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वेतनभोगी मध्यवर्ग की राजनीतिक मूढ़ता

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वेतनभोगी मध्यवर्ग की राजनीतिक मूढ़ता

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

जैसा कि भारत सरकार का आदेश निर्गत हुआ है, अगले एक से डेढ़ वर्ष में एक सामान्य सरकारी नौकरी पेशा आदमी के वेतन से औसतन डेढ़ से दो लाख रुपये की कटौती कर ली जाएगी. यह कटौती जनवरी, 2020 से लेकर 30 जून, 2021 तक के महंगाई भत्ते की तीन किस्तों को फ्रीज करके की जाएगी. इसके अलावा मासिक वेतन से एक दिन के वेतन की राशि की कटौती अलग से होगी..यह अभी स्पष्ट नहीं है कि एक दिन के वेतन की कटौती कितने महीने तक की जाती रहेगी.

जबसे नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई है, इसके लिये वेतन भोगी वर्ग सबसे नरम चारा रहा है. वेतन वृद्धि की दर कम से कम जबकि टैक्सों और कटौतियों की मार अधिक से अधिक.

कोई भी हिसाब लगा सकता है कि मोदी राज में आय कर की दर आनुपातिक रूप से इतिहास में सर्वाधिक रही है. इसके अलावा, जितने भी तरह के टैक्स होते हैं, उनकी दरें भी बढ़ती ही गई हैं. पेट्रोल-डीजल पर जो टैक्स लगता है, वह भी इतिहास में सर्वाधिक है.

वेतनभोगियों से वसूल करना आसान होता है, जबकि व्यापारियों और बड़े कारपोरेट घरानों से वसूल करना उतना ही कठिन. ऊपर से, हाल के वर्षों में मध्यवर्गीय वेतन भोगी वर्ग की राजनीतिक मूढ़ता चरम पर पहुंचती गई है, जिस कारण उसको लूटना और अधिक आसान होता गया है.

तो, मध्यवर्गीय वेतनभोगियों को लूटने में मोदी सरकार ने कभी कोई रहम नहीं दिखाई. उसे पता है कि हर चोट खा कर भी जयकारा लगाने वाला यह वर्ग अपनी राजनीतिक मूढ़ता को राजनीतिक विकल्पहीनता के आवरण से ढ़कता रहेगा.

निस्संदेह, अभी का कोरोना संकट बहुत भयानक है और इसके प्रभाव बहुआयामी हैं. समाज के हर वर्ग को इस संकट काल में कुर्बानियां देनी होंगी. लेकिन रुकिये. इन कुर्बानियों को आप वर्गीय आधार पर विश्लेषित कैसे करेंगे ? क्या यह सामूहिक कुर्बानी है ?

नहीं. कारपोरेट राज में सामूहिकताएंं अक्सर हाशिये पर ही रहती हैं और जो वर्ग जितना ही हाशिये पर है, वह उतना ही शोषित और पीड़ित है.

अर्थशास्त्री लोग यह हिसाब लगाएंगे कि देश में सरकारी वेतन और पेंशनभोगियों की कितनी संख्या है और सरकार के इस आदेश से अगले एक-डेढ़ साल में कितनी राशि इनके वेतन/पेंशन से काटी जाएगी. लेकिन, अनुमान तो कोई सामान्य आदमी भी लगा सकता है कि यह राशि हजारों करोड़ में जाएगी. शायद लाखों करोड़ में भी जाए.

कटौती की जाने वाली हजारों लाखों करोड़ रुपयों की इस राशि का उपयोग कोरोना संकट से निपटने में किया जाएगा. लेकिन, इस खर्च की पारदर्शिता को लेकर अनेक सवाल हैं.

प्रधानमंत्री आपदा कोष के रहते हुए पीएम केयर फंड बनाना और उसे ऑडिट या आरटीआई से मुक्त रखना, यह संदेह उत्पन्न करने वाली स्थिति है.

हमारे गांव के बगल के गांव का एक मजदूर दिल्ली से पैदल ही बिहार आते आते बनारस के करीब कहीं मर गया. खबर है कि उसके पेट में अन्न के दाने नहीं पाए गए.

भूख से लड़ते लोगों की भीड़ भिखारियों की शक्ल में मीलों लंबी लाइनें लगा रही है और उन्हें पेट भर खाना भी नहीं मिल पा रहा. सरकारें स्वास्थ्य तंत्र के मोर्चे पर तो लचर साबित हो ही रही हैं, अन्न और भोजन बांटने में भी उतनी ही लचर नजर आ रही हैं. तब, जबकि कहा जा रहा है कि देश में अनाज के गोदाम भरे पड़े हैं और उनमें चूहों के खानदान मुटिया रहे हैं.

देश जब भी संकट में आया, लोगों ने हर सम्भव योगदान दिया है, बलिदान भी दिया है लेकिन क्या आम लोग सिर्फ योगदान और बलिदान के लिये ही हैं ?

वेतन भोगियों से इतनी बड़ी कटौती और उनसे कितनी जो इस देश की आबादी के महज एक प्रतिशत हैं और रिपोर्ट्स के अनुसार देश की 60 प्रतिशत संपत्ति के मालिक हैं ?

इस एक प्रतिशत की आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का 60 प्रतिशत ही जमा नहीं है, आलम यह है कि बीते वर्षों में ऊपर की इस एक प्रतिशत की आबादी ने देश की कुल आमदनी के 73 प्रतिशत पर कब्जा कर लिया.

रिपोर्ट्स साक्ष्य देते हैं कि जब से नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई है तब से आर्थिक विषमता बढ़ने की दर इतिहास में सर्वाधिक हो गई है. कुछेक प्रतिशत लोगों की तिजोरी में संपत्ति के संकेन्द्रण की दर भी इतिहास में सर्वाधिक रही है, जिन्हें इन तथ्यों पर संदेह है वे कृपया ऑक्सफेम की रिपोर्ट्स देख लें.

मोदी सरकार ऊपर की इस एक प्रतिशत अति धनी आबादी से क्या और कितना वसूल करेगी कोरोना संकट के नाम पर ? और जो वसूल करेगी उसका साफ फिगर देश कभी जान भी सकेगा ?

नीतिगत स्तरों पर अपंगता का आलम यह है कि महानगरों से लेकर हाइवेज पर भटकते लाखों श्रमिकों के लिये कोई स्पष्ट आदेश या न्यूनतम मानवीय व्यवस्था अब तक नहीं है. भटकते हुए लोग भूख और रोग से मरते जा रहे हैं लेकिन सरकार उन्हें शेल्टर या भोजन मुहैया करवाने की जगह देश के प्रति उनके कर्तव्यों की याद दिला रही है.

जिनके लिये सरकार को सबसे पहले खड़ा होना चाहिये था, वे लाखों-करोड़ों लोग अपने को अनाथ मान कर सदमे में हैं. सरकारी तंत्र संकट की पहली परीक्षा में ही असफल नजर आया.

वैसे, मीडिया का बड़ा वर्ग बाकायदा अब भांड है, तो उसके माध्यम से संकट के इस काल में जय जय करवाना चल ही रहा है. बाकी, वेतनभोगी मध्यवर्ग की राजनीतिक मूढ़ता का सहारा तो है ही, जो लुट-पिट कर भी जय जय करने में उन भांड एंकरों/पत्रकारों से प्रतियोगिता करते रहेंगे.

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ROHIT SHARMA

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