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किसानों को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान करना चाहिए ?

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दुनिया के तमाम विचारकों ने मजदूरों और किसानों के हितों में ढेर सारे ग्रंथ लिख डाले. लोगों ने उसे पढ़ डाले. पर एक सवाल जो यह होना चाहिए था कि आखिर किसानों के पास अपनी हक की मांग करने के लिए कौन से हथियार उपयुक्त होने चाहिए ? क्या वह किसानों के पास है भी अथवा नहीं ?

यह अनायास ही नहीं है कि दुनिया के सबसे श्रेष्ठ विचारक कार्ल मार्क्स ने किसानों की मुक्ति का मार्ग मजदूरों के साथ मिलकर संघर्ष करने को बताया है. सर्वहारा के महान शिक्षकों ने मजदूरों के हाथ में हड़ताल जैसा एक बेहतरीन औजार थमाया है. मजदूरों को दुनिया का सबसे प्रगतिशील ताकत घोषित किया है. इस सब के बावजूद किसानों के लिए रास्ता केवल मजदूरों के साथ लड़ने को लेकर माना है ?

सवाल उठता है सर्वहारा के महान शिक्षकों ने किसानों के हाथ में हड़ताल जैसा औजार क्यों नहीं दिया ? अगर दिया है तो किसान हड़ताल जैसे औजारों का इस्तेमाल क्यों नहीं करता ? आज तक चंद उदाहरणों को छोड़ दें तो कहीं भी किसानों का हड़ताल नहीं हुआ है. किसानों का हड़ताल मतलब खेती को ठप कर देना. केवल अपने जरूरत भर अनाज उपजाना या फिर नहीं उपजाना. जैसे एक फैक्ट्री में मजदूर हड़ताल करते हैं ठीक वैसे ही किसान भी अपने खेतों में हड़ताल कर दे.

भारत जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश में क्या किसानों का हड़ताल एक जरूरी कदम नहीं होना चाहिए था ? लाखोंं की तादाद में किसान आत्महत्या कर रहे हैं. पुलिस द्वारा गोलियों से भूने जा रहे हैं. अपनी न्यूनतम लागत मूल्य मांगने अथवा साहूकारों या बैंकों के कर्ज से मुक्ति के लिए छटपटाते किसान सरकारी गोलियों के शिकार बन रहे हैं. सभी किसान अपने खेतों में हड़ताल क्यों नहीं करते ?

अगर वह महज 1 साल भी हड़ताल कर ले तभी इस देश के शासक वर्ग के पेशानी पर बल पड़ेगी. उसे तिल-तिल कर मरना नहीं होगा. अपने वाजिब लागत मूल्य के लिए रोज-रोज गोलियां नहीं खानी होगी. जंतर-मंतर पर आकर नंगे नहीं होना होगा. वह हड़ताल करें. बेशक मजदूरों के नेतृत्व में हड़ताल करें, पर हड़ताल अवश्य करें. यही उन की रणनीति होनी चाहिए वर्तमान परिस्थितियों में. वरना उनकी नियति और भी बदतर होती जायेगी, जिसके जिम्मेदार भी वे स्वयं होंगे क्योंकि सरकार ने साफ कह दिया है कि सरकार भरोसे न रहे किसान.

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2 Comments

  1. S. Chatterjee

    June 23, 2017 at 3:04 am

    Karl Marx and Lenin didn’t categorically ruled out involvement of peasantry in the revolution but realized that peasantry is not proletariat in the sense that the industrial labour is and less organized. Demand for justifiable price for their agro products is part of the end of revolution but only a part. Whether farmers should go for strike is a relatively modern question. In pre revolution Russia peasantry was mainly serfdom, bantaidar , in the Indian context, therefore, the question was never asked. In China, where peasantry was more independent, contributed to the revolution led by Mail.

    Reply

    • Rohit Sharma

      June 23, 2017 at 4:43 am

      आप बिल्कुल सही हैं. पर दुख होता है किसानों की असहायता पर.

      Reply

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