विकीपीडिया लिखता है कि मानव समाज में जितनी भी संस्थाओं का अस्तित्व रहा है, उनमें सबसे भयावह दासता की प्रथा है. मनुष्य के हाथों मनुष्य का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न इसी प्रथा के अंर्तगत हुआ है. दासप्रथा को संस्थात्मक शोषण की पराकाष्ठा कहा जा सकता है.
एशिया, यूरोप, अफ्रीका, अमरीका आदि सभी भूखंडों में उदय हानेवाली सभ्यताओं के इतिहास में दासता ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं के निर्माण एवं परिचालन में महत्वपूर्ण योगदान किया है, जो सभ्यताएंं प्रधानतया तलवार के बल पर बनी, बढ़ीं और टिकी थी, उनमें दासता नग्न रूप में पाई जाती थी.
दासों की प्राप्ति का प्रधान स्रोत था युद्ध में प्राप्त बंदी किंतु मातापिता द्वारा संतानविक्रय, अपहरण तथा संगठित दासबाजारों से क्रय द्वारा भी दास प्राप्त होते थे जो ऋणग्रस्त व्यक्ति अपना ऋण अदा करने में असमर्थ हो जाते थे, उन्हें भी कभी कभी इसकी अदायगी के लिए दासता स्वीकार करनी पड़ती थी. दास माता से पैदा हुआ शिशु भी दासता अपनाने के लिए विवश था. इनके अलावा युद्धों में हारे सैनिक, अपहृर्त नागरिक तथा स्वतंत्र नागरिक भी दास बनाए जा सकते थे. इन्हें ना केवल कठिन कार्योंं में लगाया जाता था बल्कि इन्हें बेड़ियों से भी बांंधा जाता था ताकि वे भाग ना सके. इसी कारण बहुत से दास कम उम्र में ही लंगडे़ हो जाते थे.
एथेंस, साइप्रस तथा सेमोस के दासबाजारों में एशियाई, अफ्रीकी अथवा यूरोपीय दासों का क्रय विक्रय होता था. घरेलू कार्यों अथवा कृषि तथा उद्योग धंधों संबंधी कार्यों के लिए दास रखे जाते थे. दास अपने स्वामी की निजी सपत्ति समझा जाता था और संपत्ति की भांंति ही उसका क्रय विक्रय हो सकता था. कभी-कभी स्वामी प्रसन्न होकर स्वेच्छा से दास को मुक्त भी कर देते थे और यदा-कदा दास अपनी स्वतंत्रता का क्रय स्वयं भी कर लेता था. यूनान में दास बहुत बड़ी संख्या में थे और ऐसा अनुमान है कि एथेंस में दासों की संख्या स्वतंत्र नागरिकों से भी अधिक थी. दासों तथा नागरिकों के भेद का आधार प्रजाति न होकर सामाजिक स्थिति थी.
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि भारत पर आर्यों के हमले और जीत के बाद भारत के पराजित हो चुके निवासी दो हिस्सों में बंट गये. एक स्वभिमानी खेमा जंगलों पहाड़ों में दूर जा छिपे, जो आजकल आदिवासी के बतौर चिन्हित किये जा सकते हैं. दूसरा खेमा आर्यों की अधीनता स्वीकार कर उसके गुलाम यानी दासत्व को स्वीकार कर लिये. आर्यों ने दासता स्वीकार कर चुके लोगों को शुद्र कहकर संबोधित किया और उसके साथ समाजिक और राजनैतिक अधिकार सुनिश्चित किया.
भारत में ब्राह्मणों (आर्यों) ने जिन्हें शूद्र कहा है, जो वर्तमान में पिछड़ी जातियों (OBC) की श्रेणी में आते हैं, भारत में आज भी दासप्रथा का समृद्ध अवशेष है. अधिकांश अनुसूचित जातियों को ब्राह्मणवादी व्यवस्था में अछूत माना गया है. जंगल, पहाड़ों, नदियों, तालाबों के आस-पास अत्यंत प्राचीन मूल निवासियों को अब अनुसूचित जनजाति कहा जाता है. ये तीनों वर्ग देश के लगभग 72% जनसंख्या हैं. इन जातियों के पतन के पिछड़े होने के मूल कारण हैं :
1. ब्राह्मणवादी कर्म-काण्ड, संस्कार विधि की गुलामी.
2. पूजा-पाठ.
3. पखण्ड और अंधविश्वास की जकड़न.
4. व्यावसायिक मनोवृति का अभाव.
