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नफरत की प्रयोगशाला

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नफरत की प्रयोगशाला

गुरूचरण सिंह

कुछ दोस्तों ने पूछा है कि साल की पहली तारीख के दिन हमने भीमा कोरेगांव पर चर्चा क्यों नहीं की !! भीमा कोरेगांव तो संवेदनाहीन समाज के खिलाफ सदियों से दबे-कुचले दलितों के सिंहनाद का प्रतीक है. एक कारण तो यही है कि प्रतीकों की राजनीति में मेरा कोई विश्वास नहीं है. इसी के चलते हमने शहरों, स्टेशनों के नाम बदलने और सरदार पटेल की मूर्ति पर हुई फिजूलखर्ची के विरोध किया है. दूसरे इस पर लिखने के साथ ही सारागढ़ी का जिक्र भी करना पड़ता. दोस्तो, अपने लिए और दूसरों के लिए लड़ने में आकाश- पाताल का अंतर होता है और ये दोनों युद्ध बुनियादी तौर पर वक़्त के हुक्मरान अंग्रेजों के लिए ही तो लड़े गए थे, ठीक ‘पहले स्वाधीनता संग्राम’ की तरह जो कुछ सामंतों/नवाबों ने अपने अपने स्वार्थ के चलते अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा था. रानी लक्ष्मबाई के दतक पुत्र को यदि अंग्रेजों ने मान लिया होता तो भी क्या वह इस लड़ाई में भाग लेती ? बिल्कुल नहीं ! जैसे विश्वयुद्धों के दौरान सिखों, महारों आदि की लड़ाई को देशभक्ति से नहीं जोड़ा जा सकता है, ठीक वैसे ही युद्ध थे भीमा कोरेगांव और सारागढ़ी ! भीमा कोरेगांव को जैसे पेशवाओं के खिलाफ महार वीरों का युद्ध बना दिया गया था, वैसे ही सियासी रोटी सेकने के लिए सारागढ़ी को अफगानों के ख़िलाफ़ सिखों का युद्ध बना दिया गया है, जबकि लडाई तो अफगानों और अंग्रेजों की ही थी !!

खैर, इसी तरह के सियासी प्रयोगों को बदकिस्मती से देखना पड़ रहा है हमारे देश को ! दरअसल पूरा देश ही एक बड़ी प्रयोगशाला में तब्दील कर दिया गया है. आर्थिक मुद्दे तो पूरी तरह हाशिए पर धकेल दिए गए हैं और अगर कोई हाथ में लिया भी गया है तो परिणामों के बारे में बिना सोच विचार किए सियासी बहादुरी दिखाने के चक्कर में ! अति सरलीकृत नोटबंदी, जीएसटी जैसे फ़ैसलों का खमियाजा ती देश को आज भी भुक्तना पड़ रहा है. इन मुद्दों की बजाय जोर इस बात पर है कि जनता में आपसी भाईचारा कैसे खत्म हो ? परस्पर अविश्वास कैसे बढे ? नफरत कैसे फैले और हिंसा का तांडव कैसे हो ? इसी मकसद के लिए नित नए प्रयोग किये जा रहे हैं, कभी नागरिकता कानून में संशोधन, कभी एनआरसी तो कभी एनपीआर. एक खास तबके के खिलाफ लगभग एक सदी से जो नफरत के बीज बोए गए थे, उसी की फसल को इनके जरिए काट कर अपने वोटबैंक को बनाए रखने और सरकार के रूप में अपनी असफलता छिपाने की ये सब एक कोशिश भर हैं.

कितनी बार बताना होगा, वतन तो मेरा भी यही है,
क्यों हर बार घुमा फिरा के वही एक बात पूछते हो ?

वाट्सअप यूनिवर्सिटी से भी कई बार कुछ बेहतरीन सामग्री मिल जाती है पढ़ने के लिए, हालांकि होता तो ऐसा कभी कभार ही है. मुस्लिम पहचान से संघ-भाजपा की ऐसी नफ़रत के बारे में किसी कृष्णकांत जी ने खूब लिखा है जिसे आपके साथ थोड़े संपादन के साथ शेयर करना चाहता हूं :

आप मुस्लिम पहचान से नफ़रत करते हैं तो फ़िराक़ गोरखपुरी से भी तो नफ़रत करनी होगी न ? लेकिन वह तो गोरखपुरिया रघुपति सहाय निकलेगा. फ़र्ज़ कीजिए कि आपको ग़ालिब से नफ़रत है ? तो फिर हिंदी के अमीर खुसरो, रहीम और रसखान का क्या करेंगे ? आपको सलमान, शाहरुख़ और नवाजुद्दीन से दिक्क़त है ? चलिए मान लिया, फिर दिलीप कुमार का क्या करेंगे ? रामायण और महाभारत लिखने वाले राही मासूम रज़ा और ‘ओ पालनहारे’ लिखने वाले जावेद अख़्तर का क्या करेंगे ? लगभग सारे अच्छे भजन लिखने, कंपोज़ करने और गाने वाले साहिर, नौशाद और मोहम्मद रफ़ी का क्या करेंगे ?

