रविश कुमार, मैग्सेस अवार्ड प्राप्त जनपत्रकार
पूरी दुनिया में भारत की पहचान का अगर कोई ब्रांड अंबेसडर है तो वह भारत का लोकतंत्र है. लोकतंत्र हमारी पहचान का परचम रहा है. दमखम रहा है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रास्ते में चुनौतियां आईं हैं मगर यहां के लोग जो कभी स्कूल नहीं गए, जिन्हें कभी सिस्टम से कुछ नहीं मिला, जो हर तरह की तकलीफ में रहे हैं, वैसे लोगों ने भी लोकतंत्र के झंडे को नीचे नहीं झुकने दिया है. 1947 में हम एक ग़रीब मुल्क के रूप में आज़ाद हुए. जब बंटवारे के कारण लाखों लोग एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गए तब भी संविधान सभा के हमारे बुज़ुर्ग सोच समझ कर संवाद करते हुए संविधान की रचना कर रहे थे. हम बड़ी अर्थव्यवस्था नहीं थे जब 1950 में संविधान लागू किया. हम कोई सुपर पावर नहीं थे जब 1951 में पहला चुनाव हुआ. आपातकाल आया तो हर ग़रीब लोकतंत्र के लिए लड़ गया. जेलें भर गईं. उस लड़ाई के नाम पर अपनी राजनीति बनाने वालों के दौर में भारत का लोकतंत्र डेमोक्रेसी इंडेक्स यानी लोकतंत्र के सूचकांक पर 10 अंक नीचे गिर गया है. दि इकोनोमिस्ट 1843 की पत्रिका है. इस पत्रिका ने 2006 में एक डेमोक्रेसी इंडेक्स बनाया. 2019 का साल डेमोक्रेसी के लिए सबसे बुरा साल बताया गया है. क्या नागिरकता कानून और रजिस्टर के विरोध में दुनिया भर में हो रहे प्रदर्शनों के कारण भी भारत की छवि को नुकसान पहुंचा है.
भारत की मीडिया से दूर न्यूज़ीलैंड के ऑकलैंड शहर में 19 जनवरी को नागरिकता कानून और रजिस्टर के विरोध में जब मार्च निकला तो इसमें वहां की ग्रीन पार्टी की सांसद भी आई और भारतीयों को संबोधित किया. न्यूज़ीलैंड के स्थानीय लोग भी इस मार्च में शामिल थे. इस प्रदर्शन को लेकर डॉ. सपना सामंत ने एक प्रेस रिलीज़ जारी की है जिसमें लिखा है कि यह कानून भारत के संविधान की आत्मा के खिलाफ है. असम में एनआरसी लागू होने के कारण लोगों को काफी तकलीफों से गुज़रना पड़ा है. इन प्रदर्शनों के बैनरों पोस्टरों पर फासीवाद लिखा है. न्यूजीलैंड के लोग फासीवाद के खिलाफ है. भारत सबका है. जामिया, जेएनयू और एएमयू के छात्रों के साथ सहानुभूति दिखाई गई है. यूनिवर्सिटी पर हमले को रोकने की बात है. दो घंटे तक चले इस मार्च में जो बैनर पोस्टर हैं वो भारत की अच्छी तस्वीर तो पेश नहीं कर रहे हैं. लेकिन एक बार सोचना तो चाहिए कि इस कानून ने लोगों को कितना भयभीत किया है जगह जगह लोग सड़कों पर उतर रहे हैं. एक बैनर पर लिखा है कि कहीं भी अन्याय हो वो न्याय के लिए ख़तरा है. इस पोस्टर को पढ़कर शायद नागिरकता रजिस्टर और कानून की बहस बदल जाए. इस पर यही लिखा है कि कोई भी इंसान अवैध नहीं होता है. क्या इन लोगों ने भी नागरिकता कानून को नहीं समझा, इनमें से कई भारतीय न्यूज़ीलैंड की नागिरकता लेकर शानदार जीवन जी रहे हैं, ऐसे लोग भी तो नागरिकता को लेकर कुछ समझ रखते होंगे. प्रदर्शनकारियों ने कहा कि भारतीय होने का मतलब सिर्फ होली दिवाली, भांगड़ा साड़ी और समोसा ही नहीं है. इन्होंने न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री से मांग की वे इस कानून की निंदा करें और दुनिया के ध्यान में लाएं. न्यूज़ीलैंड की सांसद ने इस मार्च को संबोधित किया. दि इकोनमिस्ट की डेमोक्रेसी रैकिंग में न्यूज़ीलैंड का स्थान दुनिया भर में चौथा है.
