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श्रेष्ठता का दंभ

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श्रेष्ठता का दंभ

गुरूचरण सिंह

आत्मतुष्टि का भाव हमारे देश की सांस्कृतिक विशेषता है. देश की विशेषता अर्थात देश के सुविधा संपन्न कथित उच्च वर्गों की विशेषता ठीक वैसे ही जैसे आजकल सरकार को ही देश मान लेने का रिवाज़ हो गया है. शुद्र तो वैसे भी कभी किसी गिनती में थे ही नहीं. उनके लिए तो आज भी लगभग वही ‘कोऊ होऊ नृप हमहुं का हानि’ वाली स्थिति ही बनी हुई है.

वैसे भी श्रेष्ठता वाले भाव के पिटारे में जगह थोड़ी कम ही होती है, कुछ लोग ही समा सकते हैं उसमें; दूसरों को तो कीड़े-मकोड़े ही समझा जाता है. श्रेष्ठता के इसी भाव के चलते दुनिया के दो बड़ी जंग देखनी पड़ी थी और करोड़ों जाने गई, कई तरह के वैचारिक और मनोवैज्ञानिक संकटों का सामना करना पड़ा था. अपने ही देश में हम ऐसे ही अनेक संकटों से जूझ रहे हैं. कुछ लोग यहां भी अपने से भिन्न विश्वास वाले कुछ दूसरे लोगों को निशाने पर रखे हुए हैं.

कहते हैं खुद को हम विश्वगुरू ! हम दावा करते हैं ज्ञान बुद्धि में हम से बेहतर कौन है ? हमीं ने पूरे संसार को सभ्यता का पाठ पढ़ाया है; हम विश्वगुरू हैं ! लेकिन है तो यह विश्वास भी असलियत से कोसों दूर. अगर यह बात सच है तो क्यों इन्हीं श्रेष्ठ लोगों के बच्चे शिक्षा और नौकरी पाने या वहीं बस जाने के लिए विदेशों का रुख करते हैं ? वह तो भला हो अर्नोल्ड का जिसने Light Of Asia लिख कर महात्मा बुद्ध का परिचय दुनिया से करवा दिया और बहुत से देशों ने इसे अपना भी लिया वरना तो मिथकों को भी इतिहास मानने वाले, टोने-टोटके और चमत्कारों में यकीन रखने वाले लोगों को पूछता ही कौन है !!

लेकिन अफसोस हमारे अवचेतन में श्रेठता का यह भाव इतना गहरे मौजूद है कि कोई भी शातिर व्यक्ति या संस्था जब भी चाहे इस पर हुई जमी समय की धूल को हटा कर इसका मनचाहा फायदा उठा सकती है. संघ- भाजपा की आशातीत सफलता के पीछे भी यही यही भाव काम कर रहा है ! आप लाख दलीलें देते रहिए, करेंगे तो लोग वही जो उनका दिल कहेगा, उसमें जमा यह विश्वास कहेगा. कोई परवाह नहीं उन्हें भूखे मरने की, शिक्षा, बेरोजगारी और महंगाई की यदि कोई यह बिता हुआ उनका ‘स्वर्णिम अतीत’ लौटने का विश्वास दिला दे ! कुछेक महत्वाकांक्षी थैलीशाहों के खुले हाथों सहयोग के अलावा संघ भाजपा की सफलता का यही सबसे बड़ा कारण है.

श्रेष्ठता के इस दावे की बुनियाद कितनी मजबूत है, इसे देखने की ज़हमत हम में से किसी ने कभी नहीं उठाई. आधार के नाम पर बस ईश्वरीय ज्ञान ‘वेद’, निगम-आगम, कपोलकल्पित पौराणिक कहानियां और गणित के शून्य और खगोलीय गणना की महिमा को परोस दिया जाता है. उसी सतयुग या स्वर्णयुग की ओर लौटने का सपना देख देख कर पली बढ़ी और खत्म हो गई हैं अनगिनत पीढ़ियां; लेकिन फिर भी वह सुंदर सपना आज भी जीवित है और आज के संदर्भ में जबरदस्ती उसे हकीकत मानने पर सबको मजबूर भी किया जा रहा है.

सतयुग की बात तो खैर बहुत दूर की है, हम आधुनिक विश्व की बात करते हैं जो 1800 के बाद का है और इतिहास में जिसे जांचने-परखने के सबूत भी दर्ज हैं. इस समय के दौरान दुनिया में जितनी भी तरक़्क़ी हुई है, वह केवल और केवल पश्चिमी मुल्कों यानी यहूदी और ईसाई लोगों के चलते ही हुई है. बदकिस्मती से दुनिया की बेहतरी में हिंदू और मुस्लिमों की हिस्सेदारी 1% की भी नहीं रही है. 1800 से 1940 तक तो भारत के हिंदू और मुसलमान दोनों ही सिर्फ अपनी गद्दी के लिए ही आपस में लड़ते रहे हैं !

