गुरूचरण सिंह
दुनिया के ताकतवर मुल्क भी अपनी बेकार की दुश्मनी खत्म करने की कोशिश करते हैं, जैसे ट्रंप ने भारत से लौटते समय अफगानिस्तान में तालिबान से समझौता करके 19 साल पुरानी उस ख़ूनी जंग को खत्म कर दिया, जिसमें अमरीका और नाटो के 3500 सैनिक और अफ़ग़ानिस्तान के एक लाख नागरिक मारे गए थे और अमरीका को दो हज़ार अरब डॉलर का आर्थिक नुक़सान भी उठाना पड़ा था. लेकिन शायद संघ-भाजपा ने कसम खा रखी है अपनी अढ़ाई चावल की खिचड़ी अलग पकाने की.
हमेशा से जिन मुल्कों के साथ हमारे बहुत अच्छे रिश्ते रहे है मसलन, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे उन पड़ोसी मुल्कों को भी हमने CAA लाकर अपने खिलाफ बोलने का मौका दे दिया है. सभी सरकारें थोड़ा बहुत पक्षपात तो करती ही हैं लेकिन दिखावे के लिए ही सही, कोई सिद्धांत तो उन्हें उसके लिए भी गढ़ना पड़ता है. लेकिन मौजूदा सरकार तो उसकी भी कोई जरूरत नहीं समझती. किसी भी शंका का समाधान उसकी कार्य संस्कृति में है ही नहीं. नागरिकता कानून के संशोधन में सभी पड़ोसी देश क्यों नहीं शामिल किए गए ? भारत में रह रहे श्रीलंका के तमिल शरणार्थी क्यों भुला दिए गए ?
CAA, NPA और NRIC लाकर एक सियासी तूफान को क्यों दावत दी गई, इसे समझने से पहले इस साधारण से गणित को समझना बहुत जरूरी है :
• वाजपेयी की अध्यक्षता में मानवीय चेहरे के साथ चुनाव में उतरी भाजपा का वोट शेयर जब 29% था तो लोकसभा में उसे मात्र दो ही सीट मिल पाई थी.
• 1989 में राम मंदिर के मुद्दे पर उसे सीट मिली 86 और वोट शेयर का प्रतिशत था 30 यानि 1984 से 1% अधिक.
• जब यह वोट शेयर 1% बढ़कर 31 हो गया तो तो लोकसभा में उसके सांसद भी 86 से बढ़कर 112 हो गए.
• 2014 में मीडिया और कार्पोरेट के जबरदस्त समर्थन के बावजूद यह वोट शेयर महज़ एक फीसदी ही और बढ़ा लेकिन सीट बढ़ कर हो गईं 282.
• 2019 में तेज राष्ट्रवादी बुखार के बावजूद वोट शेयर तो एक प्रतिशत ही (34%) लेकिन सीटें रिकॉर्ड तोड़ आंकड़े को छू गईं यानि 303 हो गईं.
वोट शेयर 34 फीसदी हो जाने की कामयाबी भी मीडिया के 24×7 प्रचार, कार्पोरेटी दोस्तों की खुली तिजोरी, चुनाव आयोग के आत्मसमर्पण, न्यायालय के संरक्षण, नौकरशाही और पुलिस प्रशासन की ‘जी-हजूरी’ रवैये के चलते ही मिल पाई है. यानि 66% वोटर आज भी या तो उसके खिलाफ हैं या अवसाद के चलते मतदान ही नहीं करते. सबसे बड़ी बात उन्हें विकल्प भी नहीं सूझ रहा है और मौजूदा विपक्ष उम्मीद जगा पाने में असमर्थ रहा है.
खैर, संघ-भाजपा अच्छी तरह जानता है कि उसका अपना पारंपरिक वोट बैंक 30 से 32 प्रतिशत के बीच ही झूलता रहता है. रिकॉर्ड जीत के लिए मिला 2% की बुनियाद तो झूठ और मक्कारी पर टिकी हुई है, कभी भी खिसक सकती है लेकिन संघ की योजना तो 50 साल तक सत्ता से चिपके रहने की हैं. उसके लिए जरूरी अतिरिक्त 3% वोटर कहां से आएंंगे ? जाहिर है कि ये नए वोटर यहां के तो हो नहीं सकते, उन्हें तो विदेश से ही लेकर आना होगा. CAA उसी दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है.
