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कौन डरता है इतिहास से ?

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[ यह लेख बाबरी मस्जिद विध्वंस के पहले अरुण शौरी तथा सूर्यकांत बाली जैसे पत्रकारों द्वारा इतिहास के असंबद्ध हवाले से धर्मोंमादी लेखों की प्रतिक्रिया में लिखा गया था तथा समकालीन तीसरी दुनिया के जनवरी-मार्च, 1992 के अंक में छपा था. ]

कौन डरता है इतिहास से ?

इतिहास के इस दौर में, जब अमेरिकी नेतृत्व में साम्राज्यवादी ताकतें, लेनिनग्राद में पीटर्सबर्ग की वापसी तथा खाड़ी-युद्ध की घटनाओं के बाद, ‘विजयी’ अहंकार और उन्माद में चूर, ‘नई अर्थव्यवस्था’ लागू करने में मशगूल हैं तो इस मुल्क की अमेरिका-परस्त कुछ ताकतें ‘उदारीकरण’ और निजीकरण’ के जादू से सुनहरे भविष्य का झांसा देकर राष्ट्रीय संप्रुभता गिरवी रखने की और कुछ धर्म और संस्कृति के नाम पर, किसी ‘गौरवशाली अतीत’ की पुनर्स्थापना का शगूफा छोड़ कर भारत राष्ट्र-राज्य को तोड़ने की साजिश रच रही है. ऊपर से तुर्रा यह कि ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे’ कहावत चरितार्थ करती हुई, धर्म और ईमान की तिजारत करने वाली ये ताकतें, मुल्क तोड़ने का इल्जाम धर्मनिरपेक्ष और जनवादी व्यक्तियों और संगठनों के मत्थे मढ़ना चाहती हैं.

आज जब दुनिया भर में प्रतिगामी ताकतें उफान पर हैं, यूरोप में नव-फासीवादी ताकतें मुखर हो रही हैं, भारत में ‘हिंदुत्व’ पर आधरित ‘राष्ट्रीय मुख्यधारा’ के स्वयंभू प्रवक्ताओं की मुखरता आक्रामक हो उठी है. इतिहास-विमुख सांप्रदायिक बुद्धिजीवी, धर्मनिरपेक्षता को छद्म बताकर इतिहास-बोध की नसीहतें देने लगे हैं. हर चालाक फासीवादी की तरह वे अवधारणाओं को जानबूझकर अपरिभाषित रखते हैं. सांप्रदायिकता के हर विरोधी को ये छद्म-धर्मनिरपेक्ष घोषित कर देते हैं लेकिन वास्तविक धर्म-निरपेक्ष कौन है ? यह नहीं बताते.

दरअसल, एक आधुनिक विचारधारा के रूप में सांप्रदायिकता का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि उपनिवेशविरोधी, राष्ट्रीय आंदोलन की विचारधारा के रूप में धर्मनिरपेक्ष, सामासिक भारतीय का. 1857 में सशस्त्र किसान विद्रोह से सकते में आए औपनिवेशिक शासक और साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने भारतीयों के लिए, धर्म के आधार पर क्रमशः हिंदू और मुस्लिम ‘नस्ल’ की अवधारणा का आविष्कार किया. गौरतलब है कि यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय आधुनिक राष्ट्र-राज्य (पूंजावादी राज्य) की विचारधारा के रूप में हुआ, भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलन की विचारधारा के रूप में.

मध्ययुगीन शासक दैविक कृपा के आधार पर शासन करते थे. शासन की वैधता का श्रोत ईश्वर था और धर्म शासन की विचारधारा. आधुनिक राष्ट्र राज्य शासन की वैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर की बैधता समाप्त होने के साथ बैधता के नए श्रोत और नई विचारधारा की जरूरत पड़ी.

नवोदित पूंजीवादी शासक वर्ग के जैविक बुद्धिजीवियों, उदारवादी चिंतकों ने शासन की बैधता के श्रोत के रूप में ईश्वर की अमूर्त अवधारणा की जगह ‘जनता’ की अमूर्त अवधारणा स्थापित कर दिया और विचारधारा के रूप में धर्म की जगह राष्ट्रवाद. भारत और अन्य औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रवाद का उदय उपनिवेशविरोधी विचारधारा के रुप में हुआ. इस विचारधारा को विखंडित करने के लिए औपनिवेशिक शासकों की शह पर हिंदू और मुसलमान, दोनों समुदायों के निहित स्वार्थों ने धर्म आधारित सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की अनैतिहासिक अवधारणाएं गढ़ना शुरू किया.

राष्ट्रीय आंदोलन के मंच से एक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत के निर्माण की प्रक्रिया ने एक तरफ ऐसी विचारधाराओं को जन्म दिया जिनका उद्देश्य, भारत की जनता को जाति, धर्म, क्षेत्र, लिंग आदि के भेद-भाव की दीवारों को तोड़कर, एक राष्ट्र के रूप में सगंठित करना था, तो दूसरी तरफ, उसी प्रक्रिया ने सांप्रदायिक विचारधाराओं को भी जन्म दिया, जिनकी भूमिका भेदभाव की दीवारों को मजबूत करके लोगों को धर्म और समुदाय की संकीर्ण अस्मिताओं के आधर पर लामबंद करके साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा से अलग करने की थी.

जब कभी राष्ट्रीय आंदोलन में ठहराव आया या वह धीमा पड़ता तो ये ताकतें ज्यादा मुखर हो उठती. 1922 में गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन रोकने के बाद से, 1931 में सविनय-अवज्ञा आंदोलन के शुरू होने तक के अंतराल में उत्तर-भारत में कई सांप्रदायिक दंगे हुऐ, जिस तरह आज अयोध्या-विवाद जैसे मुद्दे पर पूरे देश में सांप्रदायिक वैमनस्य का माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है, उसी तरह उस समय भी दंगों और तनाव के वातावरण, मंदिर-मस्जिदों के सामने से गाजे-बाजे के साथ निकाले जाने वाले धर्मिक जुलूसों को मुद्दा बना कर तैयार किए गए थे.