इन प्रदर्शनों से भले ही गृहमंत्री अमित शाह बेचैन नहीं हैं. उन्होंने डंके की चोट पर कहा है कि कानून वापस नहीं होगा. लेकिन इसके विरोध में जो डंका बज रहा है उसे भी सुनने की ज़रूरत है. दि इकोनोमिस्ट ने भारत की रैकिंग खराब होने के कारणों में असम की एनआरसी के साथ नागरिकता कानून को भी एक कारण माना है. एक पत्रिका ने दुनिया के मुल्कों के लिए पैमाने तय किए हैं. सब कुछ आंख मूंद कर यकीन करने की जगह हमें देखना चाहिए कि यह तो सही है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र खतरे में हैं. सोशल मीडिया हैक कर चुनाव जीते जा रहे हैं. चुनावी प्रक्रियाओं को लेकर चारों तरफ विवाद है और लोकतंत्र सिमटता जा रहा है. इस हालात में ऐसी रैकिंग को देखकर सतर्क तो होना ही चाहिए. दि इकोनोमिस्ट ने इसके लिए 167 देशों में लोकतंत्र को मापने के लिए पांच पैमाने बनाए हैं. चुनावी प्रक्रिया और बहुलता, नागरिक स्वतंत्रता, सरकार के कामकाज, राजनीतिक भागीदारी और राजनीतिक संस्कृति. इन पांच कैटगरी के भीतर अलग-अलग 60 पैमानों पर नंबर दिए गए हैं. उसके बाद सभी 167 देशों को चार अलग-अलग प्रकार की शासन व्यवस्था में बांटा गया है. पूर्ण लोकतंत्र, कमज़ोर लोकतंत्र, मिश्रित सत्ता और निरंकुशवादी व्यवस्था.
सोचिए पूर्ण लोकतंत्र की कैटगरी में भारत का स्थान नहीं है. कुल 22 देश ही आ सके जिनकी कुल आबादी 43 करोड़ के आस-पास है. पहले नंबर पर नॉर्वे है. इसे 10 में से 9.87 अंक मिले हैं. इसके बाद आइसलैंड, स्वीडन, न्यूज़ीलैंड, फिनलैंड, आयरलैंड, डेनमार्क, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया हैं. स्विट्ज़रलैंड, नीदरलैंड, लग्ज़मबर्ग, जर्मनी, ब्रिटेन, उरुग्वे, ऑस्ट्रिया जैसे देश हैं. फिर पड़ोसी मॉरिशस है, इसके बाद स्पेन, कोस्टा रिका, फ्रांस, चिली और पुर्तगाल को पहले 22 में स्थान मिला है.
दोषपूर्ण यानी कमज़ोर लोकतंत्र में भी एक कैटगरी है ज़्यादा कमज़ोर लोकतंत्र. इसमें भारत को स्थान मिला है. दोषपूर्ण लोकतंत्र में कुल 54 देश आए हैं. 2006 में यह सूचकांक शुरू हुआ है, इस बार भारत को सबसे खराब अंक मिले हैं. भारत को 165 देशों और 2 शासित क्षेत्रों में से 51वां स्थान मिला है.
नागरिक अधिकारों के हनन के कारण भारत की रैकिंग गिर गई है. 10 नंबर में से भारत को मात्र 6.9 अंक मिले हैं. कोरिया, जापान, अमरीका दोषपूर्ण लोकतंत्र की कैटगरी में हैं. दक्षिण कोरिया को भी भारत से बेहतर अंक मिले हैं.
11 ऐसे देश हैं जहां लोकतंत्र में सबसे अधिक गिरावट हुई है. उनमें से एक नाम भारत का है. भारत की स्थिति लोकतंत्र के सूचकांक पर क्यों खराब हुई है. इस पर The Economist Intelligence Unit ने लिखा है कि नागरिक अधिकारों के हनन को सबसे बड़ा कारण बताया गया है. जम्मू कश्मीर से संविधान से मिले विशेष दर्जे को छीन लेना. धारा 370 हटाने से पहले जम्मू कश्मीर में भारी संख्या में सेना की तैनाती. इंटरनेट पर रोक लगा दी गई. बड़ी संख्या में स्थानीय नेताओं को नज़रबंद कर दिया गया. भारत समर्थक नेताओं को भी नज़रबंद किया गया है. भारत को राजनीतिक संस्कृति में सबसे कम अंक मिले हैं.
