आजादी के वाद 1984 के दंगों को छोड़ दें तो दिल्ली में दंगों का इतिहास नहीं रहा है. उस दंगे में भी पुलिस की भूमिका पर सवाल उठा था, और आज जब दिल्ली हिंसा पर बात हो रही है तो कठघरे में पुलिस ही है. इस दंगे में पुलिस अपना प्रोफेशनल दायित्व निभाने में असफल रही और कई ऐसे अवसर पर जब उसे मजबूती से कानून को लागू करना चाहिए था, तो वह निर्णय विकलांगता की स्थिति में दिखी. दिल्ली में जब 23 फरवरी को छिटपुट हिंसा होने लगी तो जो स्वाभाविक प्रतिक्रिया किसी भी पुलिस बल की होती है, वह भी करनेे में दिल्ली पुलिस असफल रही. आज सबसे अधिक सवाल दिल्ली पुलिस की भूमिका पर ही उठ रहे हैं. पुलिस के गैर-पेशेवराना रवैये पर टिप्पणी करते हुए धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित नेशनल पुलिस कमीशन ने भी 1979 में कहा, ‘पुलिस की वर्तमान स्थिति उसी विरासत की देन है, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से पुलिस को मिली है. वह राजनीतिक सत्ता को बनाए रखने का एक औजार बनकर रह गई है.’
लगभग 40 साल पहले की गई यह टिप्पणी आज भी उतनी प्रासंगिक है. इसी को देखते हार पुलिस कमीशन ने पुलिस सुधार के लिए कई सिफारिशें की हैं, जो अभी तक लंबित हैं, या कुछ राज्यों द्वारा आधे-अधूरे तरह से लागू की गई हैं. दिल्ली की वर्तमान हिंसा आकस्मिक नहीं है और न ही इसका तात्कालिक कारण धर्म से जुड़ी कोई इमारत मंदिर या मस्जिद है. न तो यह मुहर्रम या दशहरे से जुड़े किसी उन्मादी जुलुस के बीच आपसी टकराव का नतीजा है और न ही होली, बकरीद से जुड़ी किसी घटना से. नये नागरिकता कानून के विरोधस्वरूप देश भर में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं. दिल्ली में भी ऐसे ही एक धरना और सड़क जाम के दौरान भाजपा नेता कपिल मिश्र पहुंचते हैं, और कहते हैं कि ट्रंप के जाने तक वे चुप रहेंगे. फिर निपटेंगे. यह नेता पहले दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान भी आपत्तिजनक सांप्रदायिक भाषण दे चुके हैं. फिर उसके बाद हिंसा भड़क उठी. आज तक यह उन्माद थमा नहीं है.
दिल्ली पुलिस देश की सबसे साधन संपन्न पुलिस मानी जाती है लेकिन इस दंगे में यह कई जगह किंकर्तव्यविमूढ़-सी दिखी. जब कुछ नेताओं द्वारा अनर्गल बयानबाजी की जा रही थी, और उससे शहर का माहौल बिगड़ रहा था, जो हिंसा हो रही थी, तब भी जितनी तेज और स्वाभाविक पुलिस का रिस्पॉन्स होना चाहिए था. जब कर्फ्यू लगा कर शांति स्थापित करने की सबसे अधिक जरूरत थी, तब पुलिस का रवैया बिल्कुल गैर-पेशेवराना था. साफ जाहिर हो रहा है कि पुलिस किसी ऊपरी आदेश की प्रतीक्षा में है, और वह यह निर्णय ले ही नहीं पा रही है कि कब क्या किया जाए ? दिल्ली पुलिस की यह बदहवासी बढ़ती हिंसक घटनाओं के वाबजूद नहीं दिखी. साथ ही, पिछले तीन-चार महीने में जो पुलिस का रिस्पॉन्स जेएनयू, जामिया यूनिवर्सिटी, शाहीन बाग आदि के बारे में दिखा, निराश करता है.
पुलिस की ऐसी गैर-पेशेवराना स्थिति हुई कैसे ? इसका सबसे बडा कारण है पुलिस के दिन -‘प्रतिदिन के कार्यों में राजनीतिक हस्तक्षेप. इस दखलअंदाजी से मुक्त करने के लिए बीएसएफ और यूपी के पूर्व डीजीपी, प्रकाश सिंह ने पुलिस सुधार पर राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2006 में पुलिस सुधार पर जनहित में कार्यवाही करने के लिए राज्य सरकारों को कुछ दिशा-निर्देश जारी किए. अदालत और आयोग की मुख्य चिंता पुलिस को बाहरी दवाबोंं से दूर रखने की थी. उन्हें पता है कि न तो कानून अक्षम है, और न ही अधिकारी निकम्मे हैं लेकिन 1861 से चली आ रही औपनिवेशिक मानसिकता कि ‘कानून से अधिक सरकार चलाने वाला महत्वपूर्ण ‘है ,पुलिस की प्राइम मूवर बनी हुई है. इसीलिए अदालत ने बाहरी दबावों से पुलिस को बचाने के लिए, एक महत्वपूर्ण दिशा निर्देश के रूप में राज्य सुरक्षा आयोग के गठन का निर्देश दिया.