यदि आपको गुलाम अली, नुसरत फतेह अली ख़ान, मेहदी हसन, तसव्वुर ख़ानम, फ़ैज़ और फ़राज़ से भी दिक्कत है, तो बड़े गुलाम अली खां, ग़ालिब, मीर, जौक़, ख़ुसरो, अल्ला रक्खां, बिस्मिल्ला खान, राशिद खान, शुजात खान, ए आर रहमान का क्या करेंगे ? एआर रहमान तो पैदाइशी हिंदू है भाई ? कैसे और किस-किस से नफ़रत करोगे मियां ? अगर आपको राहत से दिक्क़त है तो मौजूदा हिंदुस्तानी संगीत के पितामह अमीर ख़ुसरो का क्या करेंगे ?

कुछ मूर्खों ने उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया है, पर क्या आप जानते हैं कि उर्दू खालिस हिंदुस्तान में पैदा हुई ज़ुबान है ? अगर आप उर्दू शायरी और साहित्य से नफरत करेंगे तो पंडित आनंद नारायण मुल्ला, मुंशी प्रेमचंद, महेंद्र सिंह बेदी, रघुपति सहाय फिराक, दुष्यंत कुमार, अमृता प्रीतम, नीरज आदि का क्या करेंगे ? क्या आप मंटो को भी अपना अदीब मानने से इंकार करेंगे ? इन तमाम हस्तियों को आप अगर हटा देते हो तो फिर संस्कृति, भाषा और साहित्य के नाम पर आपके पास तुलसी, सूरदास के अलावा बचेगा क्या ? गोडसे और उसकी पिस्तौल ? वही पढ़ाओगे क्या अपने बच्चों को ?

उनकी बुद्धि और बेचारगी पर विचार कीजिए जो रविन्द्रनाथ टैगोर, मुंशी प्रेमचंद और ग़ालिब जैसी हस्तियों को पाठ्यक्रम से हटाना चाहते हैं. उनके बारे में सोचिए जो एक सदी के लेखकों, कलाकारों को ‘नक्सली’ और ‘देशद्रोही’ घोषित करने पर आमादा हैं !! वही लोग यह हिंदू-मुस्लिम एजेंडा आपके दिमाग में भर रहे हैं, वही लोग आपको मानव बम में बदल रहे हैं !!

हिंदू परंपरा एक महान परंपरा है, जिसका सदियों पुराना इतिहास है. हिंदू धर्म न मुसलमान शासकों के राज में मिटा, न कुटिल अंग्रेजों के राज में. एक हजार साल गुलामी से तो हिंदू मिटा नहीं, आज जब इस लोकतंत्र में जहां हिंदू बहुसंख्यक हैं, हिंदुओं का ही राज है, फिर क्यों कहा जा रहा है कि हिंदू खतरे में है ? क्या ‘बांटो और राज करो’ का एजेंडा आप नहीं समझते ? राम के नाम पर तालिबानी जानवर पैदा कर देने से हिंदुओं का कौन सा भला हो जाएगा ? जिन लोगों में घृणा का स्तर ऐसा हो गया हो, वे दावा भी करें तो भी वे किस तरह के देश का निर्माण करेंगे ? अंदाजा आप खुद लगाइए !

सिर्फ किसी के मुस्लिम नाम से नफ़रत मत कीजिए, उसके पहरावे से नफ़रत मत करिए, वरना आपकी एक हजार साल की संस्कृति को दफन करना पड़ेगा और ऐसा करने में आप भी तो दफन हो जाएंगे इसलिए हिंदू और मुसलमान, दोनों को अपनी-अपनी अकल ठिकाने रखनी चाहिए. इस देश की मिट्टी में भगत सिंह के साथ अशफ़ाक़ का भी लहू मिला हुआ है. आप अगर चाहें भी तो इसे अलग नहीं कर सकते. नफ़रत और हैवानियत महान नहीं बनाती, नामोनिशान तक मिटा देती है.

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ROHIT SHARMA

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