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निर्भया के अपराधियों को फांसी लगाकर हम क्या खो रहे हैं

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निर्भया के अपराधियों को फांसी लगाकर हम क्या खो रहे हैं

कुछ दिन बाद निर्भया के अपराधियों को फांसी दी जानी है. निर्भया के साथ जो हुआ वह इतना घृणित और बर्बर है कि यक़ीनन फांसी की सजा भी उसके लिए कम है. इसमें कहीं भी दो बातों या दो मतों की जगह नहीं हैं. आदमी के इतिहास में जघन्य अपराधों की लंबी पंक्ति है. हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम से किया गया हमला, उन्हीं जघन्य अपराधों में से एक है. जिस जहाज से हिरोशिमा पर बम फेंका गया था, उसके पायलट का नाम रोबर्ट लुइस था. लुइस को जैसा आदेश मिला वह कर रहा था, अमेरिकी हितों के लिए एक पूरा शहर हड्डियों के मलवे में भी ढेर करना पड़े तो वह भी उसके लिए फक्र की बात थी. बम फेंकने के अगले ही पल, नीचे का पूरा आसमान सफेद बादलों से भर गया. ऊपर बादल, नीचे लाशें. उस एक बम से एक पूरा शहर खत्म हो गया. लाशों की संख्या लाखों में थी. लुइस उसका अपराधी था, अमेरिका भी, प्रत्येक अमेरिकी भी, लेकिन उस समय घृणा का ऐसा वातावरण था कि जापान की प्रत्येक सिसकी, अमेरिका के लिए उत्साह थी.

ठीक कुछ दिनों बाद, पीड़ितों की तस्वीरें अमेरिका पहुंचने लगीं, अमेरिकी नागरिकों के एक हिस्से को अपने किए पर पछतावा होने लगा. कुछ संगठन बने, कुछ एनजीओ, जो परमाणु हमले के सर्वाइवर्स की प्लास्टिक सर्जरी, उनके इलाज के लिए काम करना चाहते थे, ऐसा ही एक एनजीओ बना, जिसने जापान से कुछ सर्वाइवर्स को, साल 1955 में न्यूयॉर्क बुलाया, उसी कार्यक्रम में उस पायलट को भी बुलाया गया जिसने जापान पर बम गिराया था. ये पहला मौका था जब सर्वाइवर्स की मुलाकात उस शख्स से होनी थी जो पूरे जापान का अपराधी था, जिसकी वजह से मासूम पीड़ितों के पूरे बदन पर झुलसी हुई खाल लटकी हुई थी.

मीटिंग हुई, भाषण हुए, अमेरिकी अपनी गलती पर रिग्रेट करने वाले शब्द तक नहीं ढूंढ पा रहे थे. रोबर्ट लुइस को भी मंच पर बुलाया गया. मंच पर आते ही लुइस फूट पड़ा, आंखों में पश्चताप के आंसू थे, वह माफी भी नहीं मांग सकता था, उसका अपराध इतना बड़ा था कि उसके लिए कोई सजा भी नहीं, उसके लिए कोई माफी भी नहीं.

लुइस, उस मंच पर अपनी मनोस्थिति के बारे में बताता है- वह अपने जहाज से हजारों मीटर नीचे देख रहा था, नीचे से गोभी के सफेद फूल जैसे बादल उमड़ आ रहे थे, जिसे देखने के बाद ही समझ आ गया था कि उससे क्या अपराध हो चुका है, लुईस कहता है कि जहाज से नीचे देखने के बाद मन में एक ही बात आई ” Oh, My god, what we have done” मतलब अगले ही पल उसे अपनी गलती का अहसास हो चुका था – है भगवान ये हमने क्या कर दिया?” इस पूरे सीन को हिरोशिमा- नागासाकी पर बनी डॉक्यूमेंट्री “व्हाइट लाइट-ब्लैक रैन” में देखा जा सकता है.

किसी अपराधी को दी जाने वाली सजाओं का एक बड़ा उद्देश्य अपराधी को अपराधबोध कराना होता है, जोकि पश्चाताप से आता है. मृत्युदंड उसी अवसर को छीन लेता है, अपराधियों में ‘भय’ सभ्य समाज के संचालन के लिए आवश्यक है लेकिन संवेदनशील समाज के लिए नहीं.

मृत्युदंड न केवल पछतावें के अवसरों को कुंद कर देता है बल्कि मृत्यु के बाद ‘न्यायिक कमियों’ को दुरस्त करने अवसर भी नहीं रहता. कई बार अपराधी को अपनी पृष्ठभूमियों के कारण पर्याप्त कानूनी मदद नहीं मिल पाती, कई बार गलत आंकड़ों-सबूतों के आधार पर भी किसी को अपराधी बना दिया जाता है. ऐसे में मृत्युदंड उस भूल-चूक, सुधार, पछतावे के हर स्पेस को खत्म कर देता है. निर्भया मामले में अपराध की घृणा और जघन्यता के हिसाब से मृत्युदंड भी पर्याप्त नहीं है. लेकिन जीवन का अधिकार नहीं ही छीना जाना चाहिए. क्या पता जिस तरह लुइस पछतावें की तपस में जल रहा था, अपने जीवन के अंतिम वर्ष में ही सही, निर्भया के अपराधी भी ऐसा ही महसूस करें.

  • श्याम मीरा सिंह

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