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दुनिया भर में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमले

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दुनिया भर में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर हमले

हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ताहिमांशु कुमार, प्रसिद्ध गांधीवादी कार्यकर्ता

इंसानी सभ्यता पहले ताकतवर लोगों के मन मुताबिक चलती थी. इतिहास में जो लडाइयां हुईं वो बादशाहों राजाओं और ताकतवर लोगों ने लडीं. शासक द्वारा किसी का भी सर कलम कर देने उसकी अपनी पसंद से तय होता था. फिर इंसानी सभ्यता आगे बढी और हमने राजशाही को छोड़ दिया. दुनिया के बहुत सारे देशों ने लोकतंत्र को अपनाया. लोकतंत्र की पहली शर्त है सभी नागरिकों के बराबर अधिकार. और वो बराबर के अधिकार ही मानवाधिकार कहलाते हैं.

संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा अभी देशों द्वारा तैयार किया गया प्रस्ताव कहता है कि दुनिया के सभी लोग बराबर हैं उनकी हैसियत सम्मान और अधिकार बराबर हैं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस प्रस्ताव पर अमेरिका और भारत ने हस्ताक्षर नहीं किये हैं. आप जानते हैं कि लैटिन अमेरीकी देशों में अमेरिकी पूंजीपतियों और सरकार ने लूट और हत्याकांड करके तबाही मचाई हुई. अभी हाल ही में दी गार्जियन अखबार में एक रीपोर्ट छपी है.

पिछले साल यानी 2019 में कुल 300 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं. 103 हत्याएं मात्र कोलंबिया में हुई हैं. दुसरे नम्बर पर फिलिपीन्स है उसके बाद ब्राजील फिर होंडूरास और फिर मेक्सिको का नम्बर है. जिन मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं वे पर्यावरण की रक्षा करने वाले, अभिव्यक्ति की आजादी, LGBT समुदाय के लोगों के सामान अधिकार और आदिवासियों की जमीनों को बचाने के आन्दोलन में लगे हुए लोग थे.

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की कुल हत्याओं की दो तिहाई हत्याएं सिर्फ लैटिन अमेरिका में हुई हैं जहां मुकदमें और सजा से बच जाना एक आम बात है. कोलंबिया इस मामले में सब से आगे है यहाँ पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले प्रोजेक्ट्स का विरोध करने वाले स्थानीय समुदायों के नेताओं को मार डाला गया| यहाँ 119 आदिवासी नेताओं की हत्या हुई.

फिलिपीन्स इस मामले में दुसरे नम्बर पर है यहाँ 43 लोगों की हत्या करी गई इसके बाद होंडूरास ब्राजील फिर मेक्सिको की बारी आती है. संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी कोलम्बिया में इतनी बड़ी संख्या में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मारे जाने पर चिंता व्यक्त करी है.

फ्रंटलाइन डिफेंडर्स की रिपोर्ट के अनुसार समाज में मौजूद असमानता और दबंगई को चुनौती देने के कारण मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के ऊपर शारीरिक हमलों के अलावा उन्हें बदनाम करना उनके फोन और इंटरनेट की निगरानी की धमकियां उन पर झूठे मुकदमे लाद देना जैसे तरीकों से उन्हें प्रताड़ित किया गया.

85% मारे गए लोगों को व्यक्तिगत रूप से या उनके समुदाय को धमकी देकर मानवाधिकार के मुद्दे उठाने से रोका गया था. मारे गए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में 13% महिलाएं हैं. जितने मानवाधिकार कार्यकर्ता मारे गए हैं उनके 40% लोग आदिवासियों की जमीनों के अधिकारों और पर्यावरण को बचाने के लिए काम करने वाले हैं.

सभी देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शन या मार्च आयोजित करने वाले पुलिस की जातियों को लिखकर प्रकाशित करने वाले सेना और पुलिस के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोग मारे गये हैं. ऐसे लोगों पर भी हमले किए गए जिन्होंने सरकार द्वारा घायल किए गए या मार डाले गए लोगों की मदद करी.