5. शिक्षा एवं वैज्ञानिक सोच का अभाव
यह सर्वत्र दिखायी देता है कि इन शूद्र वर्ग के लोग ब्राह्मणी पुराण, कथा साहित्य, रामायण और महाभारत के कथाओं से इसलिए प्रभावित हुए हैं क्योंकि इन्हें धार्मिक पुस्तक घोषित किया गया है. शुद्र वर्ग के लोग सरस्वती पूजा, संतोषी पूजा, छठ पूजा, गोवर्धन पूजा, पर्वत पूजा, लक्ष्मी पूजा, पार्वती व्रत, गणेश पूजा, शिव पूजा, काली पूजा, चंडी पूजा, कादण्डिया पूजा, सत्यनारायण पूजा, त्रिलोकी नाथ कथा पूजा इत्यादि में लिप्त होकर इसके गुलाम हैं. ब्राह्यणवाद के पोषक हैं.
अधिकांश शूद्र धार्मिक अंधविश्वास, पाखण्ड तथा प्रपंच के शिकार हैं. इनमें सम्यक शिक्षा का अभाव है. जो शिक्षित हैं वह प्रज्ञाशील नहीं हैं. शिक्षा पाकर ‘बुद्धिजीवी’ तो बन गए हैं, किन्तु ‘बुद्धिशाली’ नहीं बन पाये हैं इसीलिये शूद्रों में इतिहास बोध नहीं विकसित हो पाया है. कुछ शूद्र वर्ग के लोगों को यह गर्व है कि वह हिन्दू हैं, किन्तु उन्हें इस तथ्य कि समझ नहीं है कि वे हिन्दू के नाम पर ‘मनुवाद’ के शिकार हैं.
शुद्र जातियों और अनुसूचित जातियों में शिक्षा के अभाव के साथ ही व्यावसायिक, वाणिज्यिक मनोवृत्ति का अभाव भी है. इन जातियों में ‘राजनैतिक जागरूकता’ तो बढ़ी है, किन्तु ‘राजनैतिक समझदारी’ नहीं विकसित हुई है. अधिकांश लोग शासक जातियों और विशेषकर ब्राह्मणों कि सामाजिक नीति, रणनीति एवं तौर-तरीके की जानकारी नहीं रखते हैं. अधिकांश जातियों में दूरदर्शिता का भी अभाव है. जातिवाद का शिकार होने के कारण इस वर्ग के लोग अपना ‘बहुजन मूलनिवासी समाज’ नहीं बना पा रहे है. इन वर्गों के लोग राजनैतिक जागरुकता के कारण राजनैतिक राजनीति करने लगे हैं सामाजिक राजनीति नहीं. इसकी इन्हें जानकारी नहीं है. वे लोग इसके महत्व को नहीं जानते हैं.
ब्राह्मणवादी व्यवस्था में समाज को बांंटकर जो जातियांं बनाई गई उससे अखंड समाज नहीं बन पाया, परिणामतः समुदायों में जातीय और सामाजिक दूरी बढ़ गयी. इन वर्गोंं के पिछड़ेपन के उक्त मूल कारण है.
‘हिन्दू धर्म-ग्रन्य’, वास्तव में ब्राह्मणों द्वारा रचित ‘ब्राह्मण धर्म-ग्रन्थ’ है जिसमें शूद्रों अर्थात OBC को पददलित किया गया है, पिछड़ा किया गया है, उनके विकास के रास्ते बन्द किए गए हैं. उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करने के लिए मजबूर किया गया है, जिसके कारण उनका सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास नहीं हो पाया.
शूद्रों के विषय में मनुस्मृति में जो कानून बनाया गया है, वे बहुत ही शर्मनाक, गन्दा तथा मानवता विरोधी है. मनुष्यों में नीचता, उच्चता, दुराव, वैमनस्य एवं अलगाववाद पैदा किया गया है. कुछ उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहे हैं –
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।
एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ।। 91/01 ।।
अर्थात, प्रभु ने शूद्र का एक ही कर्म कहा है कि वह इन चारों वर्गों की निष्कपट होकर सेवा करे.
मण्डल्यं ब्राहाम्णस्य स्यात्क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्त शूद्रस्य तु जुगुप्सितम् ।। 31/2 ।।
अर्थात, ब्राह्मण मंगलयुक्त, क्षत्रिय का बलयुक्त, वैश्य का धनयुक्त और शूद्र का निंदायुक्त होना चाहिए.
