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कोराना : डर के मनोविज्ञान का राजनीतिक इस्तेमाल

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कोराना : डर के मनोविज्ञान का राजनीतिक इस्तेमाल

डर का मनोविज्ञान व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों समान रूप से है, जिसे हम फोबिया कहते हैं. वह किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह पर एक ही समय या प्रकार से लागू हो सकता है. युद्ध, महामारी, प्राकृतिक आपदाओं और श्रुतियों में वर्णित डरावनी जगहों पर जाने से यह डर और भी प्रखर होकर किसी व्यक्ति या समाज की प्रतिक्रिया को निर्धारित करता है. ‘डर’ दरअसल मनुष्य के अस्तित्व की चिंता के साथ गुंंथा हुआ है, इसलिए हर तरह का डर मूलत: existential fear ही है. अब आते हैं डर के राजनीतिक इस्तेमाल पर.

हमने इतिहास के क्रम में बार-बार देखा है कि राजनीतिक सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग किस तरह से एक समाज के डर का इस्तेमाल अपने हित साधने के लिए करते हैं. नाज़ी जर्मनी में यहूदियों के ख़िलाफ़ घृणा कभी इतना प्रचंड रूप नहीं लेती, अगर न प्रथम विश्व युद्ध से तबाह हुई जर्मनी की अर्थव्यवस्था ने वहांं के लोगों के मन में भविष्य के बारे में डर और अनिश्चय का माहौल नहीं बनाता।

इतिहास के एक ही कालखंड में विजेता और विजित समाजों का डर अलग अलग रूप में व्यक्त होता है. जापान के पर्ल हार्बर पर बमबारी के बाद अमरीका का डर अपने वर्चस्व को खोने का डर था, जिसकी परिणति 6 अगस्त 1945 को हिरोशिमा पर अणु बम गिराने में हुई.

प्रकारांतर में जो द्वि-ध्रुवीय दुनिया बनी उसमें भी सोवियत और पश्चिमी ब्लॉक के सत्ताधीश अपने-अपने तरीक़े से अपने लोगों के बीच डर का माहौल बना कर अपने देशों को युद्ध के उन्माद के लिए तैयार किया. इससे एक अस्वस्थ प्रतियोगिता शुरू हुई, जिसके कारण समाज कल्याण के प्रश्न पीछे छूटते गए. तीसरी दुनिया के देशों में भी कमोबेश यही हाल रहा.

सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद ने उपभोक्तावाद की नई ऊंंचाई छूने का फ़ैसला लिया. आर्थिक साम्राज्यवाद के इस नई पहल ने पूरे विश्व को महज़ एक बाज़ार बना कर रख दिया और आदमी बस एक व्यय योग्य वस्तु (expendable commodity) बन कर रह गया.

क्या कारण है कि आर्थिक रूप से ज़्यादा संपन्न देश कोरोना से ज़्यादा पीड़ित हैं ? बहुत सारे सुधिजनों ने अपने-अपने नज़रिए से इसका उत्तर दिया. मुख्यतः तीन प्रकार के उत्तर मिले ; पहला कारण संपन्न वर्ग में रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी, दूसरा उन देशों में ज़्यादा टेस्ट की सुविधा और तीसरा कारण जलवायु संबंधित बताया गया. तर्क की कसौटी पर तीनों कारण नहीं ठहरते.

पहली बात, यह मान लेना कि पौष्टिक आहार के बग़ैर दुर्बल शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होती है, विज्ञान सम्मत नहीं है और यह धारणा उस सामाजिक मनोविज्ञान को आगे बढ़ाता है, जिसके तहत ग़रीबों को अमानवीय श्रम का काम सौंपकर हम एसी में बैठकर निश्चिंत रहते हैं कि उनके आदत है ये सब करने का और उन्हें कुछ नहीं होगा. अगर आप इन ग़रीबों की औसत आयु पर ध्यान दें तो सच सामने आ जाएगा.

दूसरा, ज़्यादा टेस्ट. दुनिया में अभी तक कोई भी टेस्ट नहीं बना है जिससे प्रामाणिक रूप से ये कहा जा सके कि फ़लांं व्यक्ति कोरोना का मरीज़ है. आज जिस टेस्ट की बात हम कर रहे हैं, उस पद्धति के जनक भी यही मानते हैं. फलतः टेस्ट से प्रामाणिक तौर पर कुछ साबित नहीं होता. आज एक सवाल खड़ा हुआ है बिना लक्षण वाले मरीज़ों का, उसका उत्तर इसी तथ्य में निहित है.

