दुनिया भर में मिथक और दंतकथाएं फैली हुई है. हर जातियां और सभ्यताओं के अपनी-अपनी कथाएं होती है. दंतकथाएं असल जिंदगी के लोगों या इतिहास की घटनाओं पर आधारित होती हैं या किसी जगह से जुड़ी होती हैं. इनमें हकीकत से दूर बहुत ज्यादा साहसिक करानामे हो सकते हैं या ये अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकती हैं या समय के साथ इनमें बदलाव हो सकता है, लेकिन इतिहास और भूगोल में दंतकथाओं की बहुत मजबूत पैठ होती है.
जहां दंतकथाएं इतिहास पर आधारित होती हैं, वहीं मिथकों की जड़ें धर्म या आस्था से पैदा हुई रीतियों और कुरीतियों में होती हैं. वे ऐतिहासिक कहानी के बजाय कुदरती घटनाओं को बयान करती हैं. कई संस्कृतियों में ऐसे मिथक हैं, जो एक जैसी कुदरती घटनाओं की कहानी कहती हैं. ये मिथक और दंतकथाएं वक्त के बदलते हिसाब से खुद को दुहराती या मिटाती जाती है. विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास होने के साथ-साथ खासकर आधुनिक युग इन मिथक और दंतकथाओं को विज्ञान की कसौटी पर कसते हैं, और इस हिसाब से उसकी व्याख्या करती है.
दुनिया में भारत इस मामले में अद्भूत है जहां मिथकों और दंतकथाओं के हिसाब से विज्ञान को चलाने की शासकीय कोशिशें हो रही है. 2014 में देश की सत्ता पर काबिज होने वाली आरएसएस की एजेंटों ने मिथकों और दंतकथाओं से अलग भी इतिहास और विज्ञान को अपने मनमाफिक व्याख्याओं का आधार बना लिया है. मसलन, ब्रह्मा दुनिया का पहला सर्जन था, जिसने हाथी का सर काट कर मनुष्य के सर में फिट कर दिया. डार्विन का विकासवाद सिद्धांत व्यर्थ है. न्यूटन का गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत गलत है ब्लां-ब्लां.
वहीं भारतीय इतिहास को भी मिथकों और दंतकथाओं को आधार रूप में प्रस्तुत करने का एक ढर्रा-सा चल पड़ा है, जिसे संघी-इतिहासवेत्ता आये दिन देश की संसद और सार्वजनिक मंचों का उपयोग कर प्रस्तुत कर रहा है. 21वीं सदी के 2020 में देश के संघीवेत्ताओं ने देश के बजट सत्र का इस्तेमाल भी इन्हीं मिथकों और दंतकथाओं की स्थापना करने में उपयोग किया है. विद्वान गुरूचरण सिंह ने अपने लेख में इस पर विस्तार से चर्चा की है.
एक सदी से लगा हुआ था संघ खामोशी से इस काम में इसलिए उससे बेहतर कौन बता सकता है इस प्रक्रिया के बारे में. इस बीच आर्य समाज या अलग-अलग जुबान बोलती संघ की बीसेक सहायक संस्थाओं में से एक आध कोई पर्चा या पुस्तिका अपने लोगों में फ्री बंटवा दिया करते थे, जिसमें विदेशी हमलावर मुसलमानों के खिलाफ ‘ प्रमाण सहित ‘ जहर उगला गया होता था. ऐसी तीन पुस्तिकाएं मेरे पास आज भी हैं; दो लुधियाना में और एक दिल्ली में, जो हमारे एक आर्यसमाजी मित्र और प्रचारक के जरिए प्राप्त हुई थी !
अपने अपने स्वार्थों के आपस में लडते छोटे-छोटे नगर राज्यों वाला यह देश अचानक ब्रह्मवर्त बन जाता है, यानि राष्ट्र के तमाम घटक इसमें आ जाते हैं. अकबर से मिली हार का गम भुलाने के लिए जो राणा प्रताप हर बार एक और कमसिन युवती से शादी कर लेता है, वह और लंपट कामुक पेशवा राष्ट्रीय नायक बन जाते हैं ! प्रजा पर उनके अत्याचारों और कामुकता के प्रतिकार की कहानी कहता है भीमा कोरेगांव का स्मारक ! ऐसे उदाहरणों की भरमार है जिनका उपयोग संघ ने बंटवारे के दर्द और गुस्से को झेलते एक कुंठित समाज को एकजुट करने के लिए किया. इन तमाम विचारों का उत्स है वित्त मंत्री का साढ़े तीन घंटे का बजट भाषण, जिसमें सिंधु घाटी सभ्यता को सरस्वती सिंधु घाटी सभ्यता के नाम से संबोधित करते हुए कई तथ्य जोड़ दिए थे इसके साथ, जैसे लोहे की गलाने की कला से परिचित थे. बेशक थे, लेकिन इसका संबंध इससे कैसे जुड़ जाता है ? वह पारंपरिक विद्या आज भी निरंतर सिकुड़ रही झारखंड की असुर जनजाति के पास सुरक्षित है.
खैर, दुनियां की सबसे पुरानी, बड़ी और परिपक्व सभ्यता का केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध में था. तत्पश्चात इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ. इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के ही कुछ भाग नहीं थे, बल्कि गुजरात, राजस्थान सीमा से सटा इलाका और हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दिल्ली से लगे भाग भी थे. इसका फैलाव उत्तर में रावी नदी के तट से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर, पाक के सिंंध प्रांत से लेकर उत्तर पूर्व में आलमगिरपुुुर में हिरण्य से मेरठ तक था. नदी घाटी का इतना बड़ा फैलाव, सच में हैरानी होती है और वह भी तब इस मान्यता का आधार एक लुप्त या अंत:सलिला वाली नदी सरस्वती हो. कुरुक्षेत्र के एक कस्बे पिहोवा में एक कीचड़ से भरे ‘सरस्वती’ के संकल्प लेने के लिए पर्याप्त जल में पिंडदान किया जाता है और गया की भांति ही प्रेत आत्माओं की मुक्ति के लिए इसकी महिमा का गुणगान किया जाता है.