1923 में, इलाहाबाद में एक पूजा-स्थल के पास से होकर गुजरने वाले ऐसे ही एक जुलूस के मुद्दे पर शुरू हुए सांप्रदायिक विवाद ने 1924 में दंगों की शक्ल अख्तियार कर ली. इस प्रक्रिया की परिणति 1931 के भयानकतम दंगों में हुई, जिसमें सांप्रदायिकता विरोधी अपनी प्रतिबद्धता को व्यवहार रूप देने में, हिंदी पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले, अग्रणी स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी, धर्मोंमादी आतताइयों के हाथों मारे गए.

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में जनसाधारण की भागीदारी की राजनीति का सूत्रपात करने वाले महात्मा गांधी को उस समय लगा था कि गणेश शंकर का खून दोनों मजहबों को जोड़ने में सीमेंट का काम करेगा लेकिन सत्याग्रह की राजनीति करने वाले गांधीजी को, धर्म की तिजारत करने वालों की ताकत का अंदाजा शायद नहीं था और 1947 में औपनिवेशिक शासन खत्म होने के साथ-साथ, लाखों मासूम हिंदुस्तानियों की लाशों पर हुआ मुल्क का बंटवारा हमारे इतिहास का नासूर बन गया, जो कश्मीर समस्या के रूप में आज तक रिस रहा है. एक साल भी नहीं बीता कि 1948 में एक आरएसएस प्रशिक्षित धर्मोंमादी ने गांधी की भी हत्या कर दी.

आजादी के बाद भारत को धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया क्योंकि सत्ता उन्हीं लोगों ने संभाली, जो राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा के नेतृत्व में थे लेकिन सांप्रदायिक ताकतों की सक्रियता कम नहीं हुई. जब भी मौका मिला, गोरक्षा जैसे मुद्दों के जरिए वे राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप का प्रयास करती रहीं. दंगों का सिलसिला भी बिल्कुल ही नहीं बंद हो गया. लोगों में औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के उल्लास और एक नए राष्ट्र-राज्य के निर्माण के उत्साह के चलते शुरुआती दशकों में सांप्रदायिक ताकतों को बहुत कामयाबी नहीं मिल सकी.

राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की तेज होती धार, दुनिया के नक्शे पर एक महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ की मौजूदगी,  गुटनिरपेक्ष आंदोलन के बैनर के नीचे पूर्व-उपनिवेशों की लामबंदी आदि कारणों से अंतराष्ट्रीय राजनीति में, साम्राज्यवादी ताकतों का रुख रक्षात्मक था. धीरे-धीरे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन इतिहास के पन्नों में सिमटते गए, सोवियत-संघ की शक्ति घटने लगी, गुटनिरेपक्ष आंदोलन बिखरने लगा और साम्राज्यवादी शक्तियों ने आक्रामक रुख अख्तियार करना शुरू कर दिया.

इस दौरान हमारे मुल्क में जैसे-जैसे आजादी का उल्लास ठंडा पड़ता गया और राष्ट्रनिर्माण का उत्साह कम होता गया. शासक दल के व्यक्ति-केंद्रित नेतृत्व ने देश के शासन की बागडोर पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिये राजनीति के लंपटीकरण और अपराधीकरण का रास्ता अख्तियार किया और सांप्रदायिक ताकतें शक्ति अर्जित करती रहीं. 1980 का दशक खत्म होते-होते, विश्व राजनीति में अमेरिकी साम्राज्यवाद का वर्चस्व स्थापित होता गया और देश की राजनीति में, अभूतपूर्व चुनावी सफलता के बलबूते, अमेरिका-परस्त सांप्रदायिक ताकतें ‘राष्ट्रीय मुख्यधारा’ के प्रतिनिधित्व का दावा करने लगी हैं. धर्म और जाति के नाम पर जारी रक्तपात ने भारत राष्ट्र-राज्य को विघटन के कगार पर ला खड़ा किया है.

दूसरों को इतिहास की नसीहत देने वाले ‘देश-भक्तों’ को चाहिए कि कभी खुद भी इतिहास पढ़ लिया करें, एक पन्ना नहीं पूरी किताब क्योंकि यदि मुल्क टूटता है तो इतिहास, इसके लिए न सिर्फ पंथ के नाम पर दीने-इलाही का नारा देने वालों को जिम्मेदार ठहराएगा बल्कि हिन्दू-राष्ट्र के नाम पर अखंड-भारत का नारा देने वालों को भी. वैसे भी, ये सभी, पूंजीवादी अलगाव (एलीनेसन) और असमानता की कोख से पैदा निहित स्वार्थों की राजनिति के विभिन्न पहलू हैं,  जो एक दूसरे के संपूरक भी हैं. सभी प्रकार की सांप्रदायिक ताकतें, लोगों का ध्यान रोजी-रोटी के मुख्य मुद्दे से हटाकर, शोषण-उत्पीड़न और उनके विरुद्ध संघर्षों पर परदा डालने के उद्देश्य से धर्म और संस्कृति के नाम पर भटकाव पैदा करती हैं. इनके समाप्त हुए बिना पाखंडपूर्ण नारों से जनता को छलना संभव होता रहेगा.

कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ लोग किसी खास विचारधारा के ‘अंतिम सत्य’ होने के प्रति इतने आश्वस्त होते हैं कि उसकी प्रत्यक्ष विसंगतियों तक को छिपाने की परंवाह नहीं करते. यही नहीं, उन्हें प्रमाणित करने के कुतर्क भी करते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि कुतर्क, तर्क पर भारी पड़ता दिखता है. सुविदित है कि प्राचीनकालीन यूनान में दार्शनिक और बौद्धिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध एथेंस नगर-राज्य की न्यायिक आमसभा ने दार्शनिक सुकरात को जहर पिला कर मार डालने की सजा दी थी.

