वैसे तो हमारे देश के पब्लिक डोमेन में एक तरफ गरीबी, बेरोजगारी, अपराध, शोषण, अन्याय के मुद्दे तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार, अत्याचार, दुराचार, कदाचार, अनाचार, व्याभिचार, बलात्कार, तिरस्कार जैसे अनेकानेक मसले एक शताब्दी से चर्चायमान रहे हैं परंतु ये समस्याएं दुनिया के और कई हिस्सों में रही हैं, जिन पर भारत सहित दुनिया के बाकी देशों की सरकारों और इनके समाज व सिस्टम ने अपने – अपने प्रयास से कम या बेशी काबू भी पाया है. मगर भारत के साथ एक ऐसी सामाजिक – आर्थिक विसंगति पुरजोर तरीके से चस्पा है, जिसकी मिसाल दुनिया के किसी हिस्से में शायद ही मिले. यह मसला है देश में विराजमान गैर – बराबरी और असमानता का. भारत में गैर – बराबरी और असमानता का मंजर किसी वामपंथी विचारधारा की जुमलेबाजी का नमूना नहीं है, बल्कि यह तो भारत की उस सामाजिक – आर्थिक वस्तुस्थिति को इंगित करता है, जहां समाज के निचले पायदान पर स्थित करीब 8 से 9 फीसद आबादी की आमदनी. संपत्ति, उपभोग बेहद मामूली है. दूसरी तरफ, 1 से 2 फीसद उच्चस्थ आबादी की सामाजिक – आर्थिक मानकों पर हासिल प्रगति अनेकानेक प्रगतिशील करारोपण के बावजूद निम्न वर्ग की तुलना में इन्हें अनवरत तीव्र बनाए हुए है. नतीजतन, भारत में अमीर जहां कई गुना और अमीर बन रहा है, वहीं गरीब जहां है, वहीं है या उसकी प्रगति दर मामूली है.
समाज में असमानता
भारत में तमाम मानकों पर विराजमान असमानता वृहद स्तर पर चाहे वह शहरी व ग्रामीण आबादी के बीच झलकता हो, खेती व उद्योग के बीच दिखता हो, संगठित व असंगठित वर्ग के कर्मचारियों के बीच हो, व्हाइट कॉलर व ब्लू कॉलर श्रमिकों के बीच हो, ऊंची जाति व वंचित जमात के बीच हो, खानदानी अवसर प्राप्त व आम संघर्षी लोगों के बीच हो, हिंदी व अन्य भारतीय भाषा माध्यम व अंग्रेजी माध्यम से पढ़े लोगों के बीच हो, नेता – कार्यकर्ता के बीच का हो, बड़े कॉरपोरेट उद्योग व छोटे कुटीर उद्योग के उद्यमी व श्रमिक के बीच का हो, महानगरों व विदेशों में काम करने वाले कामगार और छोटे शहरों व कस्बों में काम करने वाले. कामगारों के बीच हो, यह दरार एक स्थायी शक्ल ले चुका है.
भारत के पब्लिक डोमेन में इस पर बड़ी – बड़ी बातें जरूर हो जाती हैं परंतु इन असमानताओं को स्थायी रूप से पोषित करने वाली हमारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व प्रशासनिक व्यवस्थाएं केवल निहित स्वार्थी व अवसरवादी तत्वों को पोषित कर रही हैं. जहां हमें यह दिखता है जिसकी लाठी उसकी भैंस चलती है, जहां जुगाड़ और भाई भतीजावाद चलता है. जहां सामंती ठाट – बाट और अर्दली सेवादारों का आलम दिखता है. जहां मठाधीश और चेलों की दुनिया है. जहां की सार्वजनिक संस्थाओं की कार्यसंस्कृति पैरवी, चमचागिरी, सिफारिश और जुगाड़ पर रची – बसी हुई है, जहां जातीय व गुटीय आग्रह व दुराग्रह चरम पर हैं. जहां सार्वजनिक कार्यालयों की संस्कृति निरीह, निर्धन और निरक्षर जनता के प्रति तनिक भी सेवा भाव और संवदेनशील नहीं दिखती, ऐसे में देश में विराजमान असमानता और वर्गीय खाई निरंतर गहरी, चौडी और स्थायी होती जा रही है.
