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लड़ते और लड़ते दिखने का फर्क

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लड़ते और लड़ते दिखने का फर्क

गुरुचरण सिंह
ऐसी आपदा की घड़ी में जब राज्य का हर नागरिक, हर सरकारी कर्मचारी पूरे मनोयोग से प्रदेश की जनता की सेवा में लगा हुआ है, उसे लगभग एक महीने तक वेतन न मिलना क्या उसके मनोबल पर विपरीत प्रभाव नहीं डालेगा ?

हालांकि दोनों देशों के मौजूदा बड़बोले राजनीतिक नेतृत्व में बहुत सी समानताएं है, फिर भी कुदरत ने दोनों को दो अलग और विपरीत दिशाओं के महाद्वीपों में रखा हैं. कोलंबस के मन में भारत की छवि शायद अमरीका जैसी ही रही होगी तभी तो उसने अपनी खोज को इंडीस का नाम दिया. कहते हैं दर्द सबको जोड़ता है और लालच तोड़ता है. कोरोना जैसी विश्वव्यापी महामारी ने भी तो पूरे विश्व को एक गांव में बदल दिया. गांव में जैसे हर किसी को हर दूसरे आदमी के बारे में सब पता होता है, वैसे ही दूसरे देशों की कोरोना जनित खबरों से भी हम परिचित रहते हैं.

इसके बावजूद हम दोनों की ही इससे प्रति प्रतिक्रिया हैरान करने वाली है. सबसे अधिक रोजाना मानव क्षति के चलते उपजी गहन हताशा के बावजूद अमरीका के तेवर और कार्रवाई से लगता है कि वह इसकी रोकथाम के लिए किसी भी सीमा तक जाने के लिए तैयार है – ऐसे ही किसी वायरस की खोज और उसके तोड़ के लिए अपने पूर्व सहयोगी चीन के सिर पर इसका ठीकरा केवल इसी तथ्य को लेकर फोड़ सकता है कि उसने इस पर काबू पा लिया है और उसकी अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटने लगी है, मलेरिया की दवा के लिए भारत को घुड़की भी दे सकता है, चोरी-डकैती भी कर सकता है जैसा उसने चीन से फ्रांस, जर्मनी और तमिलनाडु जा रही जांच किटों की खेप को अमरीका पहुंचा कर दिखा दिया है..बता दें कि फ्रांस ने दो लाख, जर्मनी ने पांच लाख और तमिलनाडु ने चीन को एक लाख जांच किट भेजने का ऑर्डर दिया था.

देश की आबादी को देखते हुए यह अंदाज़ा लगना बिल्कुल ही कठिन नहीं है कि (इस पर लगभग काबू पा चुके देशों को छोड़ कर) अपने यहां इनकी जरूरत दुनिया के मुकाबले अगर ज्यादा नहीं तो किसी तरह कम भी नहीं है. इसके बावजूद समस्या के प्रति हमारा रवैया लगभग टालू किस्म का ही रहा है. दरअसल समस्या एक व्यक्ति की नहीं, संघ-भाजपा की कार्य संस्कृति की है. किसी भी समस्या का हल ढूंढने की बजाए उसके राजनीतिकरण की है. सीमित संसाधनों को गैर-जरूरी कामों पर खर्च कर देने की है. सच कहें तो यही गैरजरूरी काम संघ-भाजपा के लिए सबसे अधिक जरूरी काम होते हैं जो हर हालत में किए ही जाने चाहिए, फिर चाहे वह सरदार पटेल की गगनचुम्बी मूर्ति बनाना हो या NAA, NPR, सेंट्रल विस्टा जैसे मुद्दों/परियोजनाओं में सभी संसाधनों को झोंकना हो.

कैसे देश का सबसे खुशहाल एक राज्य अपना खर्च चलाने तक के लिए भी कर्ज लेने के लिए मजबूर हो जाता है, इसके लिए पड़ोसी राज्य हरियाणा की केस स्टडी करना बेहतर होगा. दूसरी वजह व्यक्तिगत है, संघ चालित स्कूल (उन दिनों) गीता हाई स्कूल, कुरुक्षेत्र का छात्र रहा हूं इसलिए भावनात्मक रूप से इससे जुड़ा हुआ महसूस करता हूं.

पंजाब से अलग होने की एक वजह यह बताई गई थी कि संयुक्त पंजाब में हरियाणवी इलाकों के साथ आर्थिक भेदभाव का व्यवहार होता है वरना तो चौधरी देवीलाल और प्रकाश सिंह बादल के बीच गहरी छना करती थी. खैर, कुछ तो सच्चाई थी ही जाने-अनजाने लगे इस आरोप में ! यही कारण था कि अपनी जबरदस्त राजनीतिक इच्छाशक्ति के बल पर देश का सबसे खुशहाल राज्य होने का दर्जा भी हासिल कर लिया उसने और वह भी भजन लाल के नेतृत्व में दलबदलू राजनीति की शुरूआत करने के बावजूद !

