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लिबरल होने के मायने

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लिबरल होने के मायने

गुरूचरण सिंह
लिबरल यानि समझदार लोग, परिवार के लिए ही जीने मरने वाले लोग, जो अपने काम से काम रखते हैं और मौका देख कर ही बात करते हैं !

गुटनिरपेक्षता/तटस्थता की तरह उदार मानसिकता वाला आदमी भी अब लुप्त हो जाने वाली प्रजाति की तरह क्या अजायब घर की शोभा बनने जा रहा है ? देश ही नहीं पूरे विश्व के राजनीतिक रंगमंच पर तो उसकी कोई भूमिका तो निश्चय ही दिखाई नहीं देती. इतिहास की किताबों में ही दर्ज है वह अब तो. अपनी नियति इन दोनों ने खुद ही लिखी थी शायद. दिनकर जी तो पहले ही चेतावनी दे चुके थे :

समर शेष है,
नहीं पाप का भागी केवल व्याध
जो तटस्थ हैं,
समय लिखेगा उनका भी अपराध !

इन शब्दों को अपनी निष्क्रियता की अगर ढाल बना लिया जाएगा, संघ-भाजपा की तरह अगर भाव की जमीन पर केवल शब्दों का कलेवर ही भगवे ध्वज की भांति फहराया जाएगा तो थोथी मर्यादाओं से बंधे लोगों का यही परिणाम तो होगा. सड़क पर चीरहरण होता रहेगा और आप एक न एक बहाना बना कर खामोशी से निकल लेंगे वहां से. दबंगों का हौसला ऐसे ही तो बढ़ा करता है !

कल ऐसा ही एक तर्क देखने को मिला था ‘ऐसे ही किसी लिबरल’ की वाल पर. उनका कहना था कि आज देश जो भी भुगत रहा है उसमें मुसलमानों की जिम्मेदारी भी बहुत ज्यादा है (क्योंकि) हिंदु कट्टरता तो अब सामाजिक रूप से स्वीकृत हो गई है. लिबरल लोग देखते-देखते अल्प में भी अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं और इसकी जिम्मेदारी सिर्फ कट्टर हिंदुओं की ही नहीं है, कट्टर मुसलमानों की भी है.

दरअसल राक्षस पत्नी से भीम के पौत्र बर्बरीक की कथा के जरिए इस सवाल के साथ कही गई थी यह बात – क्या हमेशा कमज़ोर ही सही होते हैं ? बचपन कुरुक्षेत्र में बीता है, संघ के स्कूल में ही पढ़ा हूं और बर्बरीक के कटे सिर को युद्ध का दृश्य दिखाने के लिए बनाए गए स्तंभ सहित महाभारत में वर्णित युद्ध के सभी स्थलों से भी परिचित हूं, इसलिए पूरी पोस्ट पढ़ गया. कर्ण की तरह छलिया कृष्ण ने इसके साथ भी छल किया था, जो मां के दिए संस्कारों के अनुसार कमजोर पक्ष का साथ देने के लिए आया था. उसकी वीरता परख लेने के बाद कृष्ण ने ब्राह्मण वेश में कर्ण के कवच कुंडल की तरह उसका शीश ही मांग लिया था !

बेशक सही होते हैं बहुसंख्यक कमज़ोर क्योंकि अक्सर वे ही तो दबंगई का शिकार होते आए हैं ! सहनशक्ति जब जवाब देने लगती है तो यही लोग, जिनके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता, वही नए समाज की बुनियाद बनते हैं, क्रांति का सूत्रपात करते हैं ! इनमें न कोई हिंदू होता है, और न ही कोई मुस्लिम और न ही किसी और धार्मिक पहचान का कोई आदमी ही ! वे तो बस कमज़ोर, गरीब और पहचानहीन लोग होते हैं ! पहचान वाले तो ताकतवर, अमीर और जालिम लोग हुआ करते हैं, जिनके लिए कहा गया है ‘हिंदु कट्टरता तो अब सामाजिक रूप से भी स्वीकृत हो चुकी है !’ यानि फिर एक खास पहचान के चलते मुट्ठी भर लोगों के साथ खड़े होने का अहसास.

