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मोदी-शाह चाहता है कि इस देश में नागरिक नहीं, सिर्फ उसके वोटर रहें

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मोदी शाह एनपीआरए एनसीआर और सीएए के जरिये यह सुनिश्चित करना चाह रहा है कि इस देश में बतौर नागरिक वही रहे जो भाजपा का वोटर हो ताकि वगैर किसी विघ्न-बाधा के वह देश में घोर मानवद्रोही शास्त्र मनुस्मृति को लागू कर देश में ब्राह्मणवादी व्यवस्था को लागू कर सके, जिसमें शुद्र, दलित, आदिवासी, महिलाओं को गुलाम बनाकर रखा जा सके. जिसके न केवल मताधिकार को ही बल्कि उसके मानवाधिकार को भी जूतों तले रौंद दें. प्रस्तुत आलेख बीबीसी हिन्दी के वेबसाईट पर प्रकाशित कुमार प्रशांत (गांधी शांति प्रतिष्ठान के प्रमुख), से साभार है.

मोदी-शाह चाहता है कि इस देश में नागरिक नहीं, सिर्फ उसके वोटर रहें

आज सारा देश सड़कों पर है. कितना अजीब और शर्मनाक है यह मंज़र. जिस नागरिक ने देश को ग़ुलामी से मुक्त कराया, जिसने अपने देश का अपना लोकतंत्र बनाया और जिसने ऐसी कितनी ही सरकारों को बनाया-मिटाया, आज उसी नागरिक से उसकी ही बनाई सरकार उसकी वैधता पूछ रही है. उसे अवैध घोषित करने का कानून बनाकर इतरा रही है.

कोई कहे कि नौकरों ने (प्रधानसेवक) मालिक तय करने का अधिकार अपने हाथों में ले लिया है, तो ग़लत नहीं होगा. यह लोकतंत्र के लिए सबसे नाज़ुक वक़्त है. और ऐसा नाज़ुक वक़्त तब आता है जब सरकार संविधान से मुंह फेर लेती है; विधायिका विधान से नहीं, संख्याबल से मनमाना करने लगती है; जब नौकरशाही जी-हुजूरों की फौज में बदल जाती है और न्यायपालिका न्याय का पालन करने और करवाने के अलावा दूसरा सब कुछ करने लगती है. भारत ऐसे ही चौराहे पर खड़ा है.

हाल यह है कि सरकार ने देश को दल में बदल लिया है और लोकसभा में मिले बहुमत को मनमाना करने का लाइसेंस बना लिया गया है. बहुमत को अंतिम सत्य मानने वाली सरकारों को सिर्फ अपनी आवाज़ ही सुनाई देती है; अपना चेहरा ही दिखाई देता है. वह भूल गई है कि नागरिक उससे नहीं हैं, वह नागरिकों से है. नागरिक उसे चाहे जब तब बदल सकते हैं; वह चाहे तो भी नागरिकों को बदल नहीं सकती है. सरकारों को यह याद कराना ज़रूरी हो गया है कि वह नागरिक को खारिज नहीं कर सकती है; नागरिक उसे आज ही और अभी ही खारिज कर सकते हैं.

नागरिकता की एक परिकल्पना और उसका आधार हमारे संविधान ने हमें दिया कि जो भारत में जन्मा है, वह इस देश का नागरिक है. फिर यह भी संविधान ने ही कहा है कि कोई जन्मा कहीं भी हो, यदि वह इस देश की नागरिकता का आवेदन करता है और संविधानसम्मत किसी भी व्यवस्था का उल्लंघन नहीं करता है तो सरकार उसे नागरिकता देने को बाध्य है. ऐसा करते समय सरकार न लिंग का भेद कर सकती है, न धर्म या जाति का, न रंग या रेस या देश का.

नागरिकता अनुल्लंघनीय है, नागरिक स्वंयभू है. उस नागरिक से बना देश या समाज किसी भी व्यक्ति, पार्टी, संगठन या गठबंधन से बड़ा होता है – बहुत बड़ा ! इसलिए सरकार को याद कराना ज़रूरी हो गया है कि उसने नागरिक प्रमाणित करने का जो अधिकार खुद ही लपक लिया है, वह लोकतंत्र, संविधान, नागरिक नैतिकता और सामाजिक जिम्मेवारी के खिलाफ जाता है.

हम इतिहास में उतरें तो, 1925 से राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की स्थापना के बाद से, एक सीधी और साफ धारा मिलती है, जो हिंदुत्व को अपना दर्शन बनाती है और दावा करती है कि वह इस देश को हिंदू राष्ट्र बनाकर रहेगी. विनायक दामोदर सावरकर, केशव बलिराम हेडगेवार, माधव सदाशिव गोलवलकर आदि से प्रेरित और संगठित-संचालित हिंदुत्व के इस संगठन को जन्म से लगातार ही महात्मा गांधी से सबसे बड़ी चुनौती मिलती रही.

