Home गेस्ट ब्लॉग वेलेंटाइन डे : मधुमास और प्रेम का व्यवसायीकरण

वेलेंटाइन डे : मधुमास और प्रेम का व्यवसायीकरण

6 second read
0
0
497

वेलेंटाइन डे : मधुमास और प्रेम का व्यवसायीकरण

गुरूचरण सिंह

आजकल वेलेंटाइन बिरादरी बहुत व्यस्त है. देखते ही बनता है उनका उत्साह ! किसी के भी पास सिर खुजलाने तक की फुरसत नहीं है. इतने सारे दिन त्योहार जो हैं भाई जो एक के बाद एक धड़ाधड़ चले आ रहे हैं – कभी रोज़ डे,कभी प्रपोज़ डे, कभी टैडी डे, कभी बियर डे तो कभी किस डे और अंत में इन सब की परिणति होती है वेलेंटाइन डे में. फरवरी आई नहीं कि किशोर छात्रों से लेकर बड़े-बूढ़ों तक सभी इस अगेती फगुआ की नशीली ब्यार में झूमने लग जाते हैं. साल में महज़ एक ही बार आने वाले इतने सारे प्रेम के इन दिवसों को अब मनाना भी तो है और अपने यहां तो मनाने का मतलब अब अपने वेलेंटाइन यानि प्यार के लिए हैसियत से बढ़ कर उपहार खरीदना होता है और अगर ऐसा उपहार खरीदना है तो उसके लिए रुपए पैसे की व्यवस्था भी तो करनी होगी.

प्रेम के इसी तिजारती रूप के साथ सामंती सोच भी मिल जाती है तो दिखता है कामुकता और गुंडई का वह घृणित दृश्य जो गार्गी कॉलेज में देखने को मिला. प्रिंसिपल खामोश, पुलिस मूकदर्शक, राहगीर सारे के सारे तमाशबीन, मीडिया की साजिशी चुप्पी और लोगों के मनोरंजन का सामान बनी बेचारी छात्राओं की चीख-पुकार दबंगों को और उत्तेजित करती है, वे और भी ज्यादा कामांध पशु बन जाते हैं, निरीह छात्राओं के दुप्पटे हवा में उड़ने लगते हैं, उनकी छातियां मसली जाती हैं, किस किया जाता है, इससे भी मन नहीं भरता तो उनके सामने हस्तमैथुन का मुजाहिरा किया जाता है लेकिन संस्कृति को बचाने का दावा करने वाली राजनीति तो व्यस्त होती है दहशत के माहौल में वोटों के ध्रुवीकरण करके दिल में चुकी दिल्ली के बांस की फांस को निकालने में. वैसे भी बेकार नौजवान तभी उसके लिए काम करेंगे न जब उनकी ‘जरूरतों’ का ख्याल रखा जाएगा !!

वैसे भी हमारे यहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पहले से ही जीवन के चार लक्ष्य निर्धारित कर दिए गए थे; ‘जां की रही भावना जैसी’ की तर्ज पर जिसको जो रुचे वह उसी राह पर चल पड़े. धर्म और मोक्ष का झुनझुना उनके लिए जिनकी जरूरत आपको अपनी ‘महंती की गद्दीं’ बचाए रखने के लिए है, वरना झुकाव तो हमारा पूरी तरह अर्थ और काम की ओर ही है, वरना मंदिरों में भी रति क्रीड़ा का नग्न प्रदर्शन न होता और न ही धर्म का इस तरह से बेहूदा व्यवसायीकरण हुआ होता. न तो वेश्यावृत्ति ही दुनिया का सबसे पुराना व्यवसाय होता, भले ही अपने देश में उसे देवदासी प्रथा जैसी धार्मिक मान्यता क्यों न प्राप्त हो और न ही ‘कामसूत्र’ से लेकर रीतिकालीन परंपरा के साहित्य की रचना, मुंबइया फिल्मों का भौंड़ा देह प्रदर्शन और ‘ब्लू फिल्मों’ का इतना बड़ा बाजार न बन गया होता.

