गुरूचरण सिंह
कोई पांच दशक पहले की बात है ! पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) में बंगालियों के मुक्ति संग्राम को दबाने के लिए पाक सैनिकों का दमन चक्र पूरे जोर से चल रहा था. कोई एक लाख पाकी सैनिक झोंक दिए गए थे मुक्तिकामी बंगालियों की आकांक्षाओं को दबाने के लिए. उन्हीं दिनों लुधियाना के पंजाब यूनिवर्सिटी एक्सटेंशन लाइब्रेरी, सिविल लाइंस के सभागार में ABVP के झंडे तले जनसंघ (भाजपा का पहला अवतार) ने एक परिचर्चा आयोजित की थी ‘पूर्वी पाकिस्तान का दमन चक्र क्या पाकिस्तान का घरेलू मसला है ?’ इसमें भाग लेने के लिए कॉलेज की ओर से दो लोगों को भेजा गया था, जिनमें से एक मैं भी था.
तब भी मेरा यही मानना था कि बातचीत से समाधान निकालने की बजाए जिद में अपने नागरिकों पर किसी भी तरह के दमन और अत्याचार की कार्रवाई को घरेलू मसला कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. आज भी मैं इसका समर्थक हूं जब यूरोपीय संघ ने संसद में विचार और मतदान के लिए भारत के खिलाफ 370A और CAA पर छः प्रस्ताव रखे हैं. ऐसे मसलों में लिए जाने वाले आधारिक स्टैंड के मुताबिक ही भारत का भी स्टैंड है – यह हमारा घरेलू मसला है ! आधिकारिक सूत्रों ने यूरोपीय संघ (ईयू) संसद में संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) को लेकर मतदान से पहले रविवार (26 जनवरी) को कहा कि ईयू संसद को ऐसे कदम नहीं उठाने चाहिए जो लोकतांत्रिक रूप से चुने गए सांसदों के अधिकारों एवं प्रभुत्व पर सवाल खड़े करें. CAA भारत का पूर्णतया अंदरूनी मामला है और यह कानून संसद के दोनों सदनों में बहस के बाद ही लोकतांत्रिक माध्यम से पारित किया गया था. एक सूत्र ने कहा है, ”हम उम्मीद करते हैं कि प्रस्ताव पेश करने वाले एवं उसके समर्थक आगे बढ़ने से पहले तथ्यों के पूर्ण एवं सटीक आकलन के लिए हमसे वार्ता करेंगे.”
कम्बल छीन लेने, लंगर बंद कर देने और धरना प्रदर्शन रोकने की दूसरी पुलसिया ज्यादितियों के बावजूद देश में पचास से अधिक शाहीन बाग, केरल और पश्चिमी बंगाल में क्रमशः 70 और 11 किलोमीटर लंबी मानव श्रृंखला तथा देश के दूसरे इलाकों से भी आ रही लगातार ऐसी ही ख़बरें सबूत हैं, इस बात का कि कानूनन चाहे जो भी स्थिति हो, ‘लोकतांत्रिक कानून तो यह बिलकुल नहीं है.’ अधिक से अधिक इसे संख्या बल से की गई एक मनमानी कार्रवाई अवश्य कहा जा सकता है जिससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है.
गणतंत्र समारोह की परेड और झलकियों की तरह पारित हुआ नागरिकता कानून भी स्टेज मैनेज्ड एक मीडिया इवेंट ही लगता है. गणतंत्र समारोह की परेड और झलकियां भी महज़ दिखाई गई वास्तविकता हैं, सच्चाई से तो इनका दूर-दूर तक का वास्ता नहीं है. अगर भारतीय जनजीवन की असलियत दिखाना ही इनका मकसद होता तो महाराष्ट्र की झांकी में दिखते पेड़ों से लटका रस्सी का वह टुकड़ा तो दिख ही जाता जिससे फांसी लगा कर खुदकुशी की थी किसानों ने. बंगाल और केरल की झांकियों में राइट लेफ्ट दोनों के ही मारे राजनीतिक कार्यकर्ताओं की ख़ून से सनी तस्वीरों की एक आर्ट गैलरी सी बनी होती.
झांकियों में कम से कम एक शाहीन बाग़ तो दिखा होता ! दिल को सकून पहुंचाने वाली जेंडर इंक्वॉलिटी वाली ठंडक का अहसास तो बस परेड में मोटर साइकिल के करतब दिखाती लड़कियों को देखकर ही कर लिया गया. सैनिक, अर्ध-सैनिक बलों और दिल्ली पुलिस की निगरानी में राजपथ के किनारे भीड़ एकदम व्यवस्थित बैठी रही और वहां से कोई 14 किमी दूर पूरी तरह अव्यवस्थित-सी दिखने वाली एक भीड़ ने शाहीन बाग में दादियों, अम्मियों और लड़कियों की अगुवाई में फूल बरसाने वाले हेलिकॉप्टर का इंतज़ार किए बगैर ही तिरंगा फहरा दिया और इसके साथ ही लहराने लगा आंचल का बना परचम भी हौंसलों की अनूठी दास्तां बन कर.
लोग चाहते हैं आप रोटी, कपड़ा और मकान पर बात करो, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य की खुल रही दुकानों पर बात करो और आप उलझा देतें हैं हिंदु, मुसलमान और पाकिस्तान में. सुनना शायद बंद हो गया है आपको, तभी तो आप विरोध की ये आवाजें सुन नहीं पाते. और जब दुनिया के दूसरे लोग सुनते हैं और अफसोस जताते हैं लोकतंत्र के अविभावक के रूप में अपनी असफलता पर तो आप कानून की ओट में खड़े हो कर कहने लगते हैं कि यह तो हमारा घरेलू मसला है.
यही बात अगर 1971 में इंदिरा गांधी ने कही होती (वही जिसे आप लोगों ने पूर्वी पाकिस्तान में फौजी कार्रवाई करने के लिए दुर्गा मां का अवतार कहा था) और बांग्लादेशियों पर पाक सेना के अत्याचार को पाकिस्तान का घरेलू मसला मान लिया होता, तो क्या ग्लोब पर एक नया देश बना होता, भिन्न स्वभाव और संस्कृति वाले बंगालियों को बलोच और पंजाबी पाक फौजियों के जोर जुल्म से निजात मिल गई होती क्या ?
अगर भारत की पूर्वी पाकिस्तान में फौजी कार्रवाई पाक के अंदरूनी मसले में दखलंदाजी नहीं थी तो EU संसद का ऐसी ही एक भारतीय स्थिति पर विचार करना दखलंदाजी कैसे हो गया ? जब-जब भी आप लोगों के जनतांत्रिक विरोध को दबाने की कोशिश करेंगे, तब-तब संवेदनशील मुल्कों की ऐसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी. अगर आप अपने घरेलू मसले बातचीत से हल नहीं करते तो वे मसले सड़कों पर आ जाते हैं और देखते ही देखते पूरी दुनिया की चिंता का विषय भी बन जाते हैं, तब आपका घरेलू मसला यकीन माने, घरेलू तो बिल्कुल नहीं रहता !
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