मतलब यह कि देश के इस उत्तर पश्चिमी इलाके में सरस्वती नदी बहती थी, जो कालांतर में लुप्त हो गई और गुप्त रूप से प्रयागराज में संगम स्थल में गंगाजमुना के साथ मिल गई. ऐसी भी मान्यता है कि ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था. इसी प्रथम यज्ञ के ‘प्र’ और ‘याग’ अर्थात यज्ञ से मिलकर ‘प्रयाग’ बना और उस स्थान का नाम प्रयाग पड़ा. इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहां वेणीमाधव रूप में विराजमान हैं. भगवान के यहां बारह स्वरूप ही विद्यमान हैं, जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है. इनमें बुद्ध और कल्कि अवतार भी शामिल हैं लेकिन अगर सरस्वती उस इलाके से बहती ही नहीं थी तो संगम स्थल त्रिवेणी कैसे हो गया ?
प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है. प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है. किसी तांबे या ताम्र-मिश्रित धातु के मिश्रण को कांस्य कहा जाता है; यह मिश्रण प्रायः जस्ते के साथ होता है,कई बार फास्फोरस, मैंगनीज़, अल्युमिनियम या सिलिकॉन आदि के साथ भी मिला कर बनता है. दूसरे शब्दों में इस समय धातुओं को गलाने और मिश्रित करने की कला से परिचित थे. नागरी सभ्यता के पीछे एक ग्रामीण सभ्यता और अर्थव्यवस्था का होना आवश्यक है क्योंकि नगरीकरण विकास का अगला चरण है, जिसके लिए वर्तमान सरकार कटिबद्ध है 105 स्मार्ट सिटी बनाने का संकल्प ले कर !
सुश्री उमा भारती की याद तो होगी ही पाठको को, मोदी मंत्रिमंडल में जल संसाधन मंत्री हुआ करती थी. उन्हीं के प्रयासों से इस मंत्रालय के तहत एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था, जिसकी रिपोर्ट के मुताबिक जिस सरस्वती नदी को एक मिथक माना जाता था, उसका वास्तव में अस्तित्व था ! इस महान उपलब्धि पर सरकार के लिए एक शाबाशी तो बनती ही है ! तमाम कोशिशें कर के सरकार ने आखिर यह साबित कर ही दिया कि यह नदी आदिबद्री से निकल कर हड़प्पाकालीन धौलवीरा नगर तक बहती थी. इस महान खोज पर गदगद जल-संसाधन मंत्री सुश्री उमा भारती ने स्पष्ट शब्दों में बता दिया है कि कमेटी की इस रपट को कोई भी चुनौती नहीं दी सकती ! लेकिन क्यों ? इस बारे में कुछ भी कहना उन्होंने उचित नहीं समझा ! मुमकिन है वह इसे निर्विवादित तथ्य मानती हों या फिर यह उनकी आस्था का प्रश्न हो जिस पर कोई चर्चा नहीं हो सकती ? हालांकि पिछले साल ही सिडनी यूनिवर्सिटी ने LITHER तकनीक से जो नया सर्वेक्षण किया है उसमें 4000 साल बाद 8वीं शताव्दी में अंगकोरवाट के उजड़ने के सबूत मिले हैं. इसी सर्वे से पता लगा है कि ब्राह्मण तो अंकोरवाट से भारत आए, न कि यहां से वहां गए थे, जैसी कि प्रचलित मान्यता है. इसी तरह सिंधु घाटी सभ्यता में, जिसे अब सरस्वती सिंधु घाटी सभ्यता का के प्रचारित किया जा रहा है, उसमें एक भी सबूत नहीं मिला है ब्राह्मणी मंदिरों और कर्मकांड का ! भारतीय उपमहाद्वीप का कोई भी मंदिर 7वीं सदी से पुराना नहीं है और 8वीं सदी में अंकोरवाट उजड़ा था !
लेकिन मेरी समस्या तो कुछ और ही है. इलाहाबाद (अब प्रयाग) से मेरा बड़ा पुराना रिश्ता रहा है. रेल मंडल कार्यालय मेरी कर्मस्थली भी रहा है और नाव से गौर वर्ण गंगा और श्यामला यमुना के संगम पहुंच कर में डुबकी मारते समय अनेकों बार तीनों नदियों- गंगा, यमुना और सरस्वती- का स्मरण भी किया है. लखनऊ जाने के लिए त्रिवेणी रेलवे स्टेशन से कई बार गाड़ी भी पकड़ी है लेकिन इस ‘खोज’ और सरस्वती सिंधु घाटी सभ्यता के नए रंग रूप आकार से साथ अब संगम मेला स्थल पर कल्पवास करने वाले श्रद्धालुओं की आस्था का क्या होगा ? संगम पर स्नान करवाने वाले पण्डों की रोज़ी-रोटी का क्या होगा जो बताते आए हैं कि सरस्वती की गुप्त धारा संगम में आकर मिल जाती है ? कई पीढ़ियों से संगम में स्नान कर रहे श्रद्धालुओं और साधुओं के अखाड़ों की आस्था का क्या होगा क्योंकि इस रपट को तो सुश्री उमा भारती के मुताबिक चुनौती भी नहीं दी जा सकती ??
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