‘युवकों का चिंतन भ्रष्ट करने’ और ‘नास्तिकता एवं अपधर्म’ फैलाने के आरोप लगाकर, उन पर चलाए गए मुकदमे की सुनवाई के दौरान, सफाई में दिए गए सुकरात के तर्क तो अकाट्य थे लेकिन कुतर्क का बहुमत उन पर भारी पड़ गया था. सुकरात को तो मार डाला गया, लेकिन उनके तर्क आज भी जीवित हैं और सच के लिए जान की बाजी लगा देने की प्रेरणा देते हैं.

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी एथेंस मे कुतर्क का बहुमत होता है, तो पैदा होता है दुनिया को जूते की नोंक पर रखने की महत्वाकांक्षा वाला कोई सिकंदर जो अपने को देव-पुत्र घोषित कर, एथेंस सरीखे नगर राज्यों की राजनीति, दर्शन और ज्ञान की गौरवशाली परंपराओं को घोडों की टापों से रौंद कर मटियामेट कर देता है. दरअसल, सुकरात, का अपराध यह था कि वे रुढि़गत अंधविश्वासों और कुछ पांरपरिक मान्यताओं की तार्किक विसंगतियों पर खुलेआम तर्क-वितर्क और बहस करते थे.

1989 और 1991 की भाजपा की चुनावी सफलताओं के बाद लगता है विहिप-बजरंग दल मार्का हिंदू राष्ट्रवाद’ के प्रवक्ता कुतर्क का बहुमत स्थापित करने पर तुले हुए हैं. सोमनाथ से अयोध्या की अपनी बहुप्रचारित टोयोटा-चालित ‘रथ-यात्रा’ पर निकलने से पहले, तर्क और इतिहास की प्रामाणिकता को अनावश्यक बताते हुए श्री लाल कृष्ण आडवाणी ने सार्वजनिक तौर पर घोषणा की थी कि चूंकि करोड़ों हिंदूओं की ऐसी आस्था है, इसलिए सहस्त्राब्दियों पहले राजा दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के पुत्र राम, ठीक उसी जगह पैदा हुए थे जहां आज बाबरी मस्जिद खड़ी है.

इस ‘स्वयंसिद्धि’ के बाद ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ इतिहास-दृष्टि की बाकी बातें प्रमेय-उपप्रमेयों की तरह हैं. चूंकि राम वहां पैदा हुए थे तो उनके किसी अनुयायी ने उस जगह कोई भव्य मंदिर बनवाया ही रहा होगा और चूंकि बाबर आक्रांता था इसलिए उसने मंदिर तोड़ा ही होगा. इस कुतर्कोन्मुख इतिहास-बोध की परिणति हुई विहिप-बजरंगदल के ‘सौगंध राम की खाते हैं, मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारों में.

गौरतलब है कि यह ‘इतिहास बोध’ भी ‘अतीत की गौरवशाली पंरपराओं के इन स्वघोषित वाहकों का अपना नहीं है. यह, इन्हें अपने औपनिवेशिक स्वामियों से विरासत में मिला है. यहां मेरा मकसद इस बात पर बहस करना नहीं है कि किस विधि से आडवाणी जी करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं को आत्मसात करके उनकी आस्था के प्रवक्ता बन गए ? या ‘राष्ट्रवाद’ की उनकी परिभाषा से असहमत हिंदुओं को वे हिंदू मानते हैं कि नहीं ? राम या उनके पैदा होने की ठीक-ठीक जगह की ऐतिहासिकता भी बहस का मुद्दा नहीं है. यहां मकसद सिर्फ यह इंगित करना है कि धर्म और परंपरा की आड़ में जनसाधारण की धार्मिक भावनाओं, अंधविश्वासों और पूर्वाग्रहों का फायदा उठाते हुए कुछ चालाक लोग कितने ढीठपने के साथ, कुतर्कोंं और अनुमानों से इतिहास को विकृत करने की जुर्रत कर सकते हैं.

आरएसएस हलकों में गुरू जी के नाम से जाने वाले, हिंदू-राष्ट्रवाद’ के एक विचार-पुरुष, स्व. श्री माधव सदाशिव गोलवलकर ने भारतीय इतिहास लेखन में एक मौलिक योगदान किया. उन्होंने घोषित कर दिया कि ‘आर्य यानी हिंदू’ ही इस भारतीय उपमहाद्वीप के मूल निवासी है. तमाम कारणों से गोलवलकर और समूचे ‘संध-परिवार’ के लिए लोकमान्य तिलक, ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ के एक आदर्श-पुरुष हैं. तिलक की मान्यता में आर्य, भारत उत्तरी ध्रुव-क्षेत्र से आए थे.

इस वैचारिक विरोधाभास स्पष्टीकरण में, गुरू जी ने एक मौलिक कुतर्क किया कि चूंकि पृथ्वी के साथ उत्तरी ध्रुव भी गतिमान है, इसलिए ‘प्राचीन काल में वह दुनिया के ऐसे हिस्से में था जिसे आज हम बिहार और उड़ीसा कहते हैं.’ (वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइन्ड, पृ. 8). आरएसएस के संस्थापक-सरसंघचालक, केशव बलीराम हेडगेवार यदि गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी न नियुक्त करते तो वे शायद, वे एक मौलिक भू-विज्ञान के रचियता होते.

हिंदुत्व की राष्ट्रीय मुख्यधारा के मौजूदा आक्रामक उफान का नेतृत्व करने वाले संगठन, भाजपा, विहिप, बजरंगदल, शिवसेना आदि, आरएसएस की वैचारिक संतानें हैं. बाल ठाकरे की शिवसेना को छोड़कर, बाकी उपरोक्त संगठन, आरएसएस द्वारा गठित एवं नियंत्रित मातहत इाकइयां हैं. आरएसएस की विचारधारा एक ऐसे ‘स्वर्णिम अतीत’ की पुनर्स्थापना करने की है, जिसमें ‘हिंदुओं की नस्ली; जातीय श्रेष्ठता’ अपने चरम पर थी.

