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क्या कोठरी में बंद जिंदगी हिप्पी संस्कृति को जन्म देगी ?

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क्या कोठरी में बंद जिंदगी हिप्पी संस्कृति को जन्म देगी ?

गुरुचरण सिंह

अस्पतालों के लिए हम लड़े ही कब थे, भला बताओ तो ? हमारे लिए तो बस मंदिर-मस्जिद का वजूद ही मरने-जीने का सवाल था. कुदरत का इंसाफ तो देखिए आज वही मंदिर-मस्जिद और भगवान के दूसरे घर बंद पड़े हैं, कोई भी दुआ बर नहीं आती और गलियों कूचों में आफ़त बन कर घूम रहे कोरोना कोई निजात मिल नहीं पाती. जिंदगी तो जैसे ठहर-सी गई है. फिर भी लगता तो यही है कि हमारी सरकारों की सोच, प्रतिक्रिया, भीड़तंत्र के खाद पानी से पली-बढ़ी सोच जैसी ही है, जिसकी नज़र असल मसले पर कम और इस महामारी के बहाने अपने समर्थन का दायरा बढ़ाने पर ज्यादा रहती है.

जनवरी के मध्य में ही कोरोना का मरीज सामने आ चुका था और भाजपा के ट्विटर हैंडल का यकीन करें तो तब से ही विदेशों से आने वाले लोगों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई थी. इसके बावजूद इसकी रोकथाम के लिए क्या किया गया, कोई नहीं जानता. फिर 19 मार्च को पहली बार प्रधानमंत्री देश को संबोधित करते हैं और सोशल डिस्टेंसिंग को कोरोना से बचाव का तरीका बताते हैं लेकिन कमाल की बात तो यह कि वह कोरोना से लड़ने की पूरी जिम्मेदारी लोगों पर ही डाल देते हैं और राष्ट्रीय आपदा के समय संयम से काम लेने को कहते हैं.

किसी को भी अजीब नहीं लगता कि वह एक भी शब्द कोरोना से लड़ाई की तैयारी, संभावित लॉकडाउन और उससे राष्ट्र को होने वाले आर्थिक नुकसान, आबादी के एक बड़े हिस्से की बेरोजगारी, भूख, शहरों से पलायन और मानसिक सेहत में गिरावट के बारे में कहना जरूरी नहीं समझते ! उन्हें तो मौके का फायदा उठाना था, पहले ताली-थाली बजवाकर और फिर बत्ती गुल करवाने के बाद नौ मिनट तक मोमबत्तियां जलवा कर जश्न का माहौल बनवाना था.

ऐसा नहीं होता तो पैसे की तंगी का रोना रोने वाली सरकार क्या हरिद्वार कुंभ के लिए 375 करोड़ रुपए मंजूर करती ? नहीं न ! ऐसा तो इसलिए किया गया क्योंकि कोरोना से लड़ाई उसकी प्राथमिकताओं में कहीं शामिल है ही नहीं, हालांकि दिखावा भले ही यही किया जा रहा है ! अंदरखाते तो वह खुश है कि उसकी तमाम नाकामियों को कोरोना ने पूरी तरह हाशिए पर धकेल दिया है पुलवामा हमले की तरह.

जानते हैं जेल में भी सज़ा दी जाती है, एक छोटी-सी कोठरी में अकेले रहने की सज़ा, जहां वह मानसिक तौर पर टूट जाता है. अप्रैल का पूरा महीना यूं ही घरों के अंदर ही बिताने की संभावना ने बहुत से लोगों की मानसिकता पर असर डालना शुरू कर दिया है.

किसी के बीमार होने पर आमतौर पर पड़ोसी, सहयोगी और रिश्तेदार उसकी हिम्मत बढ़ाते हैं, साथ खड़े होते हैं लेकिन बुलंदशहर के एक गांव में तो एक हिंदू मृतक को शमशान पहुंचाने के लिए चार कंधे तक नसीब नहीं होते. गांव के मुसलमान उसका अंतिम संस्कार करवाते हैं; यूपी में ही ठीक इसके उलट भी होता है.

दरअसल इस महामारी के चलते संदिग्ध बीमारों और उनके परिवार को तो पिछली सदी के पूर्वार्ध में अछूतों के साथ होते अपमान और सामाजिक भेदभाव से भी बड़े अपमान और छुआछूत का शिकार होना पड़ रहा है. दुबई से लौटे 63 साल के बुर्ज़ुग की सोमवार को मुंबई में कोरोना से हुई मौत की वजह से उसके परिवार को ऐसे ही अपमान और छुआछूत का सामना करना पड़ा था.

कई जगहों पर लोग मरीजों के प्रति सहानुभूति दिखाने की जगह घोर असंवेदनशीलता भी दिखा रहे हैं. टीबी और एड्स की तरह ही लोग कोरोना वायरस में भी मरीजों और उसके करीबियों से अछूत जैसा व्यवहार कर रहे हैं. महामारी के डर ने इतना हिला दिया है आदमी को कि सामान्य मौत मरा आदमी भी अब उनकी सहानुभूति का पात्र नहीं रहा.