न शूद्र राज्ये निवसेन्नाधार्मिकजनावृते।
न पाषाण्डिगणाकान्ते, वोपसृष्टेऽन्त्यजैमिः ।। 61/4 ।।
अर्थात, जहां ‘शूद्रों’ का राज्य हो, वहां न रहे. अधार्मिक जनों से घिरा न रहे. पाषण्ड-गणों से घिरा न रहे. अन्त्यज्य लोगों से भी दूर-दूर रहे.
न शूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्टं न हविष्कृतम्।
न चास्योपदिशेद्धम न चास्य व्रतमादिशेत् ।। 80/4||
अर्थात, शुद्र को बुद्धि न दे, न उसे उच्छिष्ट ही दे और न उसे हवि का अंश ही दें. न उसे धर्म का उपदेश करे और न उसे व्रत-पालन का आदेश दें.
राजान्नं तेज आदत्ते, शूद्राननं ब्रह्मवर्चसम्।
आयु सुवर्णकारान्नं यशश्चमीवकर्तिनः ।। 218/4 ।।
अर्थात, राजा का अन्न खाने से तेज नष्ट होता है, शूद्र का अन्न खाने से ब्रह्म-तेज नष्ट होता है. सुनार का अन्न खाने से आयु नष्ट होती है और चमार का अन्न खाने से यश नष्ट होता है.
दातन्यं सर्वचणेभ्यो राज्ञा चौरैर्हत धनम्।
राजा तदुपयुन्जानश्चौरस्याप्नोति किल्बिषम्।। 40/8।।
धर्मोपदेशं दर्पण विप्राणामस्य कुर्वतः ।
तप्तमासेचयेत्तैलं वक्त्रे श्रोत्रे च पार्थियः ।। 272/8।।
अर्थात, यदि शूद्र अभिमान के कारण ब्राहमणों को धर्मोपदेश देने की गुस्ताखी करें तो राजा को चाहिए कि उसके मुंह और कान में खौलता हुआ तेल डलवा दे.
सहासनमभिप्रेप्सुरूत्कृष्टस्यापकृष्टजः ।
कटघां कृताकड़ों निस्यिः स्फिचं वास्यावकर्तयेत्।। 281/8||
अर्थात, जो शूद्र ब्राह्मणोंं के साथ एक आसन पर बैठना चाहै तो राजा उसकी कमर पर दगवाकर उसे देश से निकलवा दे, वा उसके चूतड़ कतरवा लें.
विस्रब्धं ब्राह्मणः शूद्राद्रव्योपादानमाचरेत्।
नहितस्यास्ति किन्चित्स्वं भर्तहार्यधनोहि सः ।। 417/8 ||
अर्थात, ब्राह्मणोंं को आवश्यकता पड़े तो वह शूद्र का धन बेरोक टोक ले लें, क्योंकि उसका अपना धन तो हो ही नहीं सकता. उसका सब धन उसके मालिक का है.
पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविडाः काम्बोजा यवनाः शकाः ।
पारदापहवाश्चीनाः किराता दरदाः खशाः ।। 44/10।।
अर्थात, पौंड्रक, ओड्र. द्रविड़, काम्बोज, यवन, शक, पारद, पब, चीन, किरात, दरद और खस इन देशों के निवासी क्रिया के लोप होने से धीरे-धीरे शूद्र हो गए.
स्वर्गार्थमुमयार्थ वा विप्रानाराधयेतु सः ।
जातब्राम्हणषब्दस्य सा हचास्य कृतकृत्यता।। 122/1011
विप्रसेषैव शूद्रसय विशिष्टं कर्म कौर्त्यते।
यदतोऽन्यद्धि कुरुते तद्भवत्तस्य निष्फलम्।। 123/1011
अर्थात, शुद्र स्वर्ग के लिये या स्वार्थ-परमार्थ दोनों के लिये ब्राह्मणों की ही सेवा करे. अमुक शूद्र ब्राह्मण का आश्रित है, यह कहलवाना ही उसकी कृतकृत्यता है.
उच्छिष्टमन्नं दानव्यं जीर्णानि वसनानि च।
पलाकाश्चैव धान्यांना जीर्णाश्चैव परिच्छदाऽ।। 125/1011
अर्थात, शूद्र को जूठन खाने के लिये दी जाय, पुराने वस्त्र पहनने के लिये दिये जाये, निस्सार धान्य दिये जायें और फटे-पुराने ओढन-बिछावन दिये जायें.