गौरतलब है कि आरएसएस के किसी भी विचारक ने आज तक यह नहीं स्पष्ट किया कि वह स्वर्णिम अतीत इतिहास के किस काल खंड में था ? क्या वह ‘स्वर्णिम अतीत’, पुराणों में वर्णित सर्वश्रेष्ठ युग सतयुग में था, जब एक ‘आदर्श शासक’ सपने में दिए गए अपने वचन की रक्षा के लिए राज्य और प्रजा का भविष्य एक अहंकारी तपस्वी की दया पर छोड़ देता है ? एक ऐसा समाज जिसमें इंसानों की सार्वजनिक नीलामी का रिवाज हो और उनके खरीद-फरोख्त की बाजार ? जहां मौत पर भी कर लगता हो, न देने की स्थिति में मुर्दों से कफन छीन लिया जाता हो ! या त्रेता युग में, जिसमें एक आदर्श चक्रवर्ती सम्राट, शंका के बहाने अपनी गर्भवती पत्नी को दर-दर भटकने को मजबूर कर देता है ? या फिर द्वापर युग में, जिसमें आदिवासी धनुर्धर, एकलव्य, राजगुरू द्रोण को प्रसन्न करने के लिए अपना अंगूठा काटने पर मजबूर हो जाता है ?

खैर, किसी विचारधारा के आदर्श का अनैतिहासिक होना ही उसकी गुणवत्ता की परख का मानदंड नहीं होना चाहिए. आरएसएस के गठन का घोषित उद्देश्य हिंन्दुओं में एक सुसंगठित एवं अनुशासित ‘कारपोरेट स्टेट’ के प्रति सेवा, बलिदान और निष्ठा की भावना भरना. गौर-तलब है कि फासीवादी और नाजी पार्टियों की विचारधारा भी इसी प्रकार के कारपोरेट स्टेट की स्थापना करने की थी. आरएसएस द्वारा ‘हिंदू-राष्ट्र’ के शत्रुओं का वर्गीकरण भी हिटलर द्वारा ‘जर्मन-जाति’ (आर्य नस्ल) के शत्रुओं के वरीयता क्रम से मेल खाता है. हिटलर, क्रमशः यहूदियों और कम्युनिस्टों को ‘जर्मन जाति’ के सबसे बड़े शत्रु के रूप में देखता था तो आरएसएस ‘हिंदू राष्ट्र’ के शत्रुओं के के वरीयता क्रम में मुसलमानों और कम्युनिस्टों को उपर रखता है.

फिलहाल, इस लेख का उद्देश्य ‘हिंदू-राष्ट्रवादी’ विचारधारा या उसकी नाजी या फासीवादी विचारधाराओं से समानताओं की व्याख्या करना नहीं है, वह एक अलग लेख का विषय है. यहां मकसद उस राजनीति की तरफ महज इशारा करना है, जिसके लिए सांप्रदायिक विचारधारा का उपयोग, अलगाववाद के उपकरण के रूप में करती हैं और ‘संस्कृति’ के नाम पर जन-विरोधी अभियान चलाती है.

इतिहास के गतिमान ‘सत्यों’ को नकारने वाली सांप्रदायिक विचारधाराएं, किसी ऐतिहासिक,  प्रागैतिहासिक, पौराणिक या काल्पनिक अतीत में ‘अंतिम सत्य’ का निर्धारण कर इतिहास के भविष्य की गति को बांधने का प्रयास करती हैं. यह वर्तमान की समस्याओं से ध्यान हटाने की रणनीति तथा भविष्य के विरुद्ध खतरनाक साजिश है. वे उन सभी विचारों को अपने ‘अंतिम सत्य’ के विरुद्ध घोषित कर देते हैं, जो किसी भी रूप में मनुष्य जाति की एकता और उनमें सामाजिक-आध्यात्मिक समानता की हिमायत  करती हैं.

आरएसएस के विचारक, सुदूर अतीत की घटनाओं को उनके ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य में देखने की बजाय, उन्हें संदर्भ से काट कर, फतवाबाजी के अंदाज में अपनी राजनैतिक जरूरतों के अनुसार तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं. आरएसएस के प्रमुख विचारक, गोलवलकर, ब्राह्मणवादी मान्यताओं को चुनौती देते हुए व्यक्तियों की सामाजिक-धर्मिक-आध्यात्मिक बराबरी की हिमायत करने वाले बौद्ध दर्शन को, ‘मातृ-धर्म’ के प्रति गद्दार घोषित करते हैं (वी ऑर आवर नेशनहुड डिफांइड) तो एक अन्य प्रमुख विचारक दीन दयाल उपाध्याय प्राचीन भारत के ‘गौरवशाली साम्राज्यों’ को आदर्श शासन व्यवस्था बताते हुए, तत्कालीन उत्तर-वैदिक गणराज्यों को ‘हिंदुत्व के गौरवशाली अतीत’ पर काला धब्बा मानते हैं. (इंटेग्रल ह्मूमनिज्म, पृ.15)

इतिहास गवाह है कि जब भी असमानताओं को खत्म करने की बात चलती है तो हर प्रकार के सांप्रदायिक सगंठन, सक्रिय हो जाते हैं और सांप्रदायिक उन्माद के जरिए बराबरी की बात की धार को कुंद करने का प्रयास करते हैं.

1989 और 1891 के संसदीय एवं विधानसभाई चुनावों में भाजपा की अप्रत्याशित सफलता के बाद से ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ की विचारधारा की जडें, यद्यपि 19वीं शताब्दी के धार्मिक पुनरुत्थानवादी आंदोलनों तक जाती हैं, लेकिन इसे अलगाववादी आक्रामकता प्रदान की सांप्रदायिकता  ने. वेदों को ‘अंतिम सत्य’ मानने वाले राम मोहन रॉय द्वारा स्थापित ब्रह्मसमाज और महर्षि दयानंद द्वारा स्थापित आर्य समाज ने तो हिंदू समाज की रुढि़यों, कुरीतियों, अंधविश्वासों एवं कुप्रथाओं से मुक्ति की दिशा में सराहनीय योगदान किया.