कहना न होगा भारतीय संविधान की प्रस्तावना के जिस वाक्य का संस्थागत, नीतिगत व कार्यगत तरीके से सबसे ज्यादा उल्लंघन हुआ है, वह है अवसर की समानता. अभी भारत के अलग – अलग वर्ग कामगारों के वेतन में विराजमान असमानता का जो सूचकांक जारी हुआ है, उससे भारत को अच्छे से समझने वालों के लिए हैरानी नहीं होगी परंतु वे लोग जिन्हें भारत की सामाजिक प्रगति को लेकर खुशफहमी है, उन्हें बड़ी हैरानी होगी यह. ‘वर्ल्ड इनइक्वलिटी इंडेक्स’ बताता है कि भारत में 1 फीसद कामगारों की आबादी ऐसी है, जिसकी आमदनी महीने में सिर्फ 1656 रुपये यानी करीब केवल 55 रुपये प्रतिदिन है. देश में 1 से 2 फीसद कामगार आबादी महज 2655 रुपये यानी 8 रुपये प्रतिदिन है. 2 से 3 फीसद कामगार आबादी की आमदनी महज 3399 रुपये यानी करीब 11 रुपये प्रति दिन.
3 से 4 फीसद कामगार आबादी की आमदनी करीब 400 रुपये मासिक यानी 13 रुपये प्रति दिन. 4 से 5 फीसद कामगार की आमदनी 470 यानी करीब 16 रुपये प्रति दिन है. 5 से 6 फीसद आबादी की आमदनी 5661 रुपये यानी करीब 185 रुपये प्रतिदिन है. देश में 23 रुपये प्रतिदिन की कमाई करने वाले केवल 3 से 4 फीसद कामगार हैं जबकि 28 रुपये प्रतिदिन की कमाई केवल 2 से 3 फीसद श्रमिक कर पाते हैं. गौरतलब है कि भारत के अधिकतर राज्य सरकारों द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी 11 से 14 हजार के बीच है, जो देश के केवल 1 से 2 फीसद कामगारों को सुनिश्चित हो पाती है जबकि थोड़ी बेहतर मजदूरी जो पढ़े – लिखे कुशल श्रमिक जो सरकार या कॉरपोरेट में नियुक्त हैं, उनकी संख्या महज 5 से 1 फीसद है, जिनकी औसत मासिक आमदनी 2778 रुपये है.
यह कहा जाता है कि भारत तेजी से बढ़ते मध्य वर्ग का देश बन रहा है. इसके तहत एक बेहतर औसत वेतन 63 रुपये निर्धारित किया गया है, परंतु यह रकम तो भारत के केवल 1 से 5 फीसद कामगारों को मयस्सर है. यदि हम दुनिया में घोर असमानता के मुल्क भारत में बेहतर सैलरी व पर्क वाले कामगारों की बात करें तो उसके तहत करीब दो लाख महीना पाने वाली कामगार आबादी देश के कुल कामगारों की महज 1 से 5 फीसद है, जबकि हाई सैलरी यानी करीब 4 लाख माहवार पाने वालों की कामगार आबादी देंखे तो वह महज 0 . 1 से 0 . 5 फीसद है. लब्बोलुआब ये है कि देश की करीब आधी श्रमशक्ति 5 प्रति माह, 8 फीसद श्रमशक्ति 8 प्रति माह तथा 9 फीसद कामगार महज 12 रुपये माहवारी पर काम कर रहे हैं.
जाहिर है उपरोक्त परिस्थितियां भारत में असमानता को एक ऐसा संस्थागत व संरचनात्मक स्वरूप प्रदान कर रहीं है, जिससे उबर पाना भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के लिए असंभव है और यह असमानता केवल आमदनी के तौर पर नहीं बल्कि इससे प्रभावित जीवन स्तर, सामाजिक स्टेटस, शिक्षा स्वास्थ्य व सामाजिक सुरक्षा तथा उनकी प्रगति दर सब जगह प्रमुखता से विराजमान हैं. जाहिर है इन स्थितियों से देश में शिक्षा नीति, श्रम नीति, रोजगार नीति, प्रशिक्षण नीति के सामने एक सामने एक बड़ा प्रश्नचिह्न है.
- मनोहर मनोज, ‘अ क्रुसेड एगेस्ट करप्शन’ के लेखक
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