विनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार
सत्ताधारी पार्टी की वोट बटोरने की सनक के चलते सामाजिक सौहार्द के मोर्चे पर जो नुकसान राष्ट्र को उठाना पड़ेगा उस कि भरपाई भविष्य में नहीं हो पाएगी, आर्थिक मोर्चे पर हुए नुकसान की भरपाई तो देर सबेर हो ही जाएगी.
गंगोत्री जल की तरह हमारे प्रधानमन्त्री जी को निर्मल, पारदर्शी और पवित्र मान उनके प्रति भी गङ्गा जैसी आस्था दिखाने वाले लोगों की भीड़ एक बहुत बड़े संयुक्त परिवार के रूप में तेजी से उभर रही है और सत्ता की चाशनी में लिपटी एकजुट भी दिख रही है. तेजी से उभरता यह संयुक्त परिवार इस सच्चाई को स्वीकार करने को कतई तैयार नही है कि गंगोत्री से नीचे मैदानी इलाकों में आगे बढ़ती गङ्गा उत्तरोत्तर प्रदूषित, गन्दी और विषैली होती जा रही है.
दूसरी तरफ टुकड़े-टुकड़े बंटे समाज के कुछ लोग है, जो गंगोत्री से निकल कर निचले मैदानी इलाकों में गङ्गा में बढ़ते प्रदूषण यानी कि फैलते भ्रष्टाचार को अपने-अपने तरीके से सत्ता की ‘कमजोरी और संलिप्तता’ के रूप में उठाते रहते हैं.
संयुक्त परिवार में जिन लोगों की भीड़ तेजी से बढी है उनका ध्येय सिर्फ – सड़कों पर राष्ट्र प्रेम का ढिढोरा पीटना ही है. इनलोगों का न तो कोई नैतिक चरित्र है और न पवित्र राष्ट्रीय उद्देश्य. ये लोग जिन दलों को छोड़ कर संयुक्त परिवार में शामिल हुए है, वहां भी अपनी इन्ही हरकतों से उन्हें भी डुबो चुके हैं.
नौकरशाही का नीचे से लेकर ऊपर तक ऐसे नेताओं के साथ गठजोड़ पुरानी बीमारी है. आरएसएस जैसी तपी तपाई संस्थाएं भी, अपने को इस बीमारी के संक्रमण से मुक्त नहीं रख सकी हैं. पुराने स्वयं सेवक भारी घुटन से पीड़ित हैं और इस कारण ‘संघ’ में खुद को उपेक्षित महसूस करने लगे हैं. वे अपनी इस खिजलाहट का इजहार मौके बेमौके करने भी लगे हैं.
आरएसएस के राजनैतिक अनुषांगिक सङ्गठन भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं की माने तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद कर सत्ता में आई पार्टी वोट बटोरने की सनक के चलते पगला-सी गई है. वे इसका बड़ा कारण यह मानते हैं कि भाजपा से जुडी नई-नई भीड़ के लोगों में परंपरागत नैतिक अनिवार्यताओं जिसकी नींव आरएसएस द्वारा हर कार्यकर्ता केदिल-ओ-दिमाग में रख्खी जाती है, का घोर अभाव है.
प्रधानमंत्री जी के प्रति आस्था का ढोंग रचने वालों को, वर्तमान सत्ता की व्यवस्थापिका में कमजोरी ढूंढ़ने वालों से भारी खतरा है. उन्हें लगता है कि तमाम तिकड़म के बाद हाथ लगा अवसर भ्रष्टाचार उजागर करने वालों के कारण कहीं खो न जाय.
टुकड़े-टुकड़े और संयुक्त परिवार दोनों के बीच बढ़ते टकराव से भारतीय राजनैतिक परिदृश्य में जो बात उभर कर सामने आ रही है, वह यह कि नए दौर की भाजपा जो हाल ही में विश्व के सबसे बड़े राजनैतिक सङ्गठन के रूप में उभर कर सामने आई है, में नए-नए भर्ती हुए लोग सत्ता के पद और प्रतिष्ठा से लैस होते जा रहे हैं.