विवेकानंद भारतीय संस्कृति की पाश्चात्य संस्कृति की तुलना में श्रेष्ठता पर जोर देने के बावजूद सभी धर्मों को एक सार्वभौमिक धर्म के विभिन्न रुप मानते थे. राममोहन रॉय धर्मिक सार्वभौमिकता के पक्षधर थे. राजनैतिक मुक्ति के रास्ते हिंदू समाज की आध्यात्मिक श्रोष्ठता की पुनर्स्थापना के हिमायती-अरविंद घोष भी ‘हिंदू राष्ट्रीयता’ के बदले ‘मोटे तौर पर हिंदू पंरपराओं’ वाली ‘भारतीय राष्ट्रीयता’ के पक्षधर थे.

‘हिंदुत्व’ को राष्ट्रीयता के आधार रूप में परिभाषित करने वाले सावरकर की ‘हिदू राष्ट्रवाद’ की विचारधारा भी इतनी असहिष्णु नहीं थी कि उसकी तुलना नाजी या फासीवादी विचारधाराओं से की जाए. भारत को ‘पितृ-भूमि’ और ‘पवि़त्र भूमि’ दोनों न मानने वालों को वे समान राजनीतिक अअधिकार देने के पक्षधर तो नहीं थे लेकिन वे अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में उनके सहअस्तित्व के अधिकार के भी विरुद्ध नहीं थे. आरएसएस की विचारधारा सावरकर के तर्क को दो कदम आगे बढाते  हुए उन्हें ‘गैर-नागरिक’ घोषित कर’ सभी राजनैतिक और सांस्कृतिक अधिकारों से उन्हें वंचित करने की है. (वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड, पृ. 55-56)

नागरिकता के अधिकारों के ‘पितृ-भूमि’ और ‘पवित्र-भूमि’ के मानदंडों को विश्व-स्तर पर लागू किया जाए तो मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, दक्षिण अप्रफीका एवं अन्य भू-भागों पर बसे, हनुमान-चालिसा का जाप करने वाले और सिर के नीचे गीता रख कर सोने वाले हिंदुओं की अपने देश में क्या स्थिति होगी ? वर्ण-व्यवस्था को सख्ती से लागू करने, शूद्रों और स्त्रियों को अधिकारों और स्वतंत्रता से वंचित करने के हिमायती मनु को दुनिया का प्राचीनतम एवं सबसे बुद्धिमान न्यायविद और आदर्श पुरुष मानने वाली आरएसएस के प्रवक्ता यह नहीं बताते कि ’गौरवशाली’ सांस्कृति मुख्यधारा ब्राह्मणवादी कर्मकांड एवं वर्णाश्रम व्यवस्था का निषेध करने वाली बौद्ध संस्कृति या ब्राह्मणों द्वारा शास्त्र-विरुद्ध घोषित बृहस्पति और चार्वाक-लोकायत की भौतिकवादी संस्कृति का क्या स्थान है ?  गौर-तलब है कि कालांतर में ब्राह्मणों ने बृहस्पति को असुरों का देवता घोषित कर दिया था.

यदि इनका राजनीतिक वक्तव्य, ‘लुप्त-उपलब्ध विविधताओं का समुच्चित नाम हिंदुत्व है (सूर्यकांत बाली, ‘अयोध्या पर समझौते से..’ (नवभारत टाइम्स नवंबर’ 91), मान भी लिया जाए तो इस समुच्चय का साझा सरोकार क्या है ? विभिन्नता को श्रेष्ठता और तुच्छता के पैमाने पर नापने वाले ये देश-भक्त’ यह नहीं स्पष्ट करते कि इन परस्पर विरोधी सांस्कृतिक विविधताओं को संश्लेषित करने का इनका तरीका क्या है ?

पिछले हजार सालों के इतिहास में इस्लाम के अनुयायियों का क्या इस सांस्कृतिक विविधता को समृद्ध करने में कोई सकारात्मक योगदान नहीं है ? अब ये ‘देश-भक्त’ यह कह रहे हैं कि यदि अयोध्या, मथुरा और काशी  की मस्जिदें हिंदुओं, यानी विहिप-बजरंगदल को सौंप दी जाए तो वे और किसी मस्जिद की मांग नहीं करेंगे और हिंदू-मुसलमान अमन-चैन से रह सकेंगे. गौर-तलब है कि 1989 में यह बात सिर्फ अयोध्या के बारे में कही जा रही थी. इससे क्या यह समझा जाए कि तीन मस्जिदें लेकर, ‘हिंदुत्व’ को राष्ट्रीयता का पर्याय मानने वाले ‘देशभक्त’ नागरिकता और देशभक्ति’ के निर्धारण में ‘पितृ भूमि’ और ‘पवित्र भूमि़’ के मानदंडों को तिलांजलि दे देंगे? 

जो हिंदुत्व’ एक हरिजन पुलिस अधिकारी को इसलिए जान से मार देता है कि उसने वर्षा से बचने के लिए भाग कर एक मंदिर में शरण लेने की जुर्रत की थी, क्या वह तीन मस्जिदें लेकर मुसलमानों के साथ, जिनकी कथित ‘पवित्र भूमि’ देश से बाहर है, अमन-चैन से रह सकेगा ? ‘हिंदुत्व’ की तथाकथित राष्ट्रीय मुख्यधारा के प्रवक्ताओं को चाहिए की देश-भक्ति और गद्दारी के फतवे जारी करने के पहले इन प्रश्नों पर भी विचार करें.

इतिहास की कुतर्कपूर्ण व्याख्या के बलबूते ‘हिंदुत्व’ और ‘राष्ट्रीयता’ को एक दूसरे का पर्याय मानने वाले बुद्धिजीवियों के लिए, कहना न होगा कि म. प्र.  के मुख्यमंत्री सुंदर लाल पटवा और उनकी छत्रछाया में फलते-फूलते शंकर गुहा नियोगी के हत्यारे, केडियाओं और शाहों जैसे उद्योगपति, देशभक्त हैं और मजदूर-किसानों के संवैधानिक अधिकारों की लड़ाई की अगुवाई करने वाले नियोगी जैसे लोग देशद्रोही !