कुछ दिन पहले ही पड़ोस के एक हलवाई (अब कैटरर कहा जाता है इन्हें) की मौत हो गई. हिमाचल का था और वहां मनीआर्डर अर्थव्यवस्था में कभी दो ही कारोबार होते थे उनके लिए – फौज में भर्ती और होटल, हॉस्टल, कॉलेज कैंटीन में या अपना ही हलवाई का काम. वह भी यही काम करता आया था. सबसे पहले गोरखपुर रेलवे कैंटीन में नौकरी की थी इसलिए मेरे साथ कुछ ज्यादा ही आत्मीयता महसूस करता था. वह अत्यधिक शुगर का मरीज था, जिसका पिछले दस बरस से हफ्ते में दो बार डायलिसिस होता था. दोनों बेटों, बहुओं के अलावा शववाहन में शमशान पहुंचाने वाला भी कोई नहीं मिला..सभी को अपनी ही जान का खतरा, सभी सोशल डीस्टेंसिंग में मसरूफ !

अच्छी खासी भागती-दौड़ती ज़िंदगी में अचानक लगे महामारी के इस ब्रेक ने लोगों की मानसिक सेहत पर भी असर डालना शुरू कर दिया है..लॉकडाउन में अकेले रहते लोग चिंता, डर और अनिश्चितता के माहौल से जूझ रहे हैं. अनिश्चित भविष्य के बारे में सोचकर एक कमरे में बंद रहने को मजबूर लोगों की मानसिक परेशानियां बढ़ रही हैं.

बीबीसी न्यूज के एक संवाददाता को मनोवैज्ञानिक पारुल खन्ना पराशर ने बताया कि, ‘लोगों के लिए पूरा माहौल बदल गया है. अचानक से स्कूल, ऑफिस, बिजनेस बंद हो गए, बाहर कहीं जाना नहीं है और दिन भर कोरोना वायरस की ही ख़बरें देखनी है. इसका असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक है. लोगों की परेशान वाली तीन वजहें हैं – एक तो कोरोना वायरस से संक्रमित होने का डर, दूसरा नौकरी और कारोबार लेकर अनिश्चितता और तीसरा लॉकडाउन के कारण आया अकेलापन.’

सामान्य स्ट्रेस भले ही अच्छा होता हो हमारे लिए क्योंकि इसी में ही आदमी का व्यक्तित्व निखरता है, लेकिन यही स्ट्रेस ऐसे हालात में डिस्ट्रेस भी बन जाया करता है, आगे कोई रास्ता दिखता नहीं है, घबराहट होने लगती है, कमजोरी महसूस होती है. ऐसे में सभी के तनाव में आने का ख़तरा तो बना ही रहता है. शहरयार की गज़ल के दो शे’र याद आ रहे हैं –

सीने में जलन आंंखों में तूफ़ान सा क्यूंं है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूंं है !
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंंढे
पत्थर की तरह बे-हिसो-बेजान सा क्यूंं है !

इस तनाव का असर शरीर, दिमाग़, भावनाओं और व्यवहार पर पड़ता है. हर किसी पर इसका अलग-अलग असर होता है. शरीर पर इसका असर बार-बार सिरदर्द, रोग प्रतिरोधक क्षमता का कम होना, थकान और ब्लड प्रेशर में उतार-चढ़ाव होना है. चिंता, ग़ुस्सा, डर, चिड़चिड़पना, उदासी और उलझन के लक्षण इसके भावनात्मक असर के हैं.

दिमाग़ पर असर यह होता कि आदमी को बुरे सपने की तरह बुरे-बुरे ख़्याल आते हैं, जैसे, मेरी नौकरी चली गई तो क्या होगा ? परिवार का क्या होगा ? मुझे कोरोना वायरस हो गया तो वे क्या करेंगे ? सही और ग़लत का फर्क समझ नहीं आता. ध्यान कहीं भी फोकस नहीं हो पाता. ऐसे में आपके व्यवहार पर तो असर पड़ेगा ही न. लोग शराब, तंबाकू, सिगरेट का सेवन ज़्यादा करने लगते हैं. कोई ज़्यादा टीवी देखने लगता है, कोई चीखने-चिल्लाने ज़्यादा लगता है, तो कोई चुप्पी साध लेता है.

संक्षेप में हम विश्वयुद्धों के बाद पैदा हुए हालात के चलते तनाव, त्रास और भटकाव की जिंदगी जी रहे हैं एक बार फिर. यही स्थितियां हिप्पी संस्कृति को जन्म देने वाली थी, यहीं हालात जिंदगी से मोहभंग कर देते हैं और आदमी में आत्मघाती रुझान जन्म लेने लगता है.

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ROHIT SHARMA

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