अगर हम भारत की बात करें तो हालत को बेहतर नहीं दिखती है कर्नाटक के मैंगलोर में एनआरसी का विरोध करने वाले युवकों पर पुलिस ने गोलीबारी की, उसमें सड़क पर जाते हुए निर्दोष लोग भी घायल हुए तथा 2 लोग मारे गए. जब इन लोगों को इलाज के लिए अस्पताल लाया गया तो पुलिस ने अस्पताल पर ही हमला कर दिया. पुलिस ने आईसीयू तक को तोड़ डाला तथा अस्पताल के भीतर आंसू गैस के गोले फोड़ दिए जिससे अस्पताल में भर्ती बुजुर्ग मरीजों की हालत और भी खराब हो गई.

इसी तरह एनआरसी का विरोध करने के कारण लखनऊ की महिला सामाजिक कार्यकर्ता सदफ जफर को बंदूक के बट से मारा गया उनका चश्मा तोड़ डाला गया और उनके बाल उखाड़ दिए गए. भारत में इस वक्त भी अनेकों मानव अधिकार कार्यकर्ता जेलों में है. जो लोग भी समाज को अच्छा बनाने के लिए न्याय और बराबरी की बात करते हैं उन पर यह समाज हमला कर देता है.

बस्तर में ही पर्यावरण बचाने की कोशिश करने वाली आदिवासी महिला स्कूल टीचर सोनी सोरी को पुलिस थाने में ले जाकर बिजली के झटके दिए गये तथा उनके गुप्तांगों में पुलिस ने पत्थर भर दिए थे तथा ऐसा करने वाले पुलिस अधिकारी को राष्ट्रपति ने वीरता पुरस्कार दिया था.

इसके अलावा बस्तर के पहले आदिवासी पत्रकार लिंगा कोड़ोपी ने जब पुलिस दमन के खिलाफ आवाज उठाई तो पुलिस के एसपी के घर में ले जाकर उनकी गुदा में मिर्च से डूबा हुआ डंडा डाल दिया गया और उन्हें ढाई साल के लिए फ़र्जी मामले में जेल में रखा गया. आज भी सुधा भारद्वाज तथा गरीबों के मुकदमें मुफ्त में लड़ने वाले अन्य कई वकीलों को जेल में डाला हुआ है.

देश के जंगल, पहाड़, समुन्द्र तट और खदानों पर पूंजीपतियों के कब्जे को रोकने वाले आदिवासी और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर सरकार और पुलिस वैसे ही हमले कर रही है जैसे लैटिन अमेरिकी देशों और अफ्रीका में कर रही है. इस हालत पर हमें चिंता करनी चाहिए और इसे रोकने में अपनी ताकत लगानी चाहिए. इस बारे में खलील जिब्रान की एक मशहूर कहानी है.

खलील जिब्रान की एक कहानी में उन्होंने लिखा है कि मैंने जंगल में रहने वाले एक फ़कीर से पूछा कि आप इस बीमार मानवता का इलाज क्यों नहीं करते ? तो उस फ़कीर ने कहा कि तुम्हारी यह मानव सभ्यता उस बीमार की तरह है जो चादर ओढ़ कर दर्द से कराहने का अभिनय तो करता है. पर जब कोई आकर इसका इलाज करने के लिये इसकी नब्ज देखता है तो यह चादर के नीचे से दूसरा हाथ निकाल कर अपना इलाज करने वाले की गर्दन मरोड़ कर अपने वैद्य को मार डालता है और फिर से चादर ओढ़ कर कराहने का अभिनय करने लगता है.

धार्मिक, जातीय घृणा, रंगभेद और नस्लभेद से बीमार इस मानवता का इलाज करने की कोशिश करने वालों को पहले तो हम मार डालते हैं . उनके मरने के बाद हम उन्हें पूजने का नाटक करने लगते हैं.

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