गढ़वाल की भूकंप-पीड़ित जनता को रोता-बिलखता छोड़ अयोध्या में मस्जिद के आसपास की जमीन के अधिग्रहण की तिकड़म और विराट् राम मंदिर की योजना के तहत वहां के प्राचीन मंदिरों को तोड़ने वाली उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार देशभक्तों की श्रेणी में आती है और धर्म के नाम पर आदमी-आदमी को बांटने की विचारधारा विरोधी देशद्रोहियों की !

अब तो ये ढीठपने के साथ उद्घोष करने लगे हैं, ‘हिंदुत्व और राष्ट्रीयता जिस तरह एक दूसरे का पर्यायवाची बन कर लोगों के मानस पर उभर रहे हैं, उसे देखते हुए अयोध्या में मंदिर बनने के बीच मात्र समय ही एक बांंध नजर आती है’ (अयोध्या पर समझौते से…) ये, इस परिभाषा से असहमत, खासकर धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी बुद्धिजीवियों को लानत भेजते हैं, ‘हिंदू अगर राष्ट्रीयता की परिभाषा ढूंढने के लिए इतिहास का एक पन्ना भी खोल दें तो आपका शरीर आत्मा की बात आप मानते नहीं, कांपने लगते हैं तो हिंदुओं के इस स्वाभिमान का कोई महत्व नहीं कि एक आक्रमणकारी बाबर ने उनके आराध्य का जन्म-स्थान तोड़ डाला, उन्हें वह वापस चाहिए; उम्मीद की जानी चाहिए कि वामपंथी लोग बाबर को आक्रांता तो मानते ही होंगे, अगर इतना भी वे नहीं मानते तो पूछना होगा कि क्या 22 जून, 1941 को हिटलर ने रूस पर आक्रमण किया था ?’

मैं हिंदुत्व’ के इन बौद्धिक प्रमुखों की समस्त हिंदुओं के प्रवक्ता बन बैठने की प्रामणिकता पर बहस नहीं करना चाहता. 21अक्तूबर, 1924 को ‘धर्म की आड़’ शीर्षक से गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के संपादकीय में ऐसे लोगों के बारे में लिखा था, ‘धर्म के नाम पर कुछ इने-गिने आदमी अपने हीन स्वार्थों की सिद्धि के लिए करोड़ों आदमियों की शक्ति का दुरुपयोग करते हैं … बुद्धि पर परदा डालकर पहले ईश्वर और आत्मा का स्थान अपने लिए लेना और फिर धर्म, ईमान और ईश्वर के नाम पर अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए एक दूसरे को लड़ाना भिड़ाना. मुर्ख बेचारे धर्म की दुहाइयां देते और दीन-दीन चिल्लाते हैं, अपने प्राणों की बाजियां खेलते और थोड़े से अनियंत्रित और धूर्त आदमियों का आसन ऊंचा करते और उनका बल बढ़ाते हैं.’

कौन डरता है इतिहास से ? आग्रह है एक पन्ना नहीं, पूरी किताब पढें. इतिहास के एक पन्ने की युद्धोन्मादी व्याख्या के आक्रामक उद्घोष में निहित घृणा, वैमनस्य, तनाव और रक्तपात की संभावनाएं, किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए दिल दहला देने वाली हैं. मई 1991 के संसदीय चुनाव के दौरान वाराणसी क्षेत्र से भाजपा प्रत्याक्षी (अब सांसद), श्रीशचंद दीक्षित के इसी तरह के एक आक्रामक उद्घोष ने, भोले शंकर की नगरी कही जाने वाली काशी को घृणा और वैमनस्य की आग में झोंककर, जन-जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया.

18 मई को बिनिया बाग के मैदान में अपने चुनावी भाषण में श्री दीक्षित ने मुसलमानों के मुहल्लों को इंगित करके कहा था कि उन घरों के सभी बाशिंदे, ‘पाकिस्तानी एजेंट’ हैं और यदि वे सांसद बने तो उन पर बुलडोजर चलवा देंगे, और वे सांसद बन भी गए. तब से बनारस में 6 महीने में यह तीसरा सांप्रदायिक दंगा है, जिनमें पुलिस और पीएसी की पक्षपातपूर्ण सक्रिय भागीदारी के चलते कानून व्यवस्था में अल्पसंख्यकों का यकीन लगभग खत्म हो गया है. इन दंगों का सबसे बुरा असर पड़ा, विश्व-विख्यात बनारसी साड़ी बनाने वाले दोनों समुदायों के बुनकरों पर. 1977 के बाद के ज्यादातर दंगों में सर्वाधिक तबाही पारंपरिक शिल्पों पर आधरित, लघु उद्योगों की हुई है, चाहे मुरादाबाद रहो हो, भागलपुर या वाराणसी.

इसलिए यदि चाहते हैं कि मुल्क तबाही से बचा रहे, तो एक पन्ने की बजाय पूरी किताब पढे़ं -बिना किसी पूर्वाग्रह के. जहां तक इतिहास का सवाल है, बाबर और हिटलर  दोनों ही आक्रांता थे. शक्ति, सत्ता और साम्राज्य की महत्वाकांक्षाओं से जन्मे, जन-जीवन तबाह करने वाले सभी युद्धों की निन्दा की जानी चाहिए लेकिन हिंदू-राष्ट्रवाद के परम हिमायती गोलवलकर ‘महान जर्मन साम्राज्य’ का महिमामंडन करते हुए, ‘यहूदियों का सफाया कर, जर्मन नस्ल को पवित्र  करने’ वाले हिटलर को अपना आदर्श पुरुष मानते हैं और उसके द्वारा स्थापित ‘नस्ल भावना की पराकाष्ठा’ को हिदुओं के लिए अनुकरणीय.