महात्मा गांधी भारत की आज़ादी की लड़ाई के सबसे बड़े सेनापति भर नहीं थे, बल्कि भारतीय समाज के नए दार्शनिक भी थे. वे खुद को हिंदू कहते थे – सनातनी हिंदू ! लेकिन हिंदुत्व के संघ-परिवारी दर्शन के किसी तत्व को स्वीकार नहीं करते थे.

गांधी को सीधी चुनौती देकर, साथ लेने की कोशिशें करके और उनके साथ छल की सारी कोशिशों के बाद भी जब गांधी हाथ नहीं आए, और भारतीय जनमानस पर उनके बढ़ते असर और पकड़ की कोई काट ये खोज नहीं पाए, तब जाकर यह तय किया गया कि इन्हें रास्ते से हटाया जाए. यही वह फैसला था जो पांच विफल कोशिशों के बाद, 30 जनवरी, 1948 को सफल हुआ और गांधी की हत्या हुई.

हत्या के पीछे योजना यह थी कि हत्या से देश में ऐसी अफरा-तफरी मचेगी, मचाई जाएगी कि जिसकी आड़ में हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता पर कब्ज़ा कर लेंगी. हिंदुत्व की इनकी अवधारणा सत्ता की बैसाखी के बगैर चल ही नहीं पाती है इसलिए सत्ता की खोज इनकी सनातनी खोज है.

हत्या तो कर दी गई लेकिन देश में वैसी अफरा-तफरी नहीं मची कि जिसकी आड़ लेकर ये सत्ता तक पहुंचें. जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल ने देश को वैसी अफरा-तफरी से बचा भी लिया और निकाल भी लिया. इसलिए नेहरू इनके निशाने पर थे और हैं. तब से आज तक हिंदुत्व का यह दर्शन समाज में न वैसी जगह बना सका, जिसकी अपेक्षा से ये काम करते रहे और न सत्ता पर इनकी कभी ऐसी पकड़ बन सकी कि ये अपने एजेंडे का भारत बना सकें.

अटल बिहारी वाजपेयी के पांच साल के प्रधानमंत्रित्व में यह हो सकता था पर अटलजी ‘छोटे-नेहरू’ का चोला उतारने को तैयार नहीं थे और संघी हिंदुत्व के खतरों से बचते थे. इसलिए अटल-दौर संघी हिंदुत्व की ताकत का नहीं, ज़मीन तैयार करने का दौर बना और उसकी सबसे बड़ी प्रयोगशाला नरेंद्र मोदी के गुजरात में खोली गई. सत्ता की मदद से हिंदुत्व की जड़ जमाने का वह प्रयोग संघ और मोदी, दोनों के लिए खासा सफल रहा. दोनों की आंखें खुलीं. फिर कांग्रेस के चौतरफ़ा निकम्मेपन की वजह से दिल्ली नरेंद्र मोदी के हाथ आई.

तब से आज तक दिल्ली से हिंदुत्व का वही एजेंडा चलाया जा रहा है जो 1925 से अधूरा पड़ा था. यह गांधी को खारिज कर, भारत को अ-भारत बनाने का एजेंडा है. अब ये जान चुके हैं कि लोकतांत्रिक राजनीति में सत्ता का कोई भरोसा नहीं है. इसलिए ये अपना वह एजेंडा पूरा करने में तेजी से जुट गए हैं, जिससे लोकतांत्रिक उलट-फेर की संभावनाएं खत्म हों, और सत्ता अपने हाथ में स्थिर रहे. नोटबंदी से लेकर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तक का सारा खेल नागरिक की ताकत को तोड़-मरोड़ देने, संविधान को अप्रभावी बना देने तथा संवैधानिक संस्थानों को सरकार का खोखला खिलौना बनाने के अलावा कुछ दूसरा नहीं है.

भारत के सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस की त्रासदी यह है कि उसे सत्ता-रोग है. सत्ता गई तो वह सन्निपात में चली जाती है. इंदिरा गांधी उसकी अंतिम नेता थीं कि जिनके पास राजनीतिक नेतृत्व का माद्दा था. आज कांग्रेस अपनी ही छाया से लड़ती, लड़खड़ाती ऐसी पार्टी मात्र है जिसका राजनीतिक एजेंडा मोदी तय करते हैं.

विपक्ष के दूसरे सारे ही दल सत्ता की बंदरबांट में से अपना हिस्सा लपक लेने से ज़्यादा की न तो हैसियत रखते हैं, न सपने पालते हैं. ऐसे में भारतीय लोकतंत्र का विपक्ष कहां है ? वह संसद में नहीं, सड़कों पर है. आज युवा और नागरिक ही भारतीय लोकतंत्र के विपक्ष हैं. यह आशा की भी और आह्लाद की भी बात है कि लोकतंत्र लोक के हाथ में आ रहा है. हमारे संविधान का पहला अध्याय यही कहता है. सड़कों पर उतरे लोग संविधान की इसी बात को बार-बार दुहरा रहे हैं. सड़कों पर उतरे युवाओं-छात्रों-नागरिकों में सभी जातियों-धर्मों के लोग हैं.

सीएबी या सीएए किसी भी तरह मुसलमानों का सवाल नहीं है. वे निशाने पर सबसे पहले आए हैं क्योंकि दूसरे सभी असहमतों को निशाने पर लेने की भूमिका इससे ही बनती है.