तीसरा जवाब जलवायु को लेकर है. लोग प्लेग का उदाहरण दिमाग़ में बसाकर यह आशा कर रहे हैं कि शायद कोरोना वायरस एक विशेष तापमान में निष्क्रिय हो जाता है, जबकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है.

चलते चलते कुछ लोगों ने बताया कि चूंंकि भारत के लोग कम विदेश यात्रा करते हैं इसलिए यह संक्रमण भारत में धीमा है. आपकी जानकारी के लिए बता दूंं कि व्यक्ति के इस वायरस की transmission ratio मात्र 2.2% है.

अब लौटते हैं मूल प्रश्न पर – डर. संपन्न देशों की औसत आयु और साक्षरता दोनों ग़रीब देशों से कहीं ज़्यादा है. इटली, स्पेन, अमरीका में बूढ़े लोगों की संख्या तुलनात्मक रूप से अधिक है और इनका मृत्यु दर भी किसी भी संक्रमण में अधिक है. अमरीका का उदाहरण लें तो हर साल वहांं औसतन पांंच से आठ हज़ार बीमार और दुर्बल लोग सर्दी जुकाम से मरते हैं और इस बार भी वही ratio है. यह सर्वविदित हैं कि कोरोना से मृत्यु दर एक या दो प्रतिशत है जो टीबी से बहुत कम है.

सवाल ये है कि इस डर के माहौल को किसने और क्यों पैदा किया ? हम यह जानते हैं कि हाल के वर्षों में दुनिया आर्थिक मंदी से ग्रस्त है. इस मंदी का सबसे बड़ा कारण अर्थव्यवस्था के वह मॉडल है जो jobless development करती है. फलतः एक तरफ़ जहां ज़्यादा से ज़्यादा लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ औद्योगिक उत्पादन इतना बढ़ गया है कि बाज़ार में खपत ही नहीं है.

नोटबंदी के बाद unorganised sector of economy इस तरह तबाह हुआ कि पांंच रुपये का बिस्कुट भी नहीं बिक रहा था. नोटबंदी सारी दुनिया में नहीं हुई लेकिन मंदी का कारण आर्थिक संसाधनों का केंद्रीकरण रहा. लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अवसान के बाद समाज में अनिश्चितता का माहौल बढ़ा. लोगों में व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर डर उत्पन्न हुआ. इसके प्रतिक्रियास्वरूप शासक वर्ग में भी डर उत्पन्न हुआ कि कहीं ये डरी हुई जनता विद्रोह पर न उतर आए.

भारत में बैठकर आप फ़्रांस के स्वाधीनचेता लोगों की मनोदशा और उनके विद्रोही तेवर का आंंकलन नहीं कर पाएंंगे क्योंकि उनकी मानसिकता फ़्रांसीसी क्रांति के सिद्धांतों को अपने अवचेतन में समाए रखा है.

इस परिस्थिति में शासक वर्ग के सामने एकमात्र उपाय था – जनता के मन में डर पैदा करना, और मृत्यु के डर से बड़ा डर और क्या होता है. यही कारण है कि आर्थिक रूप से संपन्न लेकिन सामाजिक ज़िम्मेदारी में कंगाल पश्चिम के देशों में इस महामारी का डर अधिक फैलाया गया.

जो ये कहते हैं कि अमरीका जैसी विशाल अर्थव्यवस्था अपने बजट का 8.5%, जो कि भारत के कुल बजट के लगभग बराबर है, अपनी स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है, उनकी जानकारी के लिए बता दूंं कि इसका सारा लाभ वहांं की insurance कंपनियों को मिलता है, जिसकी तर्ज़ पर मोदी सरकार ने आयुष्मान योजना चलाई है.

भारत के संदर्भ में क्या कहा जाए ? पुलवामा के पीछे राफाएल छुप जाता है, नोटबंदी से हुई मौतें और बेकारी छुप जाती है, इसी तरह कोरोना के पीछे भुखमरी, बेरोज़गारी, दिल्ली नरसंहार, मध्य प्रदेश में सत्ता का निर्लज्ज खेल सब-कुछ छुप जाता है. ज़हर ही ज़हर को काटता है.

लंदन से प्रकाशित द इंडिपेंडेंट ने एक आलेख में इस बात पर चिंता जहिर की है कि दुनिया के अनेक शासक कोविड 19 के इस संकट का लाभ उठाते हुए अपनी उन जनविरोधी नीतियों को अमल में लाने की प्रकिया तेज कर रहे हैं, जिन्हें आम दिनों में भारी प्रतिरोध का सामना करना पडता.

चलते चलते याद दिला दूंं कि 2014 से भारत सरकार दफ़न हो चुका है. आज आप मोदी सरकार में हैं, जैसे ग़ुलाम वंश या लोदी वंश.

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