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तो आप मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करना चाहते हैं ?

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तो आप मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करना चाहते हैं ?

इन दिनों सोशल मीडिया पर बहुत ज़ोर-शोर से मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की मुहिम चलाई जा रही है. वैसे यह कोई नई सूझ नहीं है. हिंदुत्व ब्रिगेड के उत्साही विचारक-प्रचारक पहले भी यह बात कहते रहे हैं, बल्कि चोरी-छुपे इस पर अमल करने की कोशिश भी करते रहे हैं. किराये पर मकान देने में, नौकरी देने में और यहां तक कि कभी-कभी कुछ ख़रीदने-बेचने में वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि सामने वाला मुसलमान, अछूत या पिछड़ी जाति का तो नहीं है ? बेशक, इस बार जो नया और निर्लज्ज खुलापन इस मुहिम में है, वह बताता है कि एक इंसान के तौर पर अपनी क़द्र अपनी निगाह में ही हमने घटा ली है और हिंदू होकर जीने में ही संतोष और गर्व कर रहे हैं ?

लेकिन आज की आर्थिक दुनिया में किसी एक समुदाय के बहिष्कार की बात इतनी भोली और मनोरंजक है कि इस पर गंभीरता से विचार करने की जगह चुटकी लेने का मन करता है. यह पूछने की तबीयत होती है कि क्या मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार संभव है ? क्योंकि जब आप बहिष्कार करेंगे तो दुनिया भर के मुसलमानों का और मुस्लिम देशों का बहिष्कार करेंगे, सिर्फ़ भारतीय मुसलमानों का नहीं. तो सबसे पहले आपको पेट्रोल-डीज़ल का इस्तेमाल छोड़ना होगा क्योंकि तेल मुस्लिम देशों से ही आता है.

मान लीजिए, आपने समझदारी दिखाते हुए तेल को बहिष्कृत सामानों की सूची से बाहर रखा तो भी गड़बड़ हो सकती है. आप मुसलमानों का बहिष्कार करेंगे तो मुसलमान भी आपका कर देंगे. संभव है, कोई दूसरा आपको तेल देना ही बंद कर दे. लेकिन किसी भी देशभक्त को इस बात से परेशान नहीं होना चाहिए कि कोई दूसरा देश उसे सामान देना बंद कर सकता है. हम याचक नहीं हो सकते. हम तेल का इस्तेमाल छोड़ देंगे. इलेक्ट्रिक गाड़ियां खरीदेंगे. न ख़रीद पाए तो बैलगाड़ी पर चलेंगे, लेकिन पेट्रोल का इस्तेमाल नहीं करेंगे. लेकिन संकट और भी हैं. पेट्रोल तो आपको मालूम है कि कहां से आता है. लेकिन बहुत सारा सामान ऐसा है जिसके कारोबार या जिसकी मिल्कियत या जिसके पीछे लगी पूंजी का आपको पता नहीं चलता. आख़िर आप कैसे पता करेंगे कि कौन सा कारोबार हिंदू का है या मुसलमान का ?

जिन पान दुकानों पर गुटखा ख़रीदते हैं, वहां तो शायद प्रधानमंत्री के बताए मुताबिक दाढ़ी या कपड़े देखकर पहचान लेंगे, हो सकता है कुछ सब्ज़ी और ठेले वालों को भी पहचान लें, लेकिन जो बड़े कारोबार हैं, उनमें किसका पैसा किस रूप में लगा है, आप कैसे जानेंगे ? हो सकता है, किसी मुसलमान ने अडाणी जी के शेयर खरीद रखे हों, किसी ने मारुति के, किसी ने इन्फ़ोसिस के ? तो इसका एक तरीक़ा यह है कि उन सारी कंपनियों का माल ख़रीदना बंद कर दें जो शेयर बाज़ार में हैं और निवेशकों से पैसे लेकर कारोबार करती हैं. लेकिन फिर ख़रीदने और बेचने के लिए आपके पास बचेगा क्या ? फिर बहिष्कार का सिलसिला शुरू हो तो वह इन्हीं सामानों तक क्यों रुके ?

आपको मुसलमानों के दिए कपड़ों का भी बहिष्कार करना चाहिए. आप इतिहास में जाएंगे तो पता चलेगा कि सिले हुए कपड़े पहनने की रिवायत भी मुसलमानों से आई. महान हिंदू परंपरा में सिलना-काटना शामिल नहीं था. वहां तो बस उत्तरीय, धोती, अंगवस्त्र आदि चलते थे. तो हिंदुस्तान धोती पहनना शुरू कर दे. आपको बहुत सारी सब्ज़ियां और फल खाना भी छोड़ना होगा. सेब-अंगूर सब छोड़ने होंगे. आपको रसोई की बहुत सारी खुशबू चली जाएगी. कंद-मूल खाने का अभ्यास करना होगा. वह स्वदेशी की एक नई अवधारणा होगी जिसमें जीवन का पूरा अभ्यास बदलना होगा.

बीते एक हज़ार साल की बहुत सारी आदतों को छोड़ कर दो हज़ार साल पहले के वैदिक युग में लौटना होगा. बहरहाल, यह मज़ाक छोड़ें. क्या किसी भी स्तर पर मुसलमानों को अलग-थलग और कमजोर करने वाली यह रणनीति कायमाब होगी ? और अगर हो भी गई तो क्या इसके वही नतीजे आएंगे जो हमारी हिंदुत्व ब्रिगेड सोचती है ? क्या आप अपने समाज के 15 करोड़ लोगों को अलग-थलग आजीविकाविहीन करके जी पाएंगे ?

एक तो ऐसा कुछ नहीं होगा, क्योंकि अंततः अपनी सारी सीमाओं के बावजूद 15 करोड़ की आबादी इतनी बड़ी होती है कि वह परस्पर आर्थिक कारोबार करके भी बनी रहे. बल्कि यह संभव है कि अपने आर्थिक संकट से उबरने की कोशिश में वह कुछ ऐसे तरीक़े खोज निकाले जो उसकी मौजूदा बदहाली से उसे बाहर निकालने में मददगार हों. आख़िर वह एक हुनरमंद कौम है. लेकिन यह न भी हो तो एक देश के भीतर दो देश तो बन ही जाएंगे- आपस में कटे हुए, एक-दूसरे को संदेह और प्रतिशोध के भाव से देखते हुए.

सच तो यह है कि ऐसे दो देश बनाने में हमने अभी ही कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन जब आर्थिक व्यवहार के स्तर पर यह बंटवारा हो जाएगा तो वह रेखाएं इतनी गाढ़ी हो जाएंगी कि मिटाए न मिटेंगी. तो यह हिंदू ब्रिगेड चाहती क्या है ? क्या वह वाकई हिंदुस्तान को दो हिस्सों में बांटना चाहती है ? यह हो न हो, लेकिन यह ख़याल अपने-आप में डरावना है – अमानवीय तो है ही. हालांकि फिर यह दुहराने की ज़रूरत है कि स्वस्थ आर्थिक व्यवहार अपने चरित्र में धर्मनिरपेक्ष ही हो सकते हैं और सबकुछ भले बंट जाए – कारोबार हिंदू-मुस्लिम में नहीं बंटेगा, वह अमीर-गरीब में ही बंटेगा और उन्हीं की प्राथमिकताओं से तय होगा.

  • प्रियदर्शन (NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं, से साभार)

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ROHIT SHARMA

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