लोकतंत्र की एक बड़ी संस्था है प्रेस. रिपोर्टर बिदाउट बॉर्डर्स हर साल प्रेस की स्वतंत्रता की रैकिंग निकालता है. जो देश प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में पहले पांच देशों में आते हैं उन्हीं देशों का नाम सबसे लोकतांत्रिक देशो में आया है. इस रैकिंग में भारत का स्थान दुनिया 180 में 140वां है. पहले से दो अंक गिरा ही है. नागरिक अधिकारों के हनन के कारण भारत की रैकिंग गिरी है. 19 दिसंबर के आस पास यूपी भर में नागरिकता कानून के विरोधियों पर पुलिस की कार्रवाई को लेकर गंभीर सवाल उठे हैं. युवाओं की टीम तथ्यों का पता लगाने गई थी जिसने आज दिल्ली में एक प्रेस कांफ्रेंस की.
इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 30 अलग अलग यूनिवर्सिटी से छात्रों के दल ने यूपी के 15 शहरों का दौरा किया है जहां पर हिंसा हुई है. इन छात्रों ने हिंसा प्रभावित लोगों से बातचीत की है और उनका बयान रिकार्ड किया है. प्रेस क्लब में लिखित बयान के साथ वीडियो भी जारी किया गया. इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए 60 से अधिक छात्र अलग अलग हिस्सों में गए थे. इसमें बीएचयू, दिल्ली यूनिवर्सिटी, जेएनयू, जामिया, आईआईटी इंदौर, अंबेडकर सेंट्रल यूनिवर्सिटी लखनऊ. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी आईआईएम अहमदाबाद और उदयपुर, आईआईटी ग्वालियर, भारतीय जनसंचार संस्थान, आईपी यूनिवर्सिटी, कानपुर यूनिवर्सिटी, सागर यूनिवर्सिटी मध्य प्रदेश, FTII पुणे, वर्धा यूनिवर्सिटी, टिस हैदराबाद, अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी बेंगलुरू के छात्रों ने दौरा कर यह रिपोर्ट तैयार की है. इंडियन एक्सप्रेस ने छापा है कि 20 दिसंबर की हिंसा के बाद 13 लोगों को न्यायिक हिरासत में हैं. हत्या के प्रयास के आरोप में. 6 एफआईआर में लिखा है कि आरोपी ने जुर्म कबूल कर लिया है कि अवैध हथियार से गोली चलाई. जबकि एक्सप्रेस ने ही छापा था कि 6 पोस्टमार्टम में कोई गोली नहीं मिली थी. फिरोज़ाबाद को लेकर छात्रों की रिपोर्ट में कहा गया 20 दिसंबर को शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहा था. पुलिस की लाठी भगदड़ मची और पुलिस ने गोली चलाई. पुलिस ने उसके बाद उन इलाके को टारगेट किया जहां प्रदर्शन हो ही नहीं रहे थे. 14 लोगों को गोली लगी जिसमें से 7 की मौत हुई है. इस रिपोर्ट में कहा गया कि यूपी भर में पुलिस की कार्रवाई में गरीब तबके मुसलमानों को टारगेट किया गया है. जिनमें मज़ूदर हैं, ढाबे में काम करने वाले लोग थे.
