करते हैं, मुसलमानों से घृणा करते हैं, आज़ादख़याल स्त्रियों से घृणा करते हैं और उन मज़दूरों से घृणा करते हैं जो ग़ुलामों की तरह पीठ झुकाए जीने के बजाय अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाते हैं.

इनमें बहुत से सामंती सोच की पैदाईश हैं जो पैसे, जाति के बल पर डाक्टर, इंजिनियर, प्रोफेसर की जुगाड़ू डिग्री और पद प्राप्त कर दुर्भाग्य से समाज में उच्च स्थान पर बैठ गये हैं लेकिन वास्तविक प्रतिभा चपरासी की  भी  नहीं है.

जब भी ये तथाकथित पढ़े लिखे, भड़क कर उन्माद के रोगियों की तरह प्रलाप शुरू करते हैं तो इनके मुंंह से निकालने वाली गालियांं स्त्रियों के प्रति इनकी मनोरुग्णता को सरेआम उघाड़कर रख देती हैं.

अपने रोज़मर्रा के जीवन में किसान भी अक्सर गालियांं देते हैं, पर ये उनकी आदत-सी होती है जो उनके किसानी जीवन की उबाऊ गतिहीनता और प्रतिगामी सांस्कृतिक माहौल की देन होती है. किसान जब अपने बेटे को भी बेटी की गाली देता है तो उसके शब्दार्थ पर उसका दिमाग़ जाता ही नहीं. गालियांं उसके लिए डांंटने, अपमानित करने और स्त्रियों और युवाओं को अपनी सत्ता का अहसास दिलाने का माध्यम होती बस होती हैं, उसमें गंदगी नहीं होती.

लेकिन एक फ़ासिस्ट ज़हनियत का सामंती सोच का मध्यवर्गीय नागरिक जब यौन-हिंसा का अर्थ लिये हुए कोई गाली देता है तो वह शाब्दिक स्तर पर वह हिंसा स्वयं करने का, कल्पना में उसे जीने का रुग्ण परपीड़क आनन्द लेता है. फ़ासिस्ट जब अपने किसी विरोधी पर चुन-चुन कर और रच-रच कर गालियों और तमाम भद्दी बातों की बौछार करता है तो उसके राजनीतिक स्तर के हिसाब से यह उसके राजनीतिक संघर्ष का उच्चतम रूप होता है, और सांस्कृतिक-आत्मिक स्तर के हिसाब से, यह उसका उच्चतम कोटि का मनोरंजन होता है. उसके मनोरंजन का उच्चतम स्तर एक कामोन्माद के रोगी के आत्म-उत्तेजन और एक सड़क के कुत्ते के चरमसुख से अधिक कुछ नहीं हो सकता !

अब असली सवाल यह है कि इन मनोरोगी, कटकटाये कुत्तों जैसे गुण्डों की भीड़ के पीछे चिकने-चुपड़े चेहरों वाले जो शान्तचित्त फ़ासिस्ट नीति-निर्धारक और रणनीतिशास्त्री बैठे हैं, दरअसल वे क्या सोचते हैं.

पहली बात, फ़ासिस्ट नेता और बुद्धिजीवी भी विभाजित व्यक्तित्व और विकृत मानसिकता के लोग हुआ करते हैं. बुर्जुआ राजनीति की बाध्यताएंं उन्हें खुलकर गाली-गलौज की भाषा में बात नहीं करने देतीं, पर उनके भाड़े के टट्टू और छुटभैय्ये नेता जब गाली-गलौज और बेहद फूहड़-गन्दी बातें करते हैं तो यह चीज़ उन्हें भी एक किस्म की मानसिक तृप्ति और आत्मिक आनन्द देती है. भूलना नहीं चाहिए कि स्त्रियों को बर्बर, गन्दी गालियांं देने वाले अनेक साइबर गुण्डों को ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी ख़ुद फ़ॉलो करते हैं.

हर गाली में फ़ासिस्ट को अपने विरोधी को पराभूत करने के साथ ही स्त्रियों को अपमानित करने और कुचलने का भी आनन्द मिलता है इसीलिए, कह सकते हैं कि जो स्त्रियांं फ़ासिस्टों की नेतृत्व मण्डली में स्थान हासिल करती हैं और उनकी वाहिनियों में पल्लू खोंसकर उन्मादी नारे लगाती हैं, वे दोनों ही अपने व्यक्तिगत इतिहास और वर्ग-पृष्ठभूमि के मिले-जुले कारणों से विघटित और विकृत स्त्री-चेतना वाली स्त्रियांं होती हैं.

वैज्ञानिक आलोचना अपने सबसे तीखे रूप में भी आक्रामक तर्क के साथ साहित्यिक भाषा में विपक्ष पर प्रहार करती है, व्यंग्य करती है, उस पर चोट करती है, पर किसी भी सूरत में वह व्यक्तिगत गन्दे आक्षेपों और भद्दे-अश्लील, स्त्रियों और पूरी मानवता को अपमानित करने वाले गाली-गलौज तक नहीं उतर सकती. समाज में आप आम तौर पर देखेंगे कि अफ़वाहबाज़ी और गाली-गलौज पर आम तौर पर वही लोग उतारू होते हैं जो या तो वैज्ञानिक मनोवृत्ति के लोग नहीं होते, या फिर ऐसे फ़र्ज़ी भद्रपुरुष होते हैं जिनकी आलमारी में कंकाल बन्द रहते हैं.