गलतियां बेशक मुस्लिम समाज से भी हुई हैं क्योंकि नेतृत्व वहां भी संघ जैसे अगिया बेतालों के हाथ में चला गया है. आजादी से पहले वाली संघी-मुसंघी धुरी आज भी यही धुरी बेशक अपनी ही चाल चले जा रही है. पढ़े-लिखे लोगों की उपेक्षा दोनों ही ओर है वरना कोई वजह नहीं दिखाई देती कि आजादी के समय जिस मुस्लिम समाज में पढ़े-लिखे लोगों की फीसदी आबादी हिंदुओं से कहीं ज्यादा धी, 74 साल बाद उसी समाज की हालत दलितों से भी बदतर कैसे हो गई ?

पूरे देश में सीएए और एनआरसी को लेकर प्रदर्शन जारी हैं लेकिन तमाम धरने प्रदर्शनों के बीच ‘लिबरल’ का स्टिकर चिपकाए रखने वाला विपक्ष है कहां ? दमन के शिकार यूपी में तो इन्हीं सियासी पार्टियों ने प्रदर्शनकारियों को उनके ही हाल पर छोड़ दिया है. एक रहस्यमय खामोशी ओढ ली है इन नेताओं ने, जिसके चलते जामिया प्रदर्शन की तरह सत्ता के संरक्षण में पुलिस गुंडे की भूमिका में आ गई है और गुंडे पुलिस के साथ चल रहे हैं. सड़कों पर पली बढ़ी होने का दावा करने वाली सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो बंगले से ही बयानवीर की भूमिका में दिख रहे हैं. अनेक अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हो रही सरगर्मियों के साथ अंतरराष्ट्रीय अदालत हेग के सामने विरोध प्रदर्शन के बावजूद विपक्ष की खामोशी और भी भयावह हो जाती है. नतीजा यह कि सत्ता पक्ष को यह बताने में थोड़ी बहुत कामयाबी तो मिल ही रही है कि प्राय: मुस्लिम समाज ही विरोध में खड़ा है, जिसके चलते हिंदू फिर से गोलबंद होने लगे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार अरुण महेश्वरी का कथन इस परिपेक्ष्य में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, ‘विरोध किसी भी मनुष्य का पहला लोकतांत्रिक अधिकार है. अगर सत्ता प्रतिष्ठान उस पर रोक लगाने लगें तो मामला गंभीर हो जाता है. ऐसे में अगर कोई सियासी दल महज अपनी खाल बचाए रखने के लिए राजनीतिक धर्म भी पूरा नहीं कर रहा है तो ऐसे नेताओं को इतिहास भले माफ कर दे, लेकिन जनता माफ नहीं करेगी.’

बहुमत के साथ होने के अहसास के चलते सत्ता पक्ष वैसे भी सुनता कम ही है और जब इसके साथ संघी हठधर्मिता भी जुड़ जाए तो फिर राम ही मालिक लेकिन अपने ही बुजुर्ग नेता प्रभाश जोशी जैसे वरिष्ठ पत्रकार की बात को तो सुनिए. वैसे आपकी तो आप ही जाने हम तो कदम कदम अगाह करते ही रहेगें. सुनिए बुजुर्ग नेता क्या कह रहे हैं :

‘1. भारत अगर ज्यादातर मुसलमानों को निकाल कर एक हिन्दू राष्ट्र हो जता है तो इससे सबसे ज़्यादा ताक़त तो पाकिस्तान और बांग्लादेश को ही मिलेगी.

2. इस्लामी कट्टरपंथियों ने मुस्लिम समाज का और सिख उग्रवादियों ने सिख समाज का जो हाल किया है, ठीक वही हाल हिन्दू कट्टरपंथी हिन्दू समाज का करना चाहते हैं.’

यह वक्त कट्टर हिंदुओं के लिए तो अच्छा है ही, महामहिम राज्यपाल आरिफ मोहम्मद ख़ान की तरह लिबरल मुसलमानों के लिए भी मुफीद है. लिबरल माने भाजपा की गोद में जा बैठे लोग पक्ष तो अब आपको लेना ही होगा. अगर आप सत्ता पक्ष के खेमे में नहीं हैं तो उसके खिलाफ हैं. लिबरल यानि समझदार लोग, परिवार के लिए ही जीने मरने वाले लोग, जो अपने काम से काम रखते हैं और मौका देख कर ही बात करते हैं ! हमारे जैसे कुछ बेवकूफों की तरह नहीं जो आ बैल मुझे मार की मुद्रा में खड़े रहते हैं :

अजरा आपा ने इसी बात को रेखांकित करते हुए हाशिम रज़ा का एक शेयर भेजा है :

उधर है नेजा ओ’ खंजर मगर इधर हम लोग
मुक़ाबले में खड़े हैं कलम उठाए हुए !

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ROHIT SHARMA

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