यह अलग बात है कि उनके अनुयायी अमेरिकी साम्राज्यवाद की छत्र-छाया में इज्रायल में फलते-फूलते यहूदी नस्लवाद के समर्थक हैं. गौर-तलब है कि भाजपा और पूर्व जनसंघ परमाणु बम बनाने की मांग के साथ लगातार इज्रायल के साथ पूर्ण राजनयिक संबधों की हिमायत करती रही है. नस्लवाद के समर्थन के मसले पर इसे हिंदू राष्ट्रवाद का अंतर्विरोध समझा जाए या हर तरह के नस्लवाद का समर्थन की निरंतरता की नीति ?

बाबर ने हिंदुओं के आराध्य का जन्म स्थान’ तोड़ा था या नहीं, बहस का मुद्दा यह नहीं है, यह अलग बात है कि 1528 में यदि उसके आदेश पर रामजन्म स्थान तोड़ा गया तो उसी के समकालीन, राम-भक्त तुलीसादास, शायद, उस घटना के घावों की चर्चा करना भूल गए लेकिन असहिष्णु और अंहकारी विजेता शासकों द्वारा, विजित जनता के धार्मिक-सांस्कृतिक स्मारकों-प्रतीकों को नष्ट करने और उन्हें लूटने की घटनाएं इतिहास के लिए अनजानी नहीं है. ये इतिहास की शर्मनाक घटनाएं हैं, जिन्हें पढ़कर भविष्य के लिए सीख लेनी चाहिए. ‘अतीत सुधारने’ के प्रयासों से असहिष्णुता और अहंकार को बढ़ावा ही मिलेगा.

बाबर आक्रांता तो था ही, लेकिन राणा सांगा को भी बरी नहीं किया जा सकता, जिसने दिल्ली सल्तनत से अपनी दुश्मनी के चलते और विजित भूखंड का एक टुकड़ा पाने की क्षुद्र लालसा में सैनिक सहायता के वायदे के साथ बाबर को दिल्ली पर आक्रमण का निमंत्रण दिया था. हालांकि विजय का स्वाद चखने के बाद, वायदा-खिलाफी को बहाना बना, बाबर ने राणा सांगा को भी परास्त किया. आक्रांता बाबर को रोकने के प्रयास में इब्राहिम लोदी के साथ उसके हिंदू-मुसलमान सैनिकों ने साथ-साथ शहादत दी थी.

विहिप-बजरंग दल मार्का इतिहास-बोध कहीं यह तो नहीं कहता कि मुगल सैनिकों ने पानीपत के मैदान में जो खून बहाया वह चुन-चुन कर हिंदुओं का ही था ? आक्रांता बाबर को रोकने के प्रयास का थोड़ा भी श्रेय यदि इब्राहिम लोदी को दें तो ‘बाबर की औलादों को एक धक्का और देने का नारा देने वाले ‘देशभक्त’, क्या निश्चय के साथ कह सकते हैं कि जिन्हें एक और ध्क्का’ देने की बात वे कर रहे हैं उनमें कहीं इब्राहिम लोदी की भी ‘औलादें’ तो शामिल नहीं हैं ? कहीं रांणा सांगा की औलादें, देश-भक्ति की सनद बांटने की आड़ में, किसी बाबर को मुल्क पर आक्रमण के निमंत्रण की साजिश तो नहीं कर रही हैं ? अतीत सुधारने के नाम पर भावी पीढि़यों के विरूद्ध कोई षड्यंत्र तो नहीं रचा जा रहा है ? एतिहासिक घटनाओं को संदर्भ से काट कर पेश करना इतिहास के खिलाफ किसी बड़ी साजिश का हिस्सा तो नहीं है ?

बाबर आक्रमणकारी तो था ही, लेकिन न तो वह पहला आक्रमणकारी था न ही आखिरी. भारत आने वाले विदेशी आक्रमणकारी को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है. लूटमार करके वापस चले जाने वाले आक्रमणकारी; युद्ध के बल पर शासन स्थापित कर यहीं की सरजमीं में बस-खप जाने वाले आक्रमणकारी और तीसरी श्रेणी अंग्रेजी उपनिवेशवाद की है जो न तो लूट-मार करके वापस गया और न ही यहां की सरजमों में बस सका बल्कि 2 सौ सालों तक एक आक्रमणकारी के रूप में रुककर मुल्क को लूटता रहा और जाते-जाते हमारे शासक वर्गों के कान में ‘बांटों और राज करो’ का मंत्र फूकता गया और हथियार के रूप में देता गया औपनिवेशिक इतिहास-बोध.

मुट्ठी भर अंग्रेज सात-समुंदर पार से आकर ‘गौरवशाली अतीत’ वाले समुदाय को क्यों और कैसे गुलाम बना सके ? यह सवाल अंग्रेजों के पूर्ववर्ती आक्रमणकारियों के संदर्भ में भी प्रासंगिक है. यह एक इतिहास-प्रमाणित तथ्य है कि अंग्रेज लुटेरे, देसी शासक-वर्गों की मदद के बिना भारत की सरजमीं पर पैर नहीं जमा सकते थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि यहांं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों के ही चलते अंग्रेज तमाम हिंदुस्तानियों को अपनी फौज में भरती कर सके लेकिन अंग्रेजी राज की नींव पुख्ता करने में जगत सेठों, मीर जाफरों और रामनारायणों के योगदान भी कुछ कम महत्व के नहीं थे.

हैदर अली और टीपू सुल्तान ने अंग्रेज आक्रांताओं को रोकने की भरपूर कोशिश की और यदि पेशवा और निजाम उनकी मदद न करते तो संभव है कि भारत में अंग्रेजी राज की इमारत पूरी होने के पहले ही ढह जाती. 1857 का स्वतंत्रता-संग्राम शायद सफल हो जाता यदि सिंधिया सरीखे राजा-महाराजाओं की फौजें भारतीय जनता के खिलाफ न खड़ी हो जाती’.