जैसे दुनिया भर के यहूदियों को लाकर ‘इस्राइल’ बसाया गया, ठीक वैसे ही विदेशों में बसे हिंदुओं को लाकर भारत एक ओर दुनिया को ठेंगा दिखाना चाहता है और दूसरी ओर इस 3% वोट शेयर की कमी पूरा करना चाहता है. पहले चरण में इसके लिए इंडोनेशिया, मलेशिया, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान को चुना गया है, जहां काफी हिंदू आबादी है.
अब इन्हें शरणार्थी कहिए या कुछ और, इन्हें बसाने के लिए मकान तो चाहिए ही. विभाजन के समय बड़े पैमाने पर कई शरणार्थी कॉलोनियों को बनाया गया था लेकिन यहां तो आबादी पहले से ही ज्यादा है, इसलिए इन ‘विदेशियों’ को भारतीय नागरिकता देना तो आसान होगा नहीं. उसका एक रास्ता है मकान खाली करवाना. NPR और NRIC यही काम तो करने वाले हैं.
विदेश में बसे हिंदू बिना किसी लालच क्यों आएंगे यहां ? देशभक्ति की बात होती तो बेहतर जीवन शैली, नौकरी और कारोबार के लिए विदेश में बसते ही क्यों ? बने बनाए घर, दुकान, व्यापार कारखाने तो उन्हें देने ही होंगे. ये तभी दे पाएंगे जब आबादी के एक हिस्से की नागरिकता खत्म कर दी जाएगी. इन देशों के लगभग 5 करोड़ हिंदुओं को यहां लाकर बसाने की योजना है.
आज जब देशभर में सीएए-एनआरसी के खिलाफ जनता मैदान में डट गई है, लेनिन यह यह कविता आह्वान करती प्रतीत होती है. फिनलैंड में भूमिगत जीवन बिताते हुए सन् 1907 में लेनिन ने आह्वान के रूप में एक लंबी कविता लिखी थी, प्रस्तुत है उस कविता का एक अंश :
निर्वासित लोग अंतहीन दर्द से कराह रहे हैं.
गोलियों की बौछार रात के सन्नाटे को चीर डालती है.
फिर एक दहशत भरी शांति छा जाती है.
खाते-खाते गिद्धों को अरुचि हो गयी है.
वेदना और शोक मातृभूमि पर पसर गये हैं.
जो दुख में डूबा हुआ न हो, ऐसा कोई परिवार नहीं.
अपने जल्लादों को लेकर,
ओ तानाशाह ! चलाओ अपना खूनी उत्सव,
मनाओ हत्या का जश्न.
ओ खून चूसने वालों.
अपने लालची कुत्तों को लगा कर,
जनता का मांस नोच-नोच कर खाओ.
अरे तानाशाह !
बेशक आग फैला दो हमारी बस्तियों में,
चाहे हमारा खून पीयो,
हैवान ! हमें कितना भी लहूलुहान कर दो.
पर मुक्ति ! तुम जागो.
लाल निशान तुम लहराओ.
फैसले की घड़ी आ रही है, याद रखो.
मुक्ति के लिये,
हम मौत के मुंह में भी जाने को तैयार हैं.
हांं ! मौत के मुंंह में भी !
हम लडे़ंगे मुक्ति के लिए
और हासिल करेंगे सत्ता,
उस संघर्ष के बाद दुनियांं जनता की होगी.
गैर-बराबरी को खत्म करने की लडा़ई में,
अनगिनत लोग मारे जाएंगे, हमें मालूम है.
फिर भी यह कारवांं रुकेगा नहीं.
अनेकों-अनेक मुक्ति की आकांक्षा के लिए,
बढे़ चलो !
ओ मेहनतकश ! यह आह्वान तुम्हारे लिए है.
बढे़ चलो !
वाजिब मेहनताने के लिए
आगे बढो़.
आंंखों में अंगारे लिए
चेतावनी के साथ,
ओ श्रमिक साथियों !
आसमान थर्राते हुए,
चोट करो लगातार श्रम के औजारों से,
हथौडे़ की चोट और हंसिये की निरंतर गति से !!
(कविता हिंदी दर्शन से साभार)
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