प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ चेतना का उन्नततम संगठित रूप होने के नाते, फ़ासिस्ट मानस की संरचना ही ऐसी होती है, जो बुनियादी तौर पर वैज्ञानिक तर्कणा का ही विरोधी होता है. फ़ासिस्ट मानस किसी न किसी किस्म की ‘फे़टिश’ (अन्धभक्ति) की ख़ुराक पर जीता है. तर्क और तथ्य की बातें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और इतिहास-बोध की बातें उसके तन-बदन में आग लगा देती हैं. फ़ासिस्ट बुद्धिजीवी के मिथ्याभासी तर्क गढ़े गये तथ्यों की बुनियाद पर खड़े होते हैं.

अगर आप उसकी धारणाओं पर चोट करते हैं, तो, चूंंकि वह तर्क कर ही नहीं सकता, इसलिए उसके सामने गाली-गलौज के सिवा कोई रास्ता बच ही नहीं जाता. उसका बस चले तो वह ऐसे तमाम लोगों की जान ले ले लेकिन समस्या यह है कि एक रस्मी ही सही, लेकिन बुर्जुआ संसदीय प्रणाली में काम करने के चलते सारे तर्कशील बुद्धिजीवियों को दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी, गौरी लंकेश की तरह मौत के घाट तो नहीं उतारा जा सकता. गाली-गलौज, मारपीट और आतंकित करने से, और सत्ता में होने पर क़ानूनी दबावों के द्वारा ही फ़ासिस्ट लक्ष्य पाने की कोशिश करेंगे, फिर अन्तिम विकल्प, यानी हत्या, तो हाथ में रहेगा ही.

फ़ासिस्ट सोचते हैं कि जब वे भद्दी-भद्दी गालियांं सड़कों पर या सोशल मीडिया पर देंगे तो शरीफ़ नागरिक, और विशेषकर स्त्रियांं, सकुचाकर, शरमाकर, हतोत्साहित होकर चुप लगा जायेंगी. इसका एकमात्र जवाब यह है कि उन्हें यह दो-टूक बता दिया जाये कि कुत्तों और मनोरोगियों से भला क्या शरमाना ? कुकर्म करो तुम, मानसिक बीमार हो तुम, और शर्मायें हम ?

अगर वे सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, मायावती या किसी भी औरत पर अश्लील टिप्पणियों और गालियों की बौछार करते हैं तो इन लोगों को नहीं, बल्कि शर्माना चाहिए निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, हेमा मालिनी, वसुंधरा राजे आदि-आदि को, और ऐसी मनोरोगी औलादों के माँ-बाप को. ऐसे ही कुछ मां बाप की औलादें मीडिया और चैनलों पर अपनी कुंठा निकाल कर अपने गंदे नाली के बजबजाते गटर की पैदाइश का नमूना पेश कर हैं, अर्णव गोस्वामी इसका ताजा नमूना है.

ऐसे ही इन बजबजाते गटर के लिए असगर वजाहत ने एक कहानी लिखा है, ‘टीवी एंकर का इंटरव्यू.’

आप टीवी एंकर होने से पहले क्या करते थे ?

मैं एक लिंचिंग ग्रुप का मेंबर था.

क्या टीवी एंकर बनने में पुराना अनुभव आपके काम आया ?

दरअसल पुराने अनुभव के आधार पर ही मुझे टीवी एंकर बनाया गया है.

लिंचिंग का अनुभव टीवी एंकर के काम में कैसे सहायक सिद्ध हुआ ?

लिंचिंग करने के लिए जिस क्रोध और घृणा की जरूरत पड़ती है, वह एंकरिंग करते हुए मेरे बहुत काम आया. लिंचिंग करने में जिस तरह हाथ पैर चलाए जाते हैं, उसी तरह टीवी की एंकरिंग करते हुए भी मैं हाथ पैर चलाता हूं, जिसे लोग पसंद करते हैं.

तो आपने रोड पर लिंचिंग करना छोड़ दी ?

मुझे लगा छोटा काम है.

उसके बाद ही आप टीवी एंकर बन गए ?

टीवी एंकर मेरे लिए छोटा शब्द है.

फिर आप अपने लिए कौन-सा शब्द इस्तेमाल करना चाहेंगे ?

टीवी लींचेर कह सकते हैं.

तो आप टीवी पर कौन सा प्रोग्राम करते हैं ?

वही जो पहले सड़क पर करता था.

मतलब आप पहले लिंचिंग करते थे और अब जो करते हैं उसमें तो काफी फर्क है ?

नहीं.

कैसे ?

पहले हम सब मिलकर किसी एक आदमी की लिंचिंग करते थे.

और अब ?

अब मैं अकेला लाखों लोगों की लिंचिंग कर देता हूंं.

इसी पेशे में बने रहेंगे या भविष्य में कुछ और करने का इरादा है ?

राजनीति में जाने का इरादा है.

चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिल जाएगा.

हां क्यों नहीं. जब लिंचिंग के लिए टिकट मिल गया था तो चुनाव के लिए क्यों नहीं मिलेगा ?

(यह लेख डरबन सिंह भेजे हैं, जिसका बड़ा हिस्सा कविता कृष्णपल्लवी के एक लेख से लिया गया है.)

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