मुख्य रूप से यही लोग संयुक्त परिवार के भीतर और बाहर सार्वजनिक तौर पर भ्रष्टाचार को उजागर करने वालों को, सत्ता और राष्ट्र विरोधी गतिविधि में लिप्त और प्रधानमंत्री की लोकप्रियता से जलने वाला बताते हैं और दलील देते हैं कि इनके आकाओं का इतिहास भी गन्दा और भ्रष्टाचारी रहा है, अतः इन्हें कोई हक़ नहीं पैदा होता है कि ये, गंगोत्री के जल की तरह पवित्र हमारे प्रधानमंत्री पर उंगली उठायें. मानो प्रधानमन्त्री देश की 135 करोड़ लोगों के नहीं उनके संयुक्त परिवार के ही मुखिया हैं.
दोनों परिवारों की एक ही कमजोरी है कि गंगोत्री जल की तरह निर्मल और पवित्र छवि वाले लोग कहां से लाएं ? एक के पास मोदी सरीखा दूसरा कोई नहीं है और दूसरे टुकड़े-टुकड़े परिवारों में किसी के पास मोदी का मुकाबला कर सके वैसा कोई नहीं है.
आप, भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी व्यवस्था पर बात करें या कोरोना की पीठ पर बैठ कर मीडिया द्वारा देश भर में इसको फैलाने का दोष, सिर्फ एक धर्म के अनुयायियों के सिर मढ़ने की करें, वो पूरे विमर्श को ‘हमारे प्रधानमन्त्री जैसा कोई नहीं’ पर लाकर खड़ा ही नहीं कर देंगे, आपको बद से बदतर भाषा की बदबूदार कीचड़ से नहला भी देंगें.
कोरोना की महामारी से त्रस्त राष्ट्र अपनी टूटी और झुकी कमर को फिर से सीधा कब कर पायेगा, इसका आंंकलन तो तभी होगा जब ‘राष्ट्र खुद को कोरोना के दुबारा आक्रमण की स्थिति में इससे निबटने में सक्षम है’, यह विश्वास, देश के हर नागरिक के दिमाग में गहरे बैठा पाएगा. हर नागरिग के दिमाग में जब तक यह बात ठीक से नहीं बैठेगी, वे कोरोना के चलते देश में बन गए भय के माहौल से उबर नही पाएंगे.
आज यह राष्ट्र के खेवनहारों के कंधे पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है लेकिन क्या यह जिम्मेदारी राष्ट्र के खेवनहारों के कंधों पर ही है ? नहीं, यह हिन्दू और मुसलमान दोनों सम्प्रदायों के जिम्मेदार और समझदार लोगों के कंधों पर भी समान रूप से है. दोनों ही तरफ जाहिल और गैर-जिम्मेदार उन्मादी लोगों की भीड़ है. दोनों सम्प्रदाय में जाहिल कट्टरवादी धर्मांध लोग और कुछ सिरफिरे धर्मगुरु हैं, जो इसमें तड़का लगाने का काम करने से बाज नहीं रहेंगे, उन्हें रोकने के सख्त उपाय तो राज्य को करने ही होंगे.
कोरोना के दौरान लम्बे चले लॉकडाउन के कारण रोजी रोजगार से हाथ धो बैठे लोग, जिनके सामने अपने परिवार के जीवनयापन की समस्या विकराल रूप ले कर खड़ी हो गई है, को थोड़ा-सा लालच देकर सहज ही बरगलाया जा सकता है. ऐसे लोगों पर दोनों समुदायों में मौजूद उन्मादी लोगों की पैनी नजर गड़ी हुई है. अगर सत्ता के इरादे नेक है, तो उसे इसे रोकने की ईमानदार कोशिश करनी चाहिए.
इस कोशिश की शुरुआत इन लोगों की पहचान करने और उन्हें ‘जीवन यापन भत्ता देने और बदले में कुछ काम लेने की योजना’ तैयार करना भी एक तरीका हो सकता है. यह जिम्मेदारी राज्य के कंधों पर आन पड़ी है, जिससे दोनों सम्प्रदाय के इन लोगों को लगे कि बुरे वक्त में वे भी अपने राष्ट्र के पुनर्निर्माण में एक महत्वपूर्ण कड़ी हैं. इनका दुरुपयोग दोनों ही सम्प्रदायों के जाहिल लोग आसानी से न कर सके, ऐसे उपाय करना राज्य की जिम्मेदारी है.
वरना सत्ताधारी पार्टी की वोट बटोरने की सनक के चलते सामाजिक सौहार्द के मोर्चे पर जो नुकसान राष्ट्र को उठाना पड़ेगा उस कि भरपाई भविष्य में नहीं हो पाएगी, आर्थिक मोर्चे पर हुए नुकसान की भरपाई तो देर सबेर हो ही जाएगी.
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