लाठी-गोली-आंसू गैस की मार के बीच भी सड़कों से आवाज़ यही उठ रही है कि हम पूरे हिंदुस्तान को और इस हिंदुस्तान के हर नागरिक को सम्मान और अधिकार के साथ भारत का नागरिक मानते हैं. कोई भी सरकार हमारी या उनकी या किसी की नागरिकता का निर्धारण करे, यह हमें मंज़ूर नहीं है इसलिए कि सभी सरकारें जिस संविधान की अस्थाई रचना हैं, जनता उस संविधान की रचयिता भी है और स्थाई प्रहरी भी.

सरकारें स्वार्थी, भ्रष्ट और संकीर्ण मानसिकता वाली हो सकती हैं. सांप्रदायिक भी हो सकती हैं और जातिवादी भी. सरकारें मौकापरस्त भी होती हैं और रंग भी बदलती हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है. ये संविधान से बनती तो हैं लेकिन संविधान का सम्मान नहीं करती हैं; ये वोट से बनती हैं लेकिन वोटर का माखौल उड़ाती हैं. ये झूठ और मक्कारी को हथियार बनाती है और इतिहास को तोड़-मरोड़कर अपना मतलब साधना चाहती हैं.

आज यह हमारी नागरिकता से खेलना चाह रही है, कल हमसे खेलेगी. यह चाहती है कि इस देश में नागरिक नहीं, सिर्फ उसके वोटर रहें. सत्ता के खेल में यह समाज को खोखला बना देना चाहती है. इसलिए लड़ाई सड़कों पर है. जब संसद गूंगी और व्यवस्था अंधी हो जाती है तब सड़कें लड़ाई का मैदान बन जाती हैं. जो समाज अपने अधिकारों के लिए लड़ता नहीं है, वह कायर भी होता है और जल्दी ही बिखर भी जाता है. लेकिन उसे इस बात की भी गांठ बांध लेनी पड़ेगी कि हिंसा हमेशा आत्मघाती होती है.

निजी हो या सार्वजनिक, किसी भी संपत्ति का विनाश दरअसल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है. जब लड़ाई व्यवस्था से हो तब व्यक्ति गौण हो जाता है. सरकार को यह समझाना है या समझने के लिए मजबूर करना है कि वह नागरिकता के निर्धारण का अपना क़दम वापस ले ले. यह उसका काम है ही नहीं.

अगर देश में घुसपैठियों का संकट है तो यह सरकार की और सिर्फ़ सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह अपनी व्यवस्था को चुस्त बनाए. घुसपैठिए बिलों से देश में दाखिल नहीं होते हैं. वे व्यवस्था की कमज़ोरी में सेंध लगाते हैं. वे जानते हैं कि सेंध वहीं लग सकती है, जहां दीवार कमज़ोर होती है. इसलिए आप सरकार बनें, षड्यंत्रकारी नहीं; आप अपनी कमज़ोरी दूर करें, नागरिकों को कमज़ोर न करें.

आज से कुछ ही दिन पहले की तो बात है जब वर्दीधारी पुलिस राजधानी दिल्ली की सड़कों पर प्रदर्शनकारी बनकर उतरी थी. सरकार के ख़िलाफ़, अपने अधिकारियों के ख़िलाफ़ उसने नारे लगाए थे. सड़कें जाम कर दी थीं. तब वे वर्दीधारी वकीलों का मुक़ाबला करने में जनता का समर्थन चाहते थे. तब किसी ने उन पर अश्रुगैस के गोले दागे क्या ? लाठियां मारीं क्या ? पानी की तलवारें चलाईं ? नागरिकों ने एक स्वर से कहा था कि ये अपनी बात कहने सड़कों पर तब उतरे हैं जब दूसरे किसी मंच पर इनकी सुनवाई नहीं हो रही है.

पुलिस को भी ऐसा ही समझना चाहिए. पुलिस को नागरिकों से जैसा समर्थन मिला था, क्या नागरिकों को पुलिस से वैसा ही समर्थन नहीं मिलना चाहिए ? आज पुलिस नागरिकों से ऐसे पेश आ रही है मानो दुश्मनों से पेश आ रही है.

पुलिस भी समझे, सरकारी अधिकारी भी समझें, राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता भी समझें, हमारे और उनके मां-बाप भी समझें कि यह लड़ाई नागरिकता को बचाने की लड़ाई है इसलिए हिंसा नहीं, हिम्मत; गालियां नहीं, वैचारिक नारे; पत्थरबाज़ी नहीं, फौलादी धरना; गोडसे नहीं, गांधी; भागो नहीं, बदलो; डरो नहीं, लड़ो; हारो नहीं, जीतो; और इसलिए भीड़ का भय नहीं, शांति की शक्ति और संकल्प का बल ही नागरिकों की सबसे बड़ी ताकत है. वह यह ताकत और संयम न खोए, तभी यह सरकार समझेगी. सरकार समझे और अपने क़दम वापस ले तो हमारा लोकतंत्र अधिक मज़बूत बनकर उभरेगा.

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