रविश कुमार, मैग्सेस अवार्ड प्राप्त जनपत्रकार
काश आप इस एक पैराग्राफीय संबोधन को पढ़ते और सोचते. भारत का एक ही ब्रांड है जो दुनिया में चमकता है – लोकतंत्र. अगर उसी में भारत फिसलता हुआ दिखे तो चिन्ता कीजिए. इन्हीं पत्रिकाओं के कवर पर देख रहा गया कि दुनिया में कितना नाम हो रहा है. अब क्या-क्या छप रहा है. ख़ारिज करने का यही आधार न हो कि कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. मोदी को चार सौ सीटें आएंगी. क्या ऐसे ही नतीजों के लिए चार सौ सीटें दी गईं थीं ?
छह साल बाद अर्थव्यवस्था फेल है. इस दौरान जिनकी ज़िंदगी बर्बाद हुई उसे सुधरने में बहुत वक्त लग जाएगा. आप प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री की भाषा देखिए. एक समुदाय के लिए अलग से विशेषण होता है. उनका संबोधन ख़ास तरह से किया जाने लगा है. पहले पांच साल लगाकर हमारी सोच को खंड-खंड कर दिया गया. अब भाषा भी बंट गई है. संवैधानिक पदों पर बैठे लोग मुसलमानों के लिए अलग से भाषा का इस्तेमाल करने लगे हैं. जब एक बार यह स्वीकृत होगा तो हिन्दुओं के लिए भी इसी भाषा का इस्तेमाल होगा क्योंकि हिन्दुओं से संवाद की भाषा भी उतनी ही ख़राब हो गई है.
मीडिया ने भारत के लोकतंत्र की छाती पर छुरा भोंका है. लोकतंत्र को सुंदर बनाने की कोई भी लड़ाई बिना मीडिया से लड़े शुरू ही नहीं हो सकती है. मोदी समर्थकों से ही अपील की जा सकती है कि आप बेशक आजीवन उनके समर्थन मे रहें लेकिन ऐसी भाषा और ऐसे बँटवारे का विरोध करते रहें. मुसलमानों से नफ़रत कहाँ फैलाई जा रही है ? हिन्दुओं में. एक सुंदर और उदार समाज में जब ज़हर फैलेगा तो ख़राबी कहाँ आएँगी ? ठंडे मन से सोचिएगा. आपके ही बच्चे ख़राब भाषा बोलेंगे. भाई और पिता बोलने भी लगे हैं. क्या ऐसा हो सकता है कि राजनीति में आप अलोकतांत्रित भाषा का इस्तेमाल करें और घर आते ही संस्कारी हो जाएं ? ऐसा नहीं हो सकता है.
बोलना शुरू कीजिए. नहीं बोल सकते तो जो बोल रहा है उसके साथ खड़े हो जाइये. आपको इस राजनीति ने ख़राब बनाया है. मैं यही कह रहा हूँ कि आप उसी राजनीति में रहिए लेकिन अच्छे बन जाइये. आपमें संभावनाएँ हैं. अच्छे दिन तो नहीं आएंगे, आप अच्छे दिन बन जाइये. किसी से वतनपरस्ती का सबूत मत माँगिए. न किसी को कपड़े से पहचानिए. सोचिए आपने प्रधानमंत्री को कितना प्यार किया. अपनों से झगड़ कर चाहा. उनके लिए सड़कों पर गए और उन्होंने आपको कैसी भाषा दी है ? कपड़े से पहचानने की भाषा !
यह सिर्फ़ मुसलमान के लिए नहीं है. आप कहीं जाएँ और आपको कपड़े से आँका जाने लगे तो अपमानित महसूस करेंगे कि नहीं. कपड़ों का वर्गीकरण सिर्फ़ हिन्दू और मुसलमान के बीच ही नहीं हो सकता. वो अमीर और गरीब के बीच भी हो सकता है. हमारे और आपके बीच हो सकता है. हमें तो यही सिखाया गया कि फ़लाँ हमारे रिश्तेदार हैं. पैसे और कपड़े में कम हैं तो क्या हुआ, ख़ून का रिश्ता नहीं बदल सकता. हिन्दू और मुसलमान का इस भारत से ख़ून का रिश्ता है, कपड़ों का नहीं है. याद कीजिए. आप कहीं गए हों और आपके कपड़े से आपके बारे में अंदाज़ा लगाया गया हो तो क्या आप उस वाक़ये को भूल पाएंगे ? याद करते ही कितनी पीड़ा होती है.
फ़िल्मों में ही ऐसे दृश्य देखकर हम सबके आंसू निकल जाते थे जब सेठ हमारे कपड़ों में झांकता था. उनमें लगे पैबंद की तरफ़ देखता था. कपड़ों से देखे जाने का दृश्य क्रूर होता था. अब उसी तरह हमारे प्रधानमंत्री आपके कपड़ों को देखने लगे हैं. मुख्यमंत्री योगी जी मुख्यमंत्री की भाषा नहीं बोल रहे. उनकी भाषा में पुलिस से पिटवाने-कूटवाने का भाव ख़तरनाक है. ऐसी भाषा, भाषा नहीं होती है अवैध हथियार बन जाती है. उसका मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल होगा तो हिन्दुओं के ख़िलाफ़ भी होगा.
क्या हिन्दू किसान, नौजवान या कोई भी इस तरह से आंदोलन नहीं करेगा ? करेगा तो उसे वही भाषा मिलेगी जो हिन्दुओं के नाम पर मुसलमानों के लिए दी जा रही है. समाज हमारा है. अगर यहाँ ख़राब भाषा का इस्तेमाल होगा तो उसका प्रसाद हर घर में बंटेगा. मिलावटी प्रसाद से लोग बीमार पड़ जाते हैं. सोचिएगा एक बार के लिए. मोदी जी को 400 नहीं 545 दीजिए लेकिन उनकी भाषा मत लीजिए. अपनी प्यार वाली भाषा भी 545 के साथ दे दीजिए. भारत बदल जाएगा. देखिए तो. कीचड़ में कमल सुंदरता का प्रतीक था. काँटे पर कमल को देखकर उन्हें अच्छा नहीं लगना चाहिए जो मोदी जी को 545 देना चाहते हैं.
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