भारत का बैंक, रेलवे से लेकर एयरलाइंस तक टुकड़े-टुकड़े में बिकता जा रहा है. मोदी बताए कि भारत की बिक्री होने वाली है तो मुझे बेच दे – स्टीव किंग, रिपब्लिकन कांग्रेसमैन, संयुक्त राज्य अमेरिका
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
मनुष्य को भेड़ बनाने के लिये उसके मानस लोक पर कब्जा करना जरूरी है और इसके लिये विभाजनकारी मुद्दे अक्सर कारगर साबित होते रहे हैं.
क्या कोई एलआईसी में विनिवेश के निर्णय पर चर्चा भी कर रहा है ? नई शिक्षा नीति पर किसी भी न्यूज चैनल पर कोई डिबेट होती आपने देखी है ? कमर तोड़ते इन्कम टैक्स की दरों पर और इस बारे में हालिया बजट में सरकार की कलाबाजियों पर कोई भी बहस होती आप सुन रहे हैं ? नहीं न ?
लोगों के माथा को सुन्न करने की तमाम कोशिशें कामयाब होती दिख रही हैं. जनता को कारपोरेट का गुलाम बनाने के लिये जनचेतना को कुंद करना जरूरी है और यह बेहद सफल तरीके से हो भी रहा है. डॉक्टर लोग एनेस्थेसिया का इस्तेमाल करते हैं ताकि ऑपरेशन के पहले मरीज को बेहोश कर दिया जाए और फिर जरूरत के मुताबिक चीड़-फाड़ की जाए.
हमारे अर्थ-तंत्र का, शिक्षा-तंत्र का, चिकित्सा-तन्त्र का ऑपरेशन किया जा रहा है और मनमुताबिक जगहों पर चीड़फाड़ की जा रही है. यह तब तक सुगमता से नहीं हो सकता जब तक इस देश के आम लोगों को बेहोश न कर दिया जाए.
नागरिकता कानून लाना एक बात है, इसके पक्ष और विपक्ष में बहसें हो सकती हैं लेकिन नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनों से निपटने में सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों ने जो तौर तरीका अख्तियार किया, उससे यही निष्कर्ष निकल सकता था जो आज दिल्ली में नजर आ रहा है.
इस देश का गृहमंत्री सार्वजनिक सभा में आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करता है और नशे में डूबी भीड़ तालियां बजाती है. और तो और स्वयं प्रधानमंत्री जन सभा में ऐसी बातें करते हैं जिन्हें इतिहास में दर्ज किया जा रहा है और आने वाली पीढियां शर्मसार होंगी कि उनके महान लोकतंत्र में ऐसा भी दौर आया था.
दरअसल, मोदी-शाह की जोड़ी को सत्ता में बने रहने के लिये, अपनी सत्ता को मजबूत बनाए रखने के लिये विभाजनकारी मुद्दों की अनिवार्य जरूरत है, जबकि कारपोरेट के लिये अभी नरेंद्र मोदी अनिवार्य जरूरत हैं.
मोदी-शाह अपनी सीमा दर्शा चुके हैं कि आम लोगों की वास्तविक बेहतरी के संदर्भ में उनका आर्थिक-राजनीतिक चिंतन बंजर है, इसलिये विभाजनकारी मुद्दे उनकी विवशता हैं. जबकि, कारपोरेट प्रभुओं को लगता है कि मोदी के विकल्प में सामने आने वाला कोई अन्य नेता इतने साहसी निर्णयों के साथ उनके हितों का पोषण करे ही, यह जरूरी नहीं.
इस देश के संसाधनों पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिये पूंजी की शक्तियां अब निर्णायक खेल खेल रही हैं और अफसोस यह है कि इस महान लोकतंत्र का आज की तारीख का सर्वाधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय राजनेता जनहित की कीमत पर कारपोरेट हितों के लिये खुल कर बैटिंग कर रहा है.
बिना किसी सार्वजनिक बहस के रेलवे जैसी सार्वजनिक संस्था में निजीकरण का नश्तर चुभोया जा चुका है. जहर इस संस्था की रगों में समा चुका है और यह अपना काम करेगा, करता रहेगा. पहले एक प्लेटफार्म बिका, फिर 50, फिर 500 के बिकने की बातें हो रही हैं. पहले एक निजी ट्रेन चली, फिर 50 के चलने की घोषणा हुई, फिर 150 के चलने की बातें हो रही हैं.