जाट प्रमुखता की राजनीति वाले राज्य में जाटों को अलग थलग और विभाजन के दौरान पाकिस्तान से आकर हरियाणा में बसे पूर्व रिफ्यूजियों को संगठित करके मनोहर लाल खट्टर जब भाजपा के मुख्यमंत्री बने, तब भी आर्थिक दृष्टि से देश का सिरमौर बना हुआ था ! फिर छ: बरस के अंदर ही ऐसा क्या हो गया कि उसके हाथ में भीख का कटोरा आ गया ?

पिछले दिनों ही हरियाणा के मुख्यमंत्री ने बयान दिया था कि ‘कर्मचारियों के वेतन और अन्य खर्चों के लिए भी खजाने में पैसा नहीं है; इसके लिए केंद्र सरकार से 6200 करोड रुपए का कर्जा लेना पड़ेगा.’ अपनी बात कहने से पहले बता दें कि इस समय देश एक ‘राष्ट्रीय आपदा’ के दौर से गुजर रहा है और ऐसे में किसी भी नेता से यह उम्मीद की जाती है कि वह अपने देश/राज्य के नागरिकों का मनोबल न गिरने दे. कोरोना महामारी के चलते जब राज्य के छ: जिले रेड जोन में हैं, तब तो किसी भी कीमत पर नहीं. लेकिन यह बात शायद भाजपा पर लागू नहीं होती ! ‘मांगि के खइए’ वाली विप्र संस्कृति के पैरोकार जो हैं। प्रधानमंत्री पीएम केयर फंड बना कर दान के लिए गुहार लगाते हैं और खट्टर साहब कर्ज लेने की मजबूरी बता देते हैं, दोनों में से कोई भी दूसरे गैर-जरूरी कामों में झोंके संसाधनों को वहां से हटा कर कोरोना की रोकथाम की लड़ाई में लगाने की सोचता तक नहीं, उसे संघ की शाखा में ऐसा करना किसी ने सिखाया ही नहीं !

कोरोना के प्रकोप के चलते लॉकडाउन शुरू होने से पहले तक भी सरकारी विज्ञापनों में हरियाणा पहले नंबर पर ही कायम था, फिर एक महीने के अंदर अंदर ही ऐसा क्या हो गया कि कर्जा लेने तक की नौबत आ गई ? ऐसा किस मद पर और कितना खर्च कर दिया आपने कि राज्य का प्रशासनिक खर्च चलाने के लिए भी आप कर्ज लेने की बात करने लगे ?

चलिए मान लेते हैं कि लॉकडाउन के चलते सारे कारोबार, तमाम आर्थिक गतिविधियां ठप्प हो गई हैं तो आपके ही विज्ञापनों के मुताबिक आर्थिक दृष्टि से देश का सिरमौर नंबर एक राज्य एक ही महीने में कंगाल कैसे हो जाता है ? पिछले 6 साल के दौरान पहले स्थान पर रह कर जो कमाई की थी, जिसके चलते आपके खजाने लबालब भरे हुए थे, वह बचत (जमा पूंजी) कहां चली गई ?

अगर राज्य का खजाना वाकई ऐसी खस्ता हालत में था तो फिर पिछले ही महीने 23 तारीख को प्रदेश के मंत्रियों का मकान किराया भत्ता बढ़ाकर दो गुणा यानि ₹1,00,000 महीना कैसे होने दिया आपने ? अब इसका जवाब तो जनता को देना ही होगा कि मंत्रियों के लिए पैसा आया तो आया कहां से ?

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही राज्य के 60 फीसदी कर्मचारियों को तो मार्च महीने का वेतन भी अगर नहीं मिला है तो फिर देश के सिरमौर राज्य की सरकार क्या कर रही थी ?

क्या महीना दर महीना खर्च चलाने की नौबत आ चुकी है ? इस कसौटी पर भी कस कर देखा जाए तो भी बुरी तरह फेल हुए हैं आप ? फरवरी महीने में हुई कमाई से तो कम से कम मार्च महीने का खर्च निकल आना चाहिए था !! इसके बावजूद 60 फीसदी कर्मचारियों का वेतन न दिया जाना, एक गंभीर लापरवाही का मामला है !

ऐसी आपदा की घड़ी में जब राज्य का हर नागरिक, हर सरकारी कर्मचारी पूरे मनोयोग से प्रदेश की जनता की सेवा में लगा हुआ है, उसे लगभग एक महीने तक वेतन न मिलना क्या उसके मनोबल पर विपरीत प्रभाव नहीं डालेगा ? क्या वाकई आप ऐसे कठिन समय में राज्य का नेतृत्व कर पाने में खुद को सक्षम समझ रहे हैं या फिर आपका नेतृत्व तो बस मोदी-शाह का कृपा का प्रसाद भर ही है ?

नैतिकता की दुहाई दे कर सत्ता में आए व्यापारियों से नैतिकता की उम्मीद बेमानी है चाहे वह प्रदेश का हो या देश का नेतृत्व ! सत्ता में बने रहने का नैतिक आधार तो अब किसी के भी पास नहीं बचा !

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