दरअसल वेलेंटाइन डे ने प्यार को एक संकुचित अर्थ तक ही सीमित कर दिया है. दरअसल उपहार देकर, तरह-तरह से रिझा कर नया रिश्ता बनाने की चाहत ही उसके केंद्र में है. देह से शुरू हो कर देह पर ही खत्म हो जाने वाले रिश्ते अगर बनते हैं तो देह पर टूट भी जाते हैं. जहां पर शुरू वहीं पर खत्म. फिर से एक नए रिश्ते की तलाश ! लेकिन जब ग़ालिब मियां फरमाते हैं कि ‘इक आग का दरिया है और डूब के जाना है’, तो उसकी कैफियत समझ नहीं आती ! वह कैसा प्यार है, कैसा जनून है, यह जो किसी की खुशी के लिए खुद को भी फ़ना कर सकता है. वेलेंटाइन बिरादरी के लिए यह सब ‘रूमानी बातें’ हैं. उसे यह सब समझ में नहीं आता कि कैसे मुमकिन हो सकता है कि कोई किसी दूसरे व्यक्ति या मकसद के लिए ‘सारी दुनिया’ को छोड़ दे !! दरअसल बड़ी ही ‘प्रैक्टिकल’ है यह बिरादरी भी ! तभी तो वह उसे ‘असल प्यार’ नहीं ‘रूमानी प्यार’ कहती है.

प्राची और सामी दोनों ही परम्पराएं प्रेम का आरंभ देह से ही मानती हैं. कुछ प्रेम प्रसंग देह से शुरू हो कर देह तक सीमित रह जाते हैं. ‘जर,जोरू,जमीन’ को हासिल करने के लिए होने वाले खून-खराबे के पीछे भी यही नजरिया है. ऐसा प्रेम बांधता है कई दायरों में ! लेकिन असल प्रेम अपने प्रेमी को मोहपाश में बांधता नहीं कार्ल मार्क्स की तरह आजाद कर देता है. देह से शुरू हो कर हमारा प्रेम विकास के कई मरहले तय करते हुए ‘मैं’ से ‘पर’ तक की तमाम सीमाओं को भी लांघ जाता है, उस में कुछ इस तरह विलीन हो जाता है कि दोनों में कोई भी, कैसा भी अंतर नहीं रह जाता. यहीं वह बिंदु है जहां राधा कृष्ण हो जाती है और कृष्ण राधा; हीर कह उठती है, ‘रांझा रांझा कैहंदी नी मैं आपैई रांझा होई’, रामकृष्ण परमहंस और मीरा के लिए तो लोक मर्यादा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता. प्रिय की खुशी, प्रेमी को दूसरों के दुख दूर करने में अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित करती है. तभी तो कोई ईसा ‘दूसरों के पाप’ अपने सिर पर लेकर खुशी-खुशी सलीब पर लटक जाता है, ‘अनलहक़’ कहता हुआ कोई मंसूर सूली पर लटक जाता है, कोई गुरू अर्जुन देव गर्म तवे पर बैठ जाता है, खौलते पानी में डुबकी मारने से भी नहीं डरता, और अपने प्रिय का ‘भाणा (रज़ा) मीठा लागे’ की बात करता है और कोई तेग बहादुर चेहरे पर बिना कोई शिकन लाए चांदनी चौक में सर कटा लेता है.

लेकिन यह सब तो वेलेंटाइन बिरादरी के समझने की चीज़ है ही नहीं. उन बेचारों क्या पता कि वे सभी तो प्यार के नहीं प्यार के व्यवसायीकरण के शिकार हैं. हमने जब धर्म तक को ही नहीं छोड़ा एक फायदेमंद धंधा बनाने से, तो इस प्यार (उनकी नज़र से काम व्यापार) की क्या औकात है भला ! कुंभ मेले के लिए पांच हजार करोड का बजट कोई धार्मिक कारणों से निर्धारित नहीं किया जाता ! वह भी एक कारण हो सकता है लेकिन असली निशाना तो राजनीतिक हित साधना होता है, अपने ‘काम के’ चमचों/समर्थकों को मेले की व्यवस्था के लिए करोड़ों के ठेके दे कर. दरअसल इन धार्मिक आयोजनों की आड़़ में व्यापारिक हित साधे जाते हैं, भले ही वे आयोजन किसी भी मज़हब के हो ! प्यार के इस व्यवसाय के बाजार का मूल्य भी खरबों डॉलर का हैं. इस बाजार को चलाने वाले खिलाड़ी क्यों चाहेंगे कि आप इस ‘आग के दरिया’ में उतर जाए और उनका सारा कारोबार चौपट हो जाए  इसलिए विज्ञापनों की चकाचौंध से दिमाग को ही सुन्न कर दिया जाता है.

Read Also  –

छात्रों के खिलाफ मोदी-शाह का ‘न्यू-इंडिया’
गार्गी कॉलेज में छात्राओं से बदसलूकी
नालंदा और तक्षशिला पर रोने वाला अपने समय की यूनिवर्सिटियों को खत्म करने पर अमादा है
स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व बनाम आरएसएस
झूठ का व्यापारी 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…