जरा शिक्षा के क्षेत्र में नज़र दौड़ाए तो आप देखेंगे कि 61 इस्लामी मुल्कों की और हिंदू आबादी कुल मिलाकर कोई 2.76 अरब के करीब है यानी दुनिया की आबादी के आधे से भी कुछ ज्यादा. इसके बावजूद इन देशों में उच्च शिक्षा के लिए केवल 435 यूनिवर्सिटी मौजूद हैं जबकि एक अकेले अमेरिका में ही इनकी संख्या 3000 से भी अधिक है और छोटे से मुल्क जापान में तो ये 900 से अधिक हैं. शिक्षा होगी तभी तो अविष्कार भी होंगे. यही वजह है आज दुनिया के 100 बड़े अविष्कारकों में से कठिनाई से आप एक-दो नाम ही हिंदू या मुसलमानों के खोज पाएंगे !!

आज भी उच्च शिक्षा और बेहतर रोजगार व जीवन शैली के लिए हमारे नौजवान पश्चिमी मुल्कों की ओर ही भागते है और वहां बस जाने का सपना पालते हैं. जहां स्वार्थ हो वहां पर ‘अपनी श्रेष्ठता’ किसी को दिखाई नहीं देती. उच्च शिक्षा पा चुके भारतीय नौजवान भी अमरीका की तरक्की के लिए काम करते हुए देखते ही देखते ‘सिलिकॉन वैली’ तो तैयार कर सकते हैं, लेकिन देश में ऐसा कोई काम करने का जोखिम उठाना उन्हें गवारा नहीं है. भारत से एक साल बाद आजाद हुआ चीन माइक्रोसॉफ्ट और गूगल के मुकाबले कई कंपनियां खड़ी कर देता है ; इतनी तरक्की कर लेता है कि दुनिया के पांच बड़े चौधरियों में शामिल हो कर सबसे बड़े चौधरी अमरीका को आंखे दिखा सकता है. उसकी पेशानी पर बल पड़ते ही कई देशों के पूंजी और शेयर बाज़ार कांपने लगते हैं और हम हैं कि बस हिंदू-मुस्लिम में ही उलझे हुए हैं !!

ईसाई दुनिया में 45% नौजवान यूनिवर्सिटी स्तर तक पहुंचते हैं जबकि मुसलमान 2% और हिंदू 8% ही यूनिवर्सिटी स्तर तक पहुंच पाते हैं. इसका एक कारण यह है कि दुनिया की जो 200 बड़ी यूनिवर्सिटी है उनमें से 54 अमरीका, 24 इंग्लेंड, 17 ऑस्ट्रेलिया, 10 चीन ,10 जापान, 10 हॉलॅंड , 9 फ़्रांस और 8 जर्मनी में हैं जबकि भारत में दो और इस्लामी मुल्कों में एक ही बड़ी यूनिवर्सिटी है !

अब तक दुनिया के 15,000 बड़े अविष्कार हुए जिन्होंने दुनिया के जीने का अंदाज़ बदल दिया है. इनमें से 6103 अविष्कार तो अकेले अमेरिका में हुए हैं और 8410 अविष्कार ईसाइयों या यहूदियों ने किए हैं. ओलंपिक खेलों में भी अमेरिका, यूरोप और चीन का ही दबदबा रहा है. बाकी चीजों की तरह खेलों में भी हम फिसड्डी ही रहे हैं !

श्रेष्ठता के इस दावे में यह कड़वा सच भी मिला हुआ है कि हम हद दर्जे के स्वार्थी लोग हैं; दोगला व्यवहार हमें विरासत में मिला है. बात हम ‘विश्व बंधुत्व’ की करते हैं और देश की बहुसंख्यक आबादी के साथ दासों जैसा बर्ताव करते हैं, उनसे छुआछूत करते हैं, लेकिन उनकी औरतों के साथ सो जरूर सकते हैं, उसमें उच्च वर्ण आड़े नहीं आता. श्रेष्ठता का अगर यही आदर्श है तो माफ करें नहीं चाहिए हमें ऐसी श्रेष्ठता जो सामाजिक भेदभाव और असमानता पर टिकी हुई हो.

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ROHIT SHARMA

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