शक्तेनापि हि शूद्रेण न कार्यों धतसंचयः।
शूद्रो हि धनमासाद्य बाम्हणानवबाधते।। 129/10।।
अर्थात, यदि शूद्र समर्थ हो तब भी उसके पास धन का संचय नहीं होने देना चाहिये. यदि शूद्र के पास धन हो जाता है तो वह शूद्र ब्राह्मणों को ही कष्ट पहुंचाता है.
उक्त मनुस्मृति के विधान के अतिरिक्त अन्य ब्राह्मण धार्मिक पुस्तकों में जो शूद्रों के लिए आदेश-निर्देश और व्यवस्था दी गयी है उसका संक्षिप्त उल्लेख निम्नांकित है :
1. यह जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र जो विभाजन है वह मेरा द्वारा ही रचा गया है.’ (गीता 4-13)
2. मेरी शरण में आकर स्त्री, वैश्य, शूद्र भी जिनकी उत्पत्ति पाप योनि से हुई है, परम गति को प्राप्त हो जाते हैंं. (भगवत गीता 9-32)
3. शूद्र का प्रमुख कार्य तीनों वर्णों की सेवा करना है.(महाभारत 4/50/6)
4. शूद्र को सन्चित धन से स्वामी की रक्षा करनी चाहिये. (महाभारत 12/60/36)
5. शूद्र तपस्या करे तो राज्य निर्धनता में डूब जायेगा. (वाल्मीकि रामायण 7/30774)
6. ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी. सकल ताड़ना के अधिकारी. (रामचरित मानस 59/5)
7. पूजिये विप्र सील गुन हीना, शूद्र न गुण गन ग्यान प्रविना। (रामचरितमानस 63-1)</strong
8. वह शूद्र जो ब्राह्मण के चरणों का धोवन पीता है, राजा उससे कर टैक्स न ले। (आपस्तंबधर्म सूत्र 1/2/5/16)
9. जिस गाय का दूध अग्निहोत्र के काम आवे शूद्र उसे न छूये. (कथक सन्हिता 3/1/2)
10. शूद्र केवल दूसरों का सेवक है, इसके अतिरिक्त उसका कोई अधिकार नहीं है. (एतरेय ब्राह्मण 2129/4)
11. यदि कोई ब्राह्मण शूद्र को शिक्षा दे तो उस ब्राह्मण को चान्डाल की भांंति त्याग देना चाहिये. (स्कंद पुरान 10/19)
12. यदि कोई शूद्र वेद सुन ले तो पिघला हुआ शीशा, लाख उसके कान में डाल देना चाहिये. यदि वह वेद का उच्चारण करे तो जीभ कटवा देना चाहिये. वेद स्मरण करे तो मरवा देना चाहिये. (गौतम धर्म शूत्र 12/6)
13. देव यज्ञ व श्राद्ध में शूद्र को बुलाने का दंड 100 पर्ण. (विष्णु स्मृति 5/115)
14. ब्राह्मण कान तक उठा कर प्रणाम करे, क्षत्रिय वक्षस्थल तक, वैश्य कमर तक व शूद्र हाथ जोड़कर एवं झुक कर प्रणाम करे. (आपस्तंब धर्मसूत्र 1,2,5/16)
15. ब्राह्मण की उत्पत्ति देवता से, शुद्रों की उत्पत्ति राक्षस से हुई है. (तैतरीय ब्राम्हण 1/2/6/7)
17. यदि शूद्र जप, तप, होम करे तो राजा द्वारा दंडणीय है. (गौतम धर्म सूत्र 12/4/9)
17. यज्ञ करते समय शूद्र से बात नहीं करना चाहिये. (शतपत ब्राम्हाण 3:1/10)
18. जो शूद्र अपने प्राण, धन तथा अपनी स्त्री को, ब्राह्मण के लिए अर्पित कर दे उस शुुद्र का भोजन ग्राह्य है. (विष्णु पुराण 5/11)
महाभारतकहता है – शूद्र राजा नहीं बन सकता. गीता कहती है – शुद्र को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की गुलामी करनी चाहिए. रामायण कहता है – शूद्र को ज्ञान प्राप्त करने पर मृत्युदंड मिलना चाहिए. वेद कहता है – शूद्र ब्रह्मा के पैरों से पैदा हुआ है इसलिये वो नीच है. वेद कहता है – शूद्र का स्थान ऊपर के तीनों वर्णों के चरणों में है. पुराण कहता है – शूद्र केवल गुलामी के लिए जन्म लेते हैं. रामचरित मानस कहता है – शूद्र को पीटना धर्म है.
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