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बेशर्म हिंसक सरकार के खिलाफ जागरूक अहिंसक आन्दोलन

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बेशर्म हिंसक सरकार के खिलाफ जागरूक अहिंसक आन्दोलन

सीएए / एनआरसी विरोधी आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि इसने गांधी को पुनः प्रासंगिक बना दिया है. इसने सत्याग्रह और अहिंसा की ताकत को पुनः दुनिया के सामने दिखा दिया है.

दरअसल सरकार इसलिए औचक खड़ी है क्योंकि वह हिंसक आंदोलनों से निपटना जानती है, पर इन गा रहे, फूल दे रहे, हंसकर बात कर रहे नौजवानों-बुज़ुर्गों-महिलाओं से कैसे निपटे ?

इस आंदोलन ने कई नए मुकाम हासिल किए हैं. लोगों ने जान लिया है कि तानाशाह को हंसी से सबसे ज्यादा डर लगता है. जितने कल्पनाशील प्लेकार्ड्स इस बार देखने को मिले हैं, उन्हें संग्रहीत भर कर लिया जाए तो भविष्य के दस्तावेजी इतिहासकारों के लिए बड़ा काम हो जाए.

शाहीनबाग की महिलाओं ने दिखा दिया है कि निरंतर लंबा सत्याग्रह कैसे चलाया जा सकता है. महिलाएं और विद्यार्थी जितनी बड़ी संख्या में इस बार आगे की कतार में हैं, पहले लंबे अरसे से नहीं देखे गए. और इनमें से कितने ही ऐसे हैं जो शायद पहली बार सामने आए हैं. हमें बांंटने वाली सामुदायिक दीवारें टूट गई हैं, एक विद्यार्थी इसलिए डिग्री लेने से इंकार कर देता है कि उसके अन्य साथी कैद में हैं, एक लड़की दीक्षांत समारोह में स्टेज पर खड़े होकर कागज़ फाड़ती है और नारा लगाती है. मैंने हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित की हत्या के बाद चले आंदोलन में इस एकता की झलक पाई थी, लेकिन वह सीमित था, इस बार पूरे मुल्क में है.

और इसीलिए सरकार इन्हीं मुद्दों पर आंदोलन को गलत साबित करने की कोशिश कर रही है. पहला, वह और उसका पाला हुआ गोदी मीडिया चुन-चुन कर हिंसा के छिटपुट उदाहरणों को हाईलाइट कर रहा है. जबकि सत्य यह है कि सबसे ज्यादा हिंसा पुलिस की ओर से हो रही है, दमन के सारे हथकंडे अपनाए गए हैं, घरों-पुस्तकालयों में जाकर पुलिस ने नीचता की हदें पार कर दी हैं. लेकिन लोग धैर्य नहीं खो रहे हैं, वे पुलिस के दमन के वीडियो बनाकर उनकी नंगई को उजागर कर रहे हैं.

एक पुलिस अधीक्षक जब सारे मोहल्ले को पाकिस्तान जाने की धमकी देता है तो वे उसकी इस नीच हरकत पर भड़ककर स्थिति को बिगड़ने नहीं देते बल्कि उसे रेकॉर्ड कर उसे सबके सामने नंगा कर देते हैं.

दूसरा, चूंकि सरकार इस एकता से ही सबसे ज्यादा घबराई हुई है इसलिए वह मुसलमानों के प्रदर्शन पर हमले करके इसे एकपक्षीय मामला बनाने की कोशिश कर रही है. देश भर के विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन होते हैं पर वह सिर्फ एएमयू और जामिया के विद्यार्थियों पर टूटकर पिलती है. मीडिया पब्लिक प्रोपर्टी के नुकसान पर लंबी डिबेट करवाता है पर जब रिपोर्ट आ जाती है कि बस पर हमले में एक भी विद्यार्थी शामिल नहीं था तो पलटकर नहीं पूछता कि फिर कैंपस में घुसकर पढ़ रहे नौजवानों को क्यों मारा गया ? पर लोग सावधान हैं. वे पुलिस से ज्यादा उन शरारती तत्त्वों का ध्यान रख रहे हैं जो उनके आंदोलन को बदनाम करने के लिए भीड़ में घुसकर हिंसा फैलाते हैं. इस बार यह हथकंडा भी शुरुआत में ही फेल हो गया है.

मीडिया शाहीनबाग के बारे में चाहे चुप्पी साध ले पर समानांतर मीडिया और जनता के वायरल वीडियो इस अद्भुत सर्जनात्मक सत्याग्रह को दुनिया के सामने ला रहे हैं.

पहली बार व्हाट्सएप वीर पढ़ने की गुजारिश कर रहे हैं. जिस काम से उनका कोई ताल्लुक नहीं रहा, उसे करने की भरसक कोशिश कर रहे हैं और मुंह की खा रहे हैं. थोड़ी सी देर में उनका ‘यह कानून किसी समुदाय के खिलाफ नहीं है’ का आवरण उतर जा रहा है और उनका मुस्लिम द्वेष उघड़ कर सामने आ जा रहा है. जनता सब देख और समझ रही है.

सबसे बड़ी बात, तिरंगा सही हाथों में आ गया है. उनके हाथों में, जो इसके सही हक़दार हैं. तिरंगा बलात्कारियों के समर्थकों के हाथों में देखने का शर्मनाक दौर भी इस मुल्क ने देखा है. अब ये सत्याग्रही अपनी विविध पहचानों के साथ तिरंगा लहरा रहे हैं और कह रहे हैं कि ‘आओ, हमें हमारे कपड़ों से पहचानो !’

राजनीति विज्ञान के बेसिक्स को रिवाइज़ करने का समय आ गया है. पहला तो यह कि लोकतंत्र का मतलब हर नागरिक के मौलिक अधिकारों की अक्षुण्णता होता है, बहुमत को बहुसंख्यकवाद में बदलकर उन्हें खारिज नहीं किया जा सकता. एक अकेले के अधिकार भी उतने ही पवित्र हैं जितने बहुमत के और उन्हें दांंव पर नहीं लगाया जा सकता. दूसरा, जनता ने यह दिखा दिया है कि लोकतंत्र में भागीदारी का मतलब सिर्फ वोट देना नहीं होता. जागरूक जनता वोट देकर पांंच साल के लिए सो नहीं जाती, वह अपनी चुनी सरकार के हर कदम पर निगाह रखती है, उसे जनविरोधी होने से रोकती है. लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ सहभागिता होता है.

बैकफुट पर आया तानाशाह हड़बड़ा कर कहता है – ‘मैंने कब ये कहा ?’ लोग हंसकर उसके पुराने वीडियो निकालकर रख देते हैं और बता देते हैं कि वह बैकफुट पर किसी भलमनसाहत से नहीं आया है, उसे इस अभूतपूर्व जनप्रतिरोध ने मजबूर किया है.

रास्ता बेशक लंबा है, पर जितना और जिस ख़ूबसूरती से हमने अब तक मिलकर चला है, वह क्या कम है !

  • हिमांशु पाण्डया

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ROHIT SHARMA

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