सरकारी अस्पताल का डाक्टर कैसे इलाज से मना कर सकता है. अगर ऐसा हुआ है तो यह बेहद गंभीर बात है. इन बातों की प्रेस में रिपोर्टिंग कम है क्योंकि आप जानते हैं टीवी चैनलों का सारा हिस्सा डिबेट से भरा रहता है. सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता संशोधन कानून पर रोक लगाने से फिलहाल इंकार कर दिया है. कोर्ट ने सरकार से चार हफ्तों के भीतर याचिकाओं पर जवाब मांगा है. केंद्र सरकार ने जवाब दाखिल नहीं किया है. केंद्र के वकीलों का कहना था कि 60 नई याचिकाएं आ गईं हैं जिनके जवाब की तैयारी के लिए वक्त चाहिए. आज जब इन याचिकाओं पर सुनवाई के लिए तीन जजों की बेंच बैठी तो सुनने के लिए भारी संख्या में लोग पहुंच गए थे. मुख्य न्यायाधीश को सुरक्षा कर्मियों को बुलाना पड़ा. इसी पर बहस होने लगी कि जो भीड़ आई है उसे कैसे रोका जाए. कपिल सिब्बल ने कहा कि जल्दी सुनवाई होनी चाहिए. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि यूपी में नागिरकता संशोधन कानून के तहत काम भी शुरू हो गया है जिस पर रोक लगनी चाहिए क्योंकि नियमों का पता नहीं. सिब्बल और सिंघवी ने संविधान पीठ को मामला भेजे जाने की मांग की. कोर्ट ने साफ कहा कि वह एकपक्षीय रोक नहीं लगा सकता.
इस सुनवाई को देखते हुए गुवाहाटी यूनिवर्सिटी पूरी तरह ठप्प थी. 10 दिसंबर के बाद पहली बार यूनिवर्सिटी बंद हुई है. यही नहीं पूर्वोत्तर की दस यूनिवर्सिटी भी बंद रही है. शिलांग की नेहू और इटानगर की राजीव गांधी यूनिवर्सिटी भी बंद रही. असम की कॉटन यूनिवर्सिटी भी बंद रही. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि असम और त्रिपुरा की याचिकाओं को अलग कैटगरी में सुना जाएगा. इसे ये छात्र अपनी नैतिक जीत के रूप में देख रहे हैं. दो महीने से पूर्वोत्तर के छात्र आंदोलन कर रहे हैं. मंगलवार को अमित शाह ने कहा था कि नागरिकता कानून वापस नहीं लिया जाएगा. इससे छात्र और गुस्से में हैं. बीजेपी वापस जाओ के नारे लगा रहे थे.
असम के अलावा दार्जीलिंग में यह मुद्दा अलग है. असम में जो नागरिकता रजिस्टर की प्रक्रिया हुई थी उसमें एक लाख गोरखा छूट गए थे. कई हज़ार गोरखा संदिग्ध वोटर लिस्ट में आ गए थे. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने दार्जीलिंग में मार्च किया. भानू भवन से लेकर चौक बाज़ार तक मार्च किया. ये जगह दार्जीलिंग के बीच में है. चार किलो तक हुए इस मार्च में हज़ार से ज्यादा लोगों ने मार्च किया. मार्च में महिलाएं पारंपरिक लिबास में हिस्सा लेने आईं. ममता बनर्जी ने हिन्दी, अंग्रेजी और पढ़कर नेपाली में भाषण दिया कि पहाड़ी लोगों को नागरिकता संशोधन कानून, नेशनल पोपुलेशन रजिस्टर और नागरिकता रजिस्टर का विरोध किया. गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट ने ममता बनजी के आंदोलन को अपना समर्थन दिया है. इस शर्त पर कि अगर इस क्षेत्र को छठी अनुसूचि में डाल दिया जाए. उन्होंने केंद्र से सवाल किया कि असम में हुई एनआरसी की प्रक्रिया में से एक लाख गोरखा लोगों और तेरह लाख हिंदुओं को शामिल क्यों नहीं किया गया. उधर बंगाल के कूचविहार और अलीपोरद्वार में बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष ने भी नागरिकता समर्थन कानून के समर्थन में रैली की है.
बिहार के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन फैल गया है. किशनगंज की चूड़ीपट्टी में भी 20 दिनों से महिलाएं धरने पर बैठी हैं. मुज़फ्फरपुर के मुर्तज़ा कांप्लेक्स में भी कई दिनों से महिलाओं का प्रदर्शन चल रहा है. पटना के कई हिस्सों में भी नागरिकता कानून के विरोध में शाहीन बाग़ बन गया है. मंगल तालाब, फुलवारी में भी धरना चल रहा है. सब्ज़ी बाग़ पहले सी बाग़ है फिर भी यहां का धरना शाहीन बाग़ कहा जा रहा है. दस दिनों से यहां हो रहे प्रदर्शन में महिलाओं की भागीदारी देखकर पटना के पत्रकार भी हैरान हैं. कभी भी किसी भी समुदाय की महिलाएं इस तरह से पटना में आंदोलन में शामिल नहीं हुई हैं.
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