मीर जाफरों और निजामों को यदि गद्दार करार देना पड़ेगा तो रामनारायणों, सिंधियाओं, पेशवाओं को भी नहीं बख्शा जा सकता. रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, मंगल पांडेय, नाना फणनवीस आदि की ही तरह बेगम हजरत महल, बहादुरशाह जफर आदि को भी देशभक्तों का दरजा देना पडे़गा. जिन ‘बाबर की औलादों’ को ये स्वयंभू देश भक्त गद्दार घोषित कर रहे हैं, कहीं उनमें हैदर अली, टीपू, हजरत महल और बहादुर शाह जफर की औलादें भी तो नहीं हैं ?

‘राष्ट्रीय मुख्यधारा’ के स्वयंभू प्रवक्ताओं ! जिस तरह साधु की कोई जाति नहीं होती उसी तरह न तो गद्दरों की कोई जाति होती है और न ही देश भक्तों की. ‘राष्ट्रीयता’ की परिभाषा ढूढ़ने के लिए इतिहास के पन्ने अवश्य पलटें, लेकिन सिर्फ पलटें ही नहीं, उन्हें पढें भी, एक पन्ना फाड़कर नहीं, पूरी किताब पढ़ें.

जहांं तक बाबर के आक्रांता होने की बात है, तौ वह आक्रांता तो था ही, लेकिन दुर्भाग्य से मानव-सभ्यता के इतिहास में आक्रमणों, युद्धों और विजयों का ही वर्चस्व रहा है. समरथ को नहिं दोष गोसांई. जो भी अपेक्षाकृत शक्तिशाली होता है, वही विजेता होता है और विजेता को लोग महान घोषित कर देते हैं, वह विजेता चाहे मिथकीय, चक्रवर्ती सम्राट राम हो या ‘नई विश्व व्यवस्था’ का  निर्णायक राष्ट्रपति बुश, सिकंदर महान हो या अशोक महान.

ऐतिहासिक सत्य यह है कि आम आदमी अपने स्वामी की नाक बचाने और बढ़ाने के लिए जान की बाजियां लगाता रहा है. आक्रांताओं और विजेताओं के बारे में दोहरा मानदंड अपनाना तर्कसंगत नहीं है. इतिहास का और मानवता का तकाजा है कि युद्धों द्वारा रक्तपात का सिलसिला बंद होना चाहिए. यह ‘अतीत सुधारने’ से नहीं होगा. इसके लिए एक ऐसी चेतना से लैस इतिहास दृष्टि की जरूरत है जिससे इंसान-इंसान में बिना कोई भेद किए तर्क-वितर्क के जरिए विवादों का विवेकपूर्ण समाधन किया जा सके, तभी मानवता को टुकड़े-टुकड़े होने से बचाया जा सकता है. खंडित मानवता के साथ ‘अखंड भारत’ की कल्पना कोरा मजाक बन कर रह जाएगा. लोगों को बौना बना कर महान राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता, चाहे मंदिर कितना भी विराट क्यों न बन जाए.

1989 में जव विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने आरक्षण के जरिए सामाजिक न्याय का नारा दिया, निहित उद्देश्य जो भी रहे हों तो आडवाणी उस सरकार को धराशायी करने के लिए वातानुकूलित रथ यात्रा पर निकल पड़े. वीपी सिंह अदालत के फैसले का इंतजार करने के लिए मनाते रहे, लेकिन आडवाणी को जल्दी थी. उन्होंने कहा ‘आस्था के सवालों का फैसला अदालतें नहीं कर सकतीं.‘ आज जब देश में एक ऐसी सरकार है जो अमरीकी-साम्राज्यवाद के आगे घुटने टेक, भारत राष्ट्र-राज्य की मान, मर्यादा यहांं तक कि संप्रभुता को दांव पर लगा, गिड़गिड़ा रही है, आडवाणी जी अदालती फैसले की बात कर रहे हैं.

आरएसएस के एक प्रमुख अधिकारी और सरसंघचालक बाला साहब देवरस के भाई, भाऊजी देवरस सरकार में शरीक होने तक की हिमायत कर रहे हैं. जब देश के वर्तमान और भविष्य पर साम्राज्यवाद का आक्रमण हो रहा है, मुल्क भिखारियों की तरह हाथ फैलाए दर-दर भटक रहा है तो ये ‘देशभक्त’, जनता का ध्यान सैकड़ों साल पहले के आक्रमण से आहत ‘स्वाभिमान’ का बदला लेने में उलझाए रखने का प्रयास कर रहे हैं.

जिस तरह मानव-इतिहास गतिमान है उसी तरह मानव-भूगोल भी. अनंत काल से लोग एक जगह से दूसरी जगह आते, जाते और बसते रहे हैं. कभी आक्रांता के रूप में तो कभी शरणार्थी के रूप, कभी व्यापारी बनकर तो कभी याचक बनकर, कभी शिल्पी के रूप में तो कभी गुलाम के रूप में, कभी छात्र के रूप में तो कभी शिक्षक के रूप में. सभी की संतानों की धमनियों में एक ही तरह का रक्त प्रवाहित होता है और सभी के सीने में वैसी ही मानवीय संवेदनाएं होती हैं. नस्ल और नस्लवाद न तो जीव वैज्ञानिक गुण या प्रवृति है, न ही शाश्वत विचार जो इतिहास के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता हुआ विरासत के रूप में हमारे बीच जीवित है.

नस्लवाद एक विचारधारा है जिसे हम अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आदत की तरह जीने लगते हैं और निरंतर उसकी पुनर्रचना करते रहते हैं. नस्लवादी विचारधराओं के इतिहास के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि भिन्नता को श्रेष्ठता और तुच्छता की शब्दावली में पेश करने वाली इन विचारधराओं के उद्देश्य सदैव राजनीतिक-आर्थिक होते हैं.

गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप के उपरोक्त संपादकीय में लिखा था, ‘धर्म और ईमान के नाम पर होने वाले इस जीवन व्यापार को रोकने के लिए साहस और दृढ़ता के साथ उद्योग होना चाहिए.’ आज जब मुल्क के अंदर की विघटनकारी ताकतों के सहयोग से साम्राज्यवादी-आक्रमण की धार तेज होती जा रही है, इस तरह के उद्योग की जरूरत और भी ज्यादा हो गई है.

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