गुरूचरण सिंह
योगी सरकार ने अध्यादेश जारी करके एक ऐसा ट्रिब्यूनल बनाया है, जिसके फैसले को कहीं भी चुनौती नहींं दी जा सकती. ऐसा कोई प्राधिकरण तो भैया ‘भूतो न भविष्यति’ !!! क्या संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था है ? क्या यह ट्रिब्यूनल न्यायालय से भी बड़ा है ? अगर नहीं तो क्यों न इसे तानाशाही कायम करने का खुला ऐलान माना जाए ?
मगर इस समय तो मेरी चिंता की असल वजह है गोरखपुर नाथ के पीठासीन महंत आदित्यनाथ को सनातन धर्म (हिंदू धर्म) का प्रवक्ता कैसे स्वीकार किया गया है ? संन्यासी नाथ योगी न तो कभी हिंदू थे और न ही मुसलमान. दोनों ही धर्मों से आए लोग संन्यास लेकर नाथ जोगी बन जाया करते थे. पूरे उत्तर भारत में फैले हुए थे ये नाथपंथी.
एक खास किस्म की वेशभूषा और आचार-विचार वाले ये नाथ योगी कर्मकांड के प्रबल विरोधी थे और हिंदू धर्म तो कर्मकांड का ही एक पर्याय है. भक्तिकालीन ज्ञानमार्गी शाखा पर इनका बहुत प्रभाव है. इसी शाखा के सबसे बड़े प्रवक्ता कबीर तो नाथपंथ में दीक्षित एक मुस्लिम दंपति की संतान कहे जाते हैं.
सिक्खों के गुरू ग्रंथ साहेब का तो आधार ही नाथ-सिद्धों (हिंदू) के कर्मकांड, बाहरी आडंबर, वेशभूषा, भिक्षाटन और संन्यास की व्यर्थता का खंडन है. ‘अंजन माहि निरंजन रहिए, जोग जुगत इव पाइयेै !’ गृहस्थ संन्यासी की अवधारणा सिख धर्म का अवदान है जिसे यहां सहज साधना कहा जाता है.
निर्गुण शिव का आराधक नाथ सम्प्रदाय कभी भी मूर्ति पूजक नहीं रहा, इसके बावजूद योगी आदित्य नाथ का राम मंदिर के लिए जम कर मोर्चा खोलना, हिंदू देवी देवताओं की आराधना करना, उनका समर्थन करना, सच कहें तो हमारी समझ से बाहर है. फिर भी उसे हिंदू धर्म का मोदी से भी बड़ा और आक्रामक प्रवक्ता (अगिया बेताल) माना जाता है.
बुनियादी तौर पर अहिंसावादी है यह नाथ संप्रदाय, जो यज्ञ और यज्ञबलि का कट्टर विरोधी है लेकिन यह सब तो उसका दार्शनिक पक्ष है, जो नाथपंथ के साहित्य के आधार पर बना है, व्यवहार में तो गोरखपीठ के एक क्षत्रिय पीठ होने का खुलेआम प्रचार होता है. उस मंच से भी जहां महंत अवैद्यनाथ या आदित्य नाथ मौजूद होते हैं.
गोडसे को गांधी जी की हत्या के लिए पिस्तौल भी इसी गोरखपीठ से मुहैया कराई गई थी. भला संन्यासी को नफरत से क्या काम !! लेकिन अगर आप गोरखपीठ के महंत हैं तो बिल्कुल काम है. इसी नफरत और दहशत के सहारे ही तो दोनों ही गुरू शिष्य एक लंबे अरसे तक सांसद बने रहे और अब यूपी के मुख्यमंत्री.
दरअसल यहीं सामने आता है हिंदू धर्म का समावेशी किरदार. जिन आदिवासियों और दलितों को बंदर भालू बना कर राम की सहायता करते दिखाया जाता है, वही आदिवासी और दलित हिंदू धर्म का हरावल दस्ता बन जाते हैं, सबसे पहले मरने मारने वाले, उसके लिए कोई भी पंगा लेने वाले.
इन ब्राह्मणवादियों ने पहले तो बौद्धों का नरसंहार किया, उनका सिर काट कर लाने वाले को स्वर्णमुद्रा का पुरुस्कार दिया, देश से भगा दिया गया लेकिन जब उन्हीं बौद्धों के उच्च आचरण को देख कर और एडविन अर्नोल्ड की ‘लाइट ऑफ एशिया’ को पढ़ कर बहुत से देशों ने बौद्ध धर्म को अपना लिया तो इन्हीं ब्राह्मणवादियों ने बुद्ध को विष्णु का 23वां अवतार घोषित कर दिया. जैसे जैन और सिखों को अपने ही रंग में रंगने की एक कोशिश दिखाई देती है, जिसका मुलम्मा 84 के सिख कत्लेआम के दौरान उतर चुका है.
लेकिन असल बात तो सभी को सनातनी हिंदू धर्म के रंग में रंगने की है. गोरखनाथ मंदिर से भी अब यही सनातनी पूजा अर्चना दिखाई देती है. नाथपंथ का तो केवल नाम भर ही रह गया है. गोरखनाथ मंदिर मेंं भी अनेक सनातनी देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित हो गई हैं, जहां निर्गुण की बजाए सगुण ब्रह्म की आराधना होती है.
सोनपुर में गंगा-गंडक संगम स्थल पर स्थित नाथ मंदिर को हरिहर नाथ मंदिर बना देना भी इसी प्रक्रिया का बेहतरीन उदाहरण है, जिसमें सनातनी देवी देवताओं की पूजा होती है.
खैर, यह तो कहानी है रंग बदलते नाथपंथ और उसके दो महत्वपूर्ण सांसदों की जिनमें से एक आज मुख्यमंत्री है, जिसके राज में बस उसी का सिक्का चलता है. जो खुद में ही एक कानून बन चुका है. नफरत फैलाना ही जिसका कारोबार है. अध्यादेश लाकर ऐसे ही एक असंवैधानिक ट्रिब्यूनल की स्थापना ऐसा ही कोई व्यक्ति कर सकता है.
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