कौन कहता है कि रेलवे का निजीकरण समय की मांग है ? कि भविष्य की चुनौतियों से निबटने के लिये और आधारभूत संरचना के विकास के लिये रेलवे में निजी पूंजी का प्रवेश आवश्यक है ? कि हवाई अड्डों के विकास और उचित रख-रखाव के लिये उनको निजी हाथों में सौंपना समय की जरूरत है ?
नहीं. इन मायनों में नरेंद्र मोदी और उनके आर्थिक सलाहकारों को जिस थैचरवाद से प्रेरणा मिल रही है, वह खुद ब्रिटेन में ही सवालों के घेरे में आ चुका है. 1980 के दशक में हवाई अड्डों और रेलवे के निजीकरण के मार्गरेट थैचर के निर्णय के अपेक्षानुरूप परिणाम नहीं मिले और आज का ब्रिटेन चिंतन के दोराहे पर खड़ा है.
लेकिन, जनता की जिंदगी से जुड़े इन यक्ष प्रश्नों पर कोई बहस ही नहीं होगी, कोई प्रभावी जन आंदोलन ही नहीं होगा तो सरकार तो बेरोकटोक अंध निजीकरण के अपने एजेंडा पर आगे बढ़ती ही रहेगी. बढ़ भी रही है.
बीते तीन महीनों के अखबारों को सामने रखें और उनमें छपे आर्थिक खबरों का विश्लेषण करें तो स्पष्ट होगा कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार किसी जल्दी में है. उसे लगता है कि अभी ही सब नहीं बेच दिया तो पता नहीं, आने वाली सरकार क्या करे. इतनी तेजी से तो कोई हद से ज्यादा नाकारा बेटा भी अपने बाप-दादों की संपत्ति नहीं बेचता.
लेकिन, हम अखबारों में उन खबरों को तवज्जो ही नहीं देते, जो हमारी ज़िंदगी से जुड़ी हैं. पहले पेज पर बड़े-बड़े हर्फ़ों में जब दिल दिमाग को उन्मादित-आंदोलित करने वाली खबरों पर नजरें पड़ती हैं तो फिर इतना होश ही कहां रह जाता है कि 7वें या 12वें पेज पर छपी उन खबरों पर भी नजर डाल ली जाए, जिनमें रोज किसी न किसी सरकारी संपत्ति के बिकने की चर्चा होती है.
उन्माद की लहरों पर सवार नवयुवकों में यह सोचने की शक्ति ही नहीं रह गई है कि शिक्षा उनकी और उनके बाल-बच्चों की पहुंच से साजिशन दूर की जा रही है, सार्वजनिक परिवहन का अंध निजीकरण उन्हें जानवरों की तरह यात्राएं करने को विवश करने वाला है, नीति आयोग चिकित्सा के उनके अधिकारों को खत्म करने पर आमादा है.
भीड़ नेता के नाम का निरंतर जाप करती रहे इसके लिये उसे भेड़ में बदलना जरूरी है. मनुष्य को भेड़ बनाने के लिये उसके मानस लोक पर कब्जा करना जरूरी है और इसके लिये विभाजनकारी मुद्दे अक्सर कारगर साबित होते रहे हैं.
बहुसंख्यकवाद की लहरों पर सवार हमारे समाज का आभिजात्य तबका इसके अंतर्निहित खतरों के बारे में नहीं सोच रहा. संवैधानिक संस्थाओं के कमजोर होने की कोई परवाह नहीं कर रहे इस तबके के दिमाग में अभी यह नहीं आ रहा कि इस देश में विभाजन के मुद्दे सिर्फ धार्मिक ही नहीं हैं, बल्कि इसके कई आयाम हैं. ऐसे भी आयाम हैं जिनमें स्वयं यह आभिजात्य तबका ही अल्पसंख्यक होगा और बहुसंख्यकवाद के जिस उन्माद को आज खाद-पानी दिया जा रहा है, वह भविष्य में उलट कर उनके ऊपर भी आघात कर सकता है. तब, यही लोग ‘संविधान’ और ‘कोर्ट’ की रट लगाएंगे लेकिन, तब न संविधान उनकी रक्षा कर पाएगा न कोर्ट, क्योंकि वे खुद आज उन्हें कमजोर होते देख कर खुश हो रहे हैं.
आयाम बदलते अधिक देर नहीं लगती. समय आने वाला है कि बहुसंख्यकवाद के भी आयाम बदलेंगे और तब, जो तबका अपने ड्राइंग रूम्स में पैर फैला कर बिके हुए टीवी चैनलों पर मन माफिक न्यूज देखते-सुनते आज मगन है कि इतिहास का हिंसाब लिया जा रहा है, स्वयं उससे जब इतिहास का हिंसाब लिया जाने लगेगा तो उसे कौन बचाएगा ?
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