कुछ राज्यों ने सुप्रीम कोर्ट के दिशा -निर्देश के अंतर्गत उसके अनुपालत में कानून बनाए हैं लेकिन वे कानून और गठित राज्य सुरक्षा आयोग सुप्रीम कोर्ट के उन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करते हैं, जिनके बारे में सोच कर सुप्रीम कोर्ट ने दिशा निर्देश जारी किए थे. मतलब स्पष्ट था कि सरकार कोई भी हो, वह अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुसार, पुलिस पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहती है.
सभी दंगों की समीक्षा होती है. चाहे वह न्यायिक जांच के रूप में हो या प्रशासनिक जांच या कोई और अन्य जांच एजेंसी के जरिए यह काम किया जाए. हर जांच में सबसे अधिक निशाने पर पुलिस की भूमिका ही होती है. दंगा भड़काने और फैलाने वालों की जो भी भूमिका और षड्यंत्र हो, उनके खिलाफ कार्रवाई करने, उन्हें नियंत्रित करने और शांति स्थापित कर कानून-व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस बल की ही है. 1984 के सिख विरोधी दंगे की जांच कर रही जस्टिस ढींगरा कमेटी ने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी की थी, पुलिस ने हत्या, दंगा, लूटपाट, आगजनी की बड़ी संख्या में दर्ज अपराधों के लिए जो कारण बताए हैं, वे एक दूसरे से मेल नहीं खाते हैं तथा परस्पर असंबद्ध है. इन दर्ज मामलों की जांच और निपटारा, कानून के अनुसार करने या दोषियों को दंडित करने के इरादे से उठाये गए कदम, तार्किक नहीं हैं. दंगे किसी सामूहिक अपराध की तरह नहीं होते और आईपीसी के अंतर्गत दर्ज अपराधों के अनुसार वे गंभीर हों, यह भी जरूरी नहीं. जैसे मारपीट, आगजनी, संपत्ति का नुकसान आदि धाराएं हत्या या हत्या के प्रयास आदि गंभीर धाराओं की तुलना में हल्के अपराध है. लेकिन जब एक समूह के रूप में उन्मादित भीड़ योजनाबद्ध तरीके से यह सब अपराध करते चली जाती है तो यही सारे अपराध जो असर भुक्तभोगियों और समाज पर डालते हैं, वे लंबे समय तक उनके मन मस्तिष्क पर बने रहते हैं, जिनका परिणाम वहुत घातक होता है.
दुखद है कि 1984 के दंगों से जो सबक सीखे जाने चाहिए थे, वे इस दंगे के समय भी नहीं सीखे जा सकते. 1984 का दंगा भी पुलिस की किंकर्तव्यमूढ़ का एक दस्तावेज था और यह भी उसका एक लघुरूप ही लगता है. तभी हाई कोर्ट के जज जस्टिस मुरलीधर ने कहा कि ‘वे दिल्ली को 1984 नहीं बनने देंगे.’ जब वे यह कह रहे थे तो उनका आशय राजनेता, पुलिस दुरभिसंधिजन्य पुलिस कार्रवाई थी. कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली ही नहीं, अन्य राज्यों में भी.
इधर हाल के आंदोलनों में पुलिस की जो भूमिका रही, यह औपनिवेशिक काल के समान रही है, न कि एक लोक कल्याणकारी राज्य की पुलिस सेवा की तरह. चाहे दंगे हों या सामान्य अपराध या आंदोलन से निपटने के अवसर, हर परिस्थितियों और आकस्मिकताओं के लिए कानून बने हैं. पुलिस को उन कानूनों को लागू करने के लिए उन्हीं कानून में अधिकार और शक्तियां भी दी गई हैं. बस जरूरी यह है कि कानून को कानूनी तरीके से ही लागू किया जाए और पुलिस बल एक अनुशासित, प्रशिक्षित और दक्ष कानून लागू करने वाली एजेंसी की तरह काम करे, न कि राजनीतिक आकाओं की एजेंडा पूर्ति करने वाले एक गिरोह में बदल जाए